Friday, September 23, 2011

अपनेपन की छाया में

दर्द के काले-घने
बादलों को
अपने सीने में
उमड़ने-घुमड़ने दो,
जमकर बरस लेने दो
मन के सूखे,
सूने आँगन में,
तोड़कर पलकों के बांध
निकल आने दो
आंसुओं की बाढ़,
बहा ले जाने दो
अपने भीतर का
सारा संताप.

मुसीबतों का अँधेरा
आएगा,छाएगा
बार-बार,बार-बार,
लगातार
पर,ठहर नहीं पायेगा,
उसका आशियाना बने
उससे पहले
जला लेना तुम
उम्मीदों के दीप
अपने भीतर,
घर के बाहर
नील गगन में भी
निकल आएगा
चमकता हुआ
दूधिया चाँद,

सूरज के उगने का
करना इन्तजार,
उसके उजाले से
जगमग हो उठेगा
सारा संसार.

अगली सुबह
अपने आँगन में बने
तुलसी के चौरे में
लगा लेना तुम
एक नन्हा सा पौधा
या, फिर लगा लेना
एक नाजुक सी बेल
डालकर
ढीली मिटटी में
एक नन्हा सा बीज,
सींचना उसे प्रतिदिन,
अपने स्नेह-जल से
रखना उसे सिक्त.

देखना उसे निरंतर
बढ़ते हुए,
धीरे-धीरे उगते हुए
पत्ती-पत्ती,डाली-डाली ,
फूलों से सजते,
फलों से लदते हुए
पल-पल,हर-पल
सुबह-दोपहर-शाम.

अपनी आँखों में बसाकर
अपनी यादों में बसा लेना,
पौध से पेड़ तक का सफ़र,
बीज से बेल तक का सफ़र
हरियाली से भर जायेगा
तेरे घर का आँगन,
खुशियों का रैन बसेरा होगा
कोना-कोना तेरा मन,
परायों की भीड़ में
मिल जाएँगे तुम्हें
ढ़ेरों अपने.
सपनों से भर जायेगा
तेरा जीवन.

दुःख की परछाई
नहीं फटकेगी तेरे पास
अपनेपन की छाया में
चैन से कट जायेगा
तेरा वर्तमान,
तेरा आनेवाला कल भी
संवर जायेगा

(छोटी बहन के लिए सस्नेह)

Thursday, September 15, 2011

"बाँध के फाटक उठाओ"

आज
प्रकृति से कर घात
पहाड़ों के हृदय को
दे भारी आघात
बांधकर नदियों को
ऊंची घाटियों में
ढ़ेरों बाँध से
रोक दिया है तुमने
उनका नैसर्गिक प्रवाह.

सपना खुशहाली का देकर
छीन ली
हमारी
हरी-भरी धरती ,
ले लिया है
हमारा
सारा आकाश .

बाँध के आगे
बनाकर
छोटे-छोटे,
अपने-अपने बाँध
नदियों को बंधक बना,
दिखाकर सपने
सुनहरे भविष्य के
घर से भी हमें
बेघर कर गए,
रोजी छिनी,रोटी छिनी ,
खाने के लाले पड़ गए.

आजतक मूंदें रहे हम
अपनी आँखों के पलक
सोचकर कि खो न जाएं
ख्वाब सारे
जो हमें तुमने दिए.

जल तरल है,
वह सरल है
वह सहज ही बढ़ चलेगा,
चाहे कितनी भी हो बाधा
राह अपनी ढूंढ़ लेगा,
बनके निर्झर एक दिन वह
इस धरा को चूम लेगा

अब नहीं
बादल दिखाओ,
अब न बातों में घुमाओ
आ गया है अब समय
तुम बाँध के फाटक उठाओ,

Friday, September 2, 2011

"कैक्टस के फूल"

काँटों-भरी
अपनी हरियाली के संग
जीते रहे जीवन पर्यंत,
भूलकर अपना सारा दर्द
मुस्कुराते रहे
अभावों के शुष्क रेगिस्तान में,
समय के बेरहम थपेड़ों से
बेहाल
करते रहे
बारिश के आने का इन्तजार ,
देखते रहे
एकटक
उम्मीद के बादलों से भरा
सूना आकाश.

सूरज को रखकर
सदा अपने सर-आँखों पर,
उसकी तपती छांव में
सुख के रिमझिम फुहारों का
बिना किये इन्तजार
लगाते रहे बाग़,
श्रम के स्वेद-कणों से
भिगोते रहे जमीन
उगाते रहे फूल
तुम्हारे लिए
बिना मांगे
अपने श्रम का
प्रतिदान.

गुलाब के चाहने वालों
काँटों के बिना
बस फूलों की करो बात,
काँटों की तो हर जगह
एक सी ही है जात.
पर
तुम्हें
कहाँ दिखाई देता है
काँटा अपने गुलाब का,
कहाँ दिखाई देता है
हमारा त्याग.

हमने
स्वेच्छा से चुनी है
अवसरों की उसर जमीन
ताकि गुलाब को मिल जाए
हरा-भरा उपजाऊ मैदान,
फिर भी
कहाँ भाए तुम्हें
काँटों के बीच खिलते
"कैक्टस के फूल"

खुले आसमान के
नीले छप्पर तले
ओढ़कर
चाँद की शीतल चांदनी
सपनों के सिरहाने
रखकर अपना सर
बेफिक्र हो सोते रहे,
मुट्ठी-भर मिटटी में भी
मुस्कुराकर जीते रहे
अपने विश्वास के सहारे
अपनों के साथ
आजतक.
(समाज के उस बड़े हिस्से को सादर समर्पित जो हमें सबकुछ देकर आज भी सर्वथा उपेक्षित है )

Thursday, August 11, 2011

बहन हो तुम.

बहन हो तुम. .
हर भाई का अरमान हो तुम
राखी के धागे में लिपटी
एक मनभावन पहचान हो तुम,
मां के जैसा है मान तेरा
घर-घर पाती सम्मान हो तुम.

स्वार्थ भरी इस दुनिया में
एक सुखद अहसास हो तुम.
घायल हाथों की पट्टी हो,
आहत मन का बाम हो तुम.
स्नेह का जलता दीपक हो,
ममता का बिम्ब महान हो तुम.
संचारी है रूप तुम्हारा,
सर्वोत्तम जीवन आयाम हो तुम.

तुमसे सूरज-चाँद हमारे,
झीलमिल,झिलमिल करते तारे,
हरा-भरा जीवन है तुमसे,
सच्चे सुख का संसार हो तुम.
इतना सुन्दर,इतना कोमल
है तेरे धागों का बंधन
मृग बन ढूंढ़ रहे जो खुशबू,
उसका भी स्रोत साकार हो तुम.

जब-जब माथे तिलक लगाती
राखी बांध जब तुम मुस्काती,
खुशियों की एक धार निकलती,
लगता सृष्टि साकार हो तुम.

ख़त में सिमटी तेरी बातें,
भींगे सावन की सौगातें
धागों में बंध बढ़ता जीवन
फूलों भरी बहार हो तुम

धरती हो तुम,आसमान हो तुम,
चमत्कारी वरदान हो तुम
रिश्तों का केंद्र हो,
बहन हो तुम.

Wednesday, August 3, 2011

समझ लेने दो

अब तो
रह गया है
मेरी यादों में बसकर
मिटटी की दीवारों वाला
मेरा खपरैल घर
जिसके आँगन में सुबह-सबेरे
धूप उतर आती थी,
आहिस्ता-आहिस्ता,
घर के कोने-कोने में
पालतू बिल्ली की तरह
दादी मां के पीछे-पीछे
घूम आती थी,
और
शाम होते ही
दुबक जाती थी
घर के पिछवाड़े
चुपके से.

झांकने लगते थे
आसमान से
जुगनुओं की तरह
टिमटिमाते तारे,
करते थे आँख-मिचौली
जलती लालटेनों से.

आँगन में पड़ी
ढीली सी खाट पर
सोया करता था मैं
दादी के साथ.

पर,आज
वहां खड़ा है
एक आलीशान मकान,
बच्चों की मर्जी का
बनकर निशान.
उसके भीतर है
बाईक,कार,
सुख-सुविधा का अम्बार है.

नहीं है तो बस
उस मिटटी की महक
जिससे बनी थी दीवारें,
जिसमें रचा-बसा था
कई-कई हाथों का स्पर्श,
अपनों का प्यार,
नहीं है वो खाट
जिसपर
चैन से सोया करता था
मेरा बचपन.

एकबार फिर
जी लेने दो मुझे
उन यादों के साये में,
समझ लेने दो
अपनेपन का सार.

Friday, July 22, 2011

मुंबई

पहले की तरह आज भी घायल हुई है रूह
इसबार भी लोगों का चैनों-सुकून छिना है
न हिन्दू मरा है,न मुसलमान मरा है,
हर एक धमाके में बस इन्सान मरा है.
रोया है आसमान भी औरों के साथ-साथ,
धरती का भी सीना चाक-चाक हुआ है.
चारो तरफ है दर्द का सैलाब यहाँ पर,
जेहन में बस गया है धमाकों का शहर आज.
रखती हैं हवाएं भी कदम फूंक-फूंककर,
इन हादसों का आज ये अंजाम हुआ है.
मजबूर है,कई पेट चल रहे है इसके साथ,
घर बैठ निवाला जुटा पायेगा कहाँ आज.
जाएगा कहाँ भागकर अपनी जमीन से
रफ़्तार में है जिंदगी के मौत साथ-साथ
उड़ते हैं आसमान में बस गिद्ध,चील,बाज,
डैनों में कहाँ दम कि कबूतर करें परवाज
हैवानियत की हर तरफ तस्वीर दिख रही
शांति का मसीहा नहीं दिखता है कहीं आज.

(एक बार फिर देश की आत्मा लहू-लुहान हुई है)

Monday, July 18, 2011

बुढ़ापा होता है...........

बुढ़ापा होता है
पुराने साईकिल की तरह जर्जर,
इसके घिसे-पिटे टायर,
जंग लगे पाइप,
ढीले पड़े नट-वोल्ट,
लटकते पैडल
और गुमसुम पड़ी घंटी,
बहुत मेल खाते हैं
उसके आकर्षणहीन झुर्रीदार चेहरे ,
उसकी लडखडाती चाल से.
दोनों पर पड़ी होती है
समय की मार,
दोनों ही होते हैं
अपनों की उपेक्षा के शिकार,
दूसरों पर निर्भर और लाचार.

जैसे साईकिल को चाहिए
समय-समय पर रंग-रोगन,
अच्छा रख-रखाव,
बुढ़ापा भी चाहता है
अपनों का साथ,
रखना चाहता है
स्वयं को लपेटकर
यादों की रंगीन चादर में,
चाहता है
इसके साये में तय हो जाये
उसके जीवन का सफ़र
चैनो-आराम से.

बुढ़ापा होता है
सड़क के दोनों ओर खड़े
सरकारी पेड़ों सा कृशकाय,
अपने अस्तित्व की लड़ाई
स्वयं ही लड़ता हुआ.
आँधियों की कौन कहे,
तिरस्कार का एक झोंका भी
सहज ही
धराशायी कर जाता है जिसे,
जडें जो नहीं होती है
जमीन की गहराई में.

इसे तो चाहिए
थोड़ी मिटटी सहारे की,
तोडा सा स्नेह जल
सबल और सजल होने के लिए
ताकि अंतिम क्षण तक
सबको दे सके
अपनी बरगदी छाँव.

बुढ़ापा होता है
गुमनामी के गर्त में पड़े
जीर्ण-शीर्ण खँडहर सा
नितांत अकेला,उपेक्षित,
आलिशान अट्टालिकाओं के मध्य
जिसे चाहिए एक पहचान.

इसे देनी होती है
अहमियत
बतलाना होता है
सबको इसका महत्व
समझाना होता है
अपने-आप को
"खँडहर की भी होती है
एक सभ्यता".
सजाना होता है
गौरवशाली इतिहास से
इसका वर्तमान,
सुन्दर बागीचों से
इसका आस-पास.

समझ से परे है यह बात
सदियों से ईश्वर मान
जो पत्थर को भी
देते आये हैं सम्मान,
क्यों करने लगे हैं
अपने ही आनेवाले कल का
पग-पग पर अपमान.

बुढ़ापा तो होता है
ज्ञान का आसमान ओढ़े
समंदर सा विशाल
जिसकी छाती पर
सोता है समय
इतिहास बनकर,
ह्रदय में बसा होता
रिश्तों का संसार
रत्नों का ढेर बनकर.

(आज बड़े-बुजुर्गों की समाज में जो हालत वही इस रचना का प्रेरणा स्रोत है.)

Friday, July 15, 2011

उसके शाम की कहाँ होती है भोर.......

जब कभी देखता हूँ
अपने चारो ओर,
हर तरफ दिखाई देता है
जवानी का जलवा,
हर तरफ सुनाई देता है
जवानी का शोर.
समय के शिखर पर खड़ा
बुढ़ापा देखता रहता है चुप-चाप
जीवन में आता बदलाव,
स्वयं को पाता है
लेटा हुआ
शर-शैय्या पर
भीष्म सा.
चारो ओर होती
सिर्फ कौरवों-पांडवों की भीड़,
उसके शाम की
कहाँ होती है भोर......

Wednesday, June 29, 2011

अजन्में का इन्तजार

तुम्हें तो पा लिया,बेटे
लेकिन खो दिए हैं
तेरे इंतजार में बीते
बैचैनी-भरे
पल.
पल जो मन को तरसाते थे,तड़पाते थे,
आशा और निराशा के भंवर में घुमाते थे.

तेरे आने की बात
मन को गुदगुदाती थी ,
तुम्हारे ना आने की बात
हमें डराती थी,
कराती थी विवशताओं का अहसास ,
ह्रदय को शंकाओं से भर जाती थी.

तेरे आते ही ख़त्म हो गए
बेकरारी भरे पल,
ख़त्म हो गया
अजन्में का इन्तजार,
भर गया घर का कोना-कोना
आनंद के अतिरेक से.

तुम्हारे आने से
जीवन को मिल गई है
नई उर्जा,नई दिशा,
मिल गई है एक नई राह
चलने के लिए,
मिल गया है नया आकाश,
नया सूरज,नया चाँद
चमकता हुआ,
रिश्तों की छांव में
जीवन सजाने के लिए .

Wednesday, June 22, 2011

तुम्हारी मुस्कान

तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
सोये नहीं थे हम
कई-कई रात ,
तुम्हारी एक मुस्कान पर
हम रहे न्योछावर.
तुम्हारे हर क्रंदन पर,
बेचैन,

तुम्हारा मचलना,
गुस्सा होना,चिल्लाना
और फिर ...
सहज हो जाना,
जो तुम्हारी मुस्कान में है,
बहुत राहत देता है
सिर पर जलता सूरज ओढ़े
समय की तपती रेत पर
चलते हमारे मन को.

जब-जब तुम मुस्कुराते हो
कभी राम,
तो कभी कृष्ण,
कभी पुरवैया का झोंका ,
कभी जीवन अभिराम हो जाते हो
क्योंकि तुम जीते रहे
अपना जीवन
पल-पल.

आज
मैं भी जीना चाहता हूँ
हर कतरा जीवन
होना चाहता हूँ,
निर्विकार
तुम्हारी तरह.

भाव से परे नहीं,
भावपूर्ण होना चाहता हूँ.
होना चाहता हूँ
परिस्थितिजन्य.

परन्तु
इतना आसान कहाँ है ये सब ,
हमारे निश्छल भावों पर
हमारा विचार हावी है,
समय हावी है,
समय के साथ ही
सारा संसार हावी है.

Tuesday, June 21, 2011

तुम तक जाना है मुझे

तुम तक जाना है मुझे
समय कटता नहीं,
विरह में जलता हूँ,
हसरत-भरी निगाहों से
देखता हूँ
सामने
सड़क के पार
जहाँ है तुम्हारा घर
हरियाली के बीच.

हमदोनों के घरों के बीच
है चिलचिलाती धूप
जेठ की दोपहरी की
हैं दरारों भरे सूखे खेत,
जहाँ चलते हैं
लू के बेरहम थपेड़े
गर्म हवाओं में बहता है
पानी का भरम.
दिखता है चारो ओर
पानी ही पानी ,
प्यास ही प्यास.
रास्ते लगते हैं
ठिठककर ठहरे हुए.

चाहत और दूरियां
चलती हैं साथ-साथ
एक-दूसरे के समानान्तर.
न दूरियां ख़त्म होती है
न ही मिलन की आस .

ख़ुशी बस इतनी सी है
तुम बस जाओगी
मेरी यादों में
एक तड़प बनकर.

तड़प
जो इंतजार करना सिखाता है,
औरों के लिए
जीना-मरना सिखाता है.

(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)

न जाने क्यों?

न जाने क्यों?
लोग प्यासे रह जाते हैं
पानी नहीं बचाते.
जलते रहते है
जेठ की दोपहरी में,
मगर पेड़ नहीं लगाते.
न जाने क्यों?

देखते हैं घायल को
सड़क पर तड़पते,
तड़प-तड़पकर कर
दम तोड़ते हुए
तमाशबीन बनकर,
मगर सहायता के लिए
आगे नहीं आते,
उसे अस्पताल
नहीं पहुंचाते.
न जाने क्यों?

देखते हैं सरेआम
झपटमारी, छेड़-छाड़,
नहीं करते विरोध,
मदद को
आगे नहीं आते.
काटकर कन्नी
निकल लेते हैं.
न जाने क्यों?

सहते रहते हैं
सारे जुल्मों-सितम
चुप-चाप ,
आवाज नहीं उठाते,
नहीं करते प्रतिकार.
न जाने क्यों?

रह लेते हैं
घुप्प अँधेरे में
चुपचाप ,
दीया नहीं जलाते,
ढूंढ़कर नहीं लाते
दूसरा सूरज.
न जाने क्यों?.
(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)

जितिया (पुत्र-रक्षा व्रत)

मैंने देखा है तुम्हें
रखते हुए व्रत
जितिया का
बार-बार,लगातार
वर्ष-दर-वर्ष.
जानता हूँ
परंपरा से ही यह
आया है तुझमें.

कहते हैं
रखने से यह व्रत
दीर्घायु होते हैं बच्चे,
टल जाती हैं
आनेवाली बलाएँ,
निष्कंटक हो जाता है
उनका जीवन.

देखा है मैंने
तुम्हें रहते हुए
निर्जलाहार
सूर्योदय से सूर्योदय तक,
तुम्हारे कुम्हलाए चेहरे में
देखा है
आत्मविश्वास का सूरज
उगते हुए.

देखा है तुम्हें
किसी तपी सा
करते हुए तप
पूरी निष्ठा से,
मौन रहकर
मौन से करते हुए बात,
देखा है तुम्हें
निहारते हुए शून्य में,
माँगते हुए मन ही मन
विधाता से आशीष
अपने बच्चों केलिये.

अपने अटूट विश्वास के सहारे
कर लेना चाहती हो
अपने सारे सपने साकार
कर लेना चाहती हो
सारी भव-बाधाएं पार.

चाहती हो
तुम्हारे रहते न हो
उनका कोई अहित
चाहे कितना भी
क्यों न उठाना पड़े कष्ट,
रखना पड़े व्रत-उपवास.

शायद
उबरना चाहती हो
अनिष्ट की आशंका से,
थमाना चाहती हो पतवार
अपने डूबते-उतराते मन को,

तभी तो तुम
आस्था के दीप जला
इस व्रत के सहारे
करती हो आवाह्न
अपने इष्ट का,
जोड़ती हो दृश्य को अदृश्य से
पूरे समर्पण के साथ.

रखकर निर्जला व्रत,
कर अन्न-जल का त्याग
तोलती हो
उसमें अपना विश्वास,
सौंपकर उसके हाथों में
अपने उम्मीद की डोर
हो जाती हो निःशंक
किसी अनहोनी से.

जी लेना चाहती हो
रिश्तों से भरा जीवन ,
भयमुक्त,खुशियों भरा,
तभी तो आज भी रखती हो
निर्जला व्रत जितिया का.

(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)

Wednesday, June 8, 2011

"मेरी पहचान बन जाते"

तुम
एकबार फिर
लौटकर आओगे,
मेरे मन में ये उम्मीद
जगा जाते,
तुम्हारी याद में आंसू बहाकर
जिन्हें अबतक सींचती रही .
मेरे सपने का वो सूखता गुलाब
बचा जाओगे
बस इतना भरोसा दिला जाते.

अब
जब तुम्हारा आना
अनिश्चित
और
इस गुलाब का सूख जाना
निश्चित है
तो सोचती हूँ
उस दिन
रोते-रोते
अचानक
चुप क्यों हो गई थी मैं.

तब तो
मैं ही हुई न
इस गुलाब की हत्यारिन
क्योंकि उस दिन के बाद...
कभी रोई नहीं हूँ मैं.

काश !
एकबार तुम आ जाते,
मेरी आँखों को
थोड़ी नमी दे जाते
और
दे जाते
गुलाब को नया जीवन,
मेरी पहचान बन जाते.

Monday, May 30, 2011

बैल

बैल

प्रिय बैल, 
हुआ करते थे तुम कभी वृषभ, 
ढला करते थे 
राजाओं की तरह मोहरों और सिक्कों पर 
सभ्यताओं के समृद्धि चिह्न बनकर, 
हुआ करते थे धरती की शान, 
किसानों की जान, 
देश की पहचान। 

 तुम्हारे कन्धों पर रखकर हल 
धरती की कोख से उगाई जाती थी 
सोने जैसी लहलहाती फसल, 
जोतकर गाड़ियों में तुम्हें ढोया जाता था 
 घर-बाहर का जरूरी सामान।
 ले जाते थे तुम लोगों को रिश्तेदारी में, 
अपनों से अपनों को मिलाने का बन जाते थे आधार. 

बच्चों को मेला घुमाते थे, 
लगाकर खुशियों का अम्बार 
सजाते थे उनके सपनों का संसार, 
बिना हिचक उठाते थे जुआ 
गाड़ी का हो या हल का . 

तुम होते थे परिवार का अहम् हिस्सा, 
तुम्हें भी दिया जाता था अपनों सा प्यार, 
सहलाई जाती थी तुम्हारी पीठ. 
हर वर्ष होती थी गोवर्धन पूजा 
जहाँ दिया जाता था तुम्हें ईश्वर का दर्जा, 
पूजा जाता था तुम्हें, 
की जाती थी तेरी परिक्रमा , 
गले डाली जाती थी ढ़ेरों रंगबिरंगी मालाएं, 
बदली जाती थी तुम्हारी पुरानी रस्सियाँ।
  
नहीं लगा पाया कोई 
 तुम्हारे श्रम का मोल, 
 तुम्हारा समर्पण 
 आज भी है अनमोल. 

तब राजनीतिज्ञों को भी कहाँ था तुमसे परहेज, 
गर्व से बनाते थे तुम्हें अपना चुनाव-चिह्न, 
घुमाते थे तुम्हें 
शहर-शहर,गाँव-गाँव, 
 तुम्हारा नाम ले-लेकर  
लोगों को रिझाया करते थे. 

आज सबने तुमसे  अपना मुंह फेर लिया है,
देख रहे हैं  दक्षिण की ओर 
जब हाशिये खड़े तुम 
अपने अवसान का कर रहे हो इन्तजार।

ना जाने कितने टुकड़ों में बँटा है तेरा अस्तित्व, 
कितने अर्थों में बांटी गई है तेरी पहचान. 
आज तो मेहनतकश इंसानों के लिए होने लगा है तेरे नाम का उपयोग , 
कहा जाने लगा है उन्हें "बैल", "कोल्हू का बैल" और न जाने क्या-क्या?. 

आज कहाँ देख पा रहे लोग तुममें में अपना भविष्य,
कहाँ लगा पा रहे हैं 
तेरी जैव-क्षमता का अनुमान 
जिसपर आ टिकेगा आनेवाला कल।

तुम तो आज भी सिर झुकाए, 
सहकर सारे अपमान 
 कर रहे हो श्रम का सम्मान , 
अनवरत दिए जा रहे हो दधिची सा दान।

Thursday, May 26, 2011

"नई प्रथाएं"

आज अचानक 
 जब मेरे बेटे ने कहा 
 "पापा,एक बात कहना चाहता हूँ, 
मैं अपने पसंद की लड़की से शादी करना चाहता हूँ"- 
एकबारगी तो लगा 
जैसे आ गया हो भूचाल, 
खिसक गई हो पावों तले से जमीन,. 
पत्नी के चेहरे पर भी उड़ रही थी हवाई, 
एक बार को तो मैं भी आ गया था सकते में , 
विचारों की श्रंखला भी हो गई थी छिन्न-भिन्न .  
लेकिन जैसे-तैसे मैं वर्तमान से बाहर आया, 
अतीत का दरवाजा खटखटाया 
 तो यादों ने झट से खोल दिए द्वार. 
दिखलाया 25 साल पहले का मंजर, 
जब मेरी बातें बनी थी खंजर , 
मां के पैरों तले से ऐसे ही खिसकी थी जमीन. 
 देकर प्रथाओं का वास्ता, 
दिखाकर ज़माने का डर , 
खींचकर भविष्य की भयावह तस्वीर 
मुझे डराया था, 
सारा उंच-नीच समझाया था. 
खा बैठी थी कसम जीते जी ऐसा न होने देने की. 
 आज एकबार फिर मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा है. 
एकबार फिर एक मां पडी है उलझन में: 
समाज की उंगली पकड़कर चले या फिर थाम ले समय का हाथ 
जो कहीं-न-कहीं बंधें हैं कई-कई प्रथाओं से, 
या फिर बनने दे नई प्रथाएं....

Tuesday, May 24, 2011

परकटे की उडान कैसी?

तुम्हारे जाने के बाद
मेरा घर,मेरे सपने
वीरान हो गए
जहाँ तेरी बातें
गजल होती थी,
गीत होते थे
तेरे होठों से निकले बोल
क्योंकि तब
एक अलग दुनियां थी
हमारी.....

तुमसे मिलने की चाहत
तब भी थी,
अब भी है.
आनेवाले कल की कौन कहे?
कौन जाने?

अब तो नज़रों के सामने
दो जून की रोटी है
एकबार फिर
छोटे से घर का सपना है,
और एक दीया है
तेल को तरसता हुआ.

मखमली दूब
अब चुभती है,
तुम्हारे खयाल
गर्म सलाखों से
दिल में उतर जाते हैं.

समय के सलीब पर लटका मैं
नहीं देख सकता
पीछे मुड़कर.
जहाँ तुम आज भी खडी हो
मेरा अतीत बनकर.

लेकिन एक परकटे की उडान कैसी?
उसकी भावनाओं की पहचान कैसी?

Monday, May 16, 2011

रिश्तों का असर

आज
सत्तर से ऊपर के हैं बाबूजी,
पहले जैसा नहीं रहा है शरीर,
उन्हें होने लगी है जरूरत
सहारे की
चाहे लाठी की हो
या हमारे कन्धों की.

पर,
आज भी जब होती है
किसी अपने से मिलने जाने की बात
छोटे बच्चे की तरह
मचल उठते हैं बाबूजी,
व्यग्र हो उठता है उनका मन
क्योंकि रिश्तों में ही जिए,
रिश्तों के लिए ही जिए हैं
सब दिन बाबूजी.

लाठी के सहारे ही सही
आज भी रिश्तों के करीब तक
चलकर जाना चाहते है बाबूजी.
चढ़ लेना चाहते हैं ऊँची सीढियाँ
हमारे कन्धों का सहारा ले
बिना उफ़ किये ये सोचकर
"कोई अपना बैठा है
उन ऊँचाइयों पर".

आज भी याद आता है
बचपन का वो दिन
जब बाबूजी की ऊँगली पकड़,
उनके कंधे पर चढ़
जाया करते थे रिश्तेदारी में
पूरे उत्साह से,
हो जाते थे अभिभूत
उनके अपनेपन से ,
भर आती थी आँखें
पाकर ढेर सारा स्नेह,
ढेर सारा प्यार.

आज
वे हमारी उंगली पकड़,
कंधे का सहारा ले
जब थाम लेना चाहते हैं
रिश्तों की डोर,
तय कर लेना चाहते है
जीवन का सफ़र
तो समझ पा रहे है हम
जीवन में रिश्तों का महत्व,
जीवन पर उसका असर,
मंझधार में
पतवार के संग
कश्ती का सफ़र.

Sunday, May 15, 2011

तुमसे मिलकर....

तुमसे मिलकर जाना
क्या होती है
मिलन की चाह,
विरह की आग.

तुमसे मिलकर जाना
क्यों मीठी लगती है
सूरज की आंच
जब तुम होते हो साथ,
क्यों जलाती है
चाँद की शीतल चाँदनी,
क्यों लग जाती है
सावन में आग
मेरे तन-मन में
जब तुम नहीं होते हो पास..

तुमसे मिलकर जाना
क्यों उठाती है मन में हूक
कोयल की मीठी कूक.
क्यों होता है
पपीहे की आवाज में
इतना दर्द

तुमसे मिलकर जाना
क्यों छा जाती हैं
काली घटाएं
क्यों बरसने लगते हैं मेघ,
क्यों छलक पड़ती हैं आँखें
तेरे आने के बाद,
तेरे जाने के बाद.

तुमसे मिलकर जाना
क्यों नहीं सताता सावन,
समय नहीं दे पाता
कोई संताप.
क्यों लहराता है
तेरी आँखों में
समंदर प्यार का .

तुमसे मिलकर जाना
कैसा है ये मर्ज,
क्या है इसकी दवा ?

Tuesday, May 10, 2011

समय करता था इन्तजार......

जब भी तुम
होती थी मेरे पास,
दरवाजे के बाहर खड़ा रहकर
समय करता था इंतजार
तुम्हारे बाहर आने का.

तुम्हारे बाहर आते ही
चला जाता था वह
मुस्कुराता हुआ
तुम्हारे साथ.
मैं करता रहता था
बेसब्री से इन्तजार
तेरे लौट आने का,
समय के ठहर जाने का.

जो तुम होती थी साथ
समय समा जाता था तुझमें.
घंटा गुजर जाता था
पल बनकर ,
बस तुम-ही-तुम होती थी
आस-पास,
कोई और नहीं होता था.

आज
मेरे पास नहीं हो तुम
साथ हैं बस तुम्हारी यादें
जिन्हें बांहों में भरकर
छू लेता हूँ तुम्हें,
कर लेता हूँ
तुमसे दो-चार बातें.

आज भी
समझ से परे है
क्यों पाकर तेरा साथ
सदियाँ बीतती रही
पल बनकर,
तुम्हारे न होने पर
समय पाता रहा
अनंत विस्तार.

क्या यही था
मिलन और जुदाई का खेल
जो समय खेलता रहा हमारे साथ,
और हम खेलते रहे
समय के साथ
सालों-साल.

Saturday, April 30, 2011

सुमित्रानंदन पन्त

सुमित्रानंदन पंत

कोमल मन जब नहीं सह पाया
समय का सांसारिक आघात, 
अपनेपन का आभाव, 
जीवन का अकेलापन, 
 जब नहीं भाया उसे मानव-संसार 
जहाँ होता रहता था सदा 
 एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात, 
दर्द जब होने लगा असह्य,अनंत 
 इन सबसे पाने को पार 
चले गए तुम प्रकृति के द्वार. 
 जहाँ हरियाली ओढ़े जंगल था, 
हिमाच्छादित पर्वतराज, 
झरने झर-झर गाते रहते, 
गीत मिलन के सारी रात. 
फूलों में मकरंद भरा था, 
जीवन में आनंद भरा था, 
कांटे भी उगते थे वन में, 
पर कोमलता होती थी मन. 
जंगल का साम्यवादी संसार, 
पादप-पुष्प,झरने,नदी,पहाड़, 
सूरज,चाँद,सितारे बसे हुए थे उनके उर में. 
खग-वृन्द भी करते थे संवाद 
 तितलियाँ उड़-उड़ आती थी, 
बैठकर उड़ जाती थी मनचाहे फूलों पर, 
भंवरे भी मंडराते थे, 
लेकर पराग उड़ जाते थे. 
जंगल के सब जीव भले थे 
लगता था एक कोख पले थे. 
सबसे सबका सरोकार यहाँ था 
जीवन का आधार यहाँ था, 
जीवन मूल्य यहाँ पलता था 
जीवन-यज्ञ सदा चलता था. 
यहाँ मिली मातृत्व की छांव, 
शाश्वत स्नेह,
निश्छल प्यार, 
देवकी नहीं मिली तो क्या ? 
प्रकृति रही सदा उनके साथ यशोदा बनकर, 
बांहों के हिंडोले पर झुलाती रही उनका बालपन, 
सहलाती रही उनके कोमल गात, 
आहत मन को देती रही सहारा, 
बहलाती रही उनका बालमन 
दूर भगाती रही अकेलापन. 
प्रकृति को तन-मन कर अर्पण 
जिए सदा बन प्रकृति-दर्पण .

Tuesday, April 26, 2011

"खोखले हो रहे हैं शब्द"

खोखले हो रहे हैं शब्द,
इन्सान हो या शहर
सब खो रहे हैं अपना अर्थ,
अपना असर.
कोई नहीं दिखता है
अपने नाम सा,
कोई नहीं दिखता
किसी काम का.

शब्द हैं असहाय,
नहीं झांक पाते अपने भीतर
सूर और तुलसी बनकर,
नहीं दे पाते
प्रेम और भक्ति का सन्देश
राधा और मीरा बनकर.

शब्द
जो गढ़ा गया था कभी
जीवन के लिए,
प्यार के लिए,
नहीं रह गया है
भावों का,
विचारों का वाहक़ ,
नहीं रह गया है
अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतीक,
हो गया है पर्याय
झूठ का,दहशत का, फरेब का,
खड़ा है आज चौराहे पर
प्रतिष्ठा का पहरुआ बनकर.

कभी खींची गई होगी
शब्दों से मर्यादा की रेखाएं
सफल ,सुखद जीवन के लिए,
पर, कहाँ बढ़ पाई
समय के साथ इसकी लम्बाई,
बनकर रह गई
प्रथाओं की लक्षमण-रेखा
जिसने भी लांघी
जलकर खाक हो गया.

आज शब्द नहीं है राम,
शब्द हो गया है रावण
शब्द हो गया है कंस,
कहीं जुए में हारता युधिष्ठिर,
कुटिल मुस्कान लिए शकुनी,
कहीं चीरहरण में व्यस्त दुशासन,
कहीं द्रौपदी की असहायता पर
ठहाके लगता दुर्योधन.
आज शब्द हो गया है
स्वतंत्र,
स्वछन्द और निरंकुश.

आज तो बस
हर तरफ शब्द है,शरीर है,
आत्माहीन,उद्देश्यहीन ...........,
चारो तरफ कोलाहल है,
महाभारत सी भीड़ है.

शब्दों में
कहीं नजर नहीं आती
उम्मीद की लाली
उगते सूरज की,
नहीं दिखती है इसमें
चाँद की शीतल चांदनी ,
बस दिखता है
घना अँधेरा चारो ओर....

अब
एकबार फिर
नए सिरे से जुटाएँगे
ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे

Monday, April 18, 2011

"शब्दावली"

"मेली लानी बिटिया त्यों लोटी है,
त्या हुआ?भुखु लदी है?,
अभी तेले लिए दुधु लाती हूँ .
अब त्यों लोटी है,
मेली लानी बिटिया ?
अच्छा-अच्छा नीनी आई है,
तलो अभी तुलाती हूँ.
अच्छा तलो !
मैं तुम्हें लोली तुनाती हूँ
'चदा मामा दूल के .......' "

न जाने ऐसे ही और कितने बोल
बोलती रहती थी तुम,
कानों में मिसरी सी
घोलती रहती थी तुम,
मैं बस निहारती रहती थी
तुम्हारा चेहरा,
तुम्हारे फड़-फडाते होठ,
पढ़ती रहती थी
वहां तैरते भाव .

इन बोलों में
देखी है मैंने
छवि रचनाकार की
जिसने किया
मुझे साकार,
गढ़ लिए मेरे लिए
अनगिन शब्द,
उनमें भरे तोतले,
मीठे बोल,
दिया उन्हें नया अर्थ,
नया आयाम,
भरकर इसमें अपना स्नेह,
अपना प्यार
बना ली एक शब्दावली
अपने लिए,मेरे लिए.

सच कहूँ तो आज जब
बिटिया को लेकर गोद में
मैं स्वयं दुहरा रही हूँ
वही शब्द,
वही शब्दावली,
तो समझ पा रही हूँ
क्या होती है मां,
क्यों होती ????

मुझसे संवाद की चाहत में
रच लिया था तुमने
एक नया संसार
जहाँ बस मैं थी,तुम थी,
और था
तोतले बोलों में बसा
तुम्हारा सागर सा प्यार.

Tuesday, April 12, 2011

बचपन

बचपन नहीं पहेली
दर्पण होता है मन का.
उसकी हरकतें हँसाती है,
मन को गुदगुदाती है,
हर तनाव से दूर ले जाती है.

हाँ,पहेली सी लगती है
युवा मन को उसकी बातें.
क्योंकि नहीं होता कोई फर्क
उसकी कथनी और करनी में,
उसकी खिलखिलाहट में होती है
ख़ुशी की धूप ,
क्रंदन में दुःख की छाया.
छिपाए नहीं छिपते
उसके मन के कोमल भाव,
चाहे गुस्सा हो या प्यार
चेहरे पर साफ उभर आते हैं

बचपन नहीं होता जवानी सा
जहाँ होता है भेद-भाव,
आडम्बर का अम्बार .
वह तो उठता है,गिरता है,
फिर उठता है, आगे चल पड़ता है
क्योंकि प्रकृति होती है उसके साथ.

हमारा दर्पण है
धुंधला-धुंधला,उदास-उदास,
गमजदा चेहरे पर रहता है
मुखौटा मुस्कान का,
गुस्से में भी
चेहरेसे छलकता है प्यार
जिसे कहा जाता है
सभ्य समाज में "व्यवहार".
कर्म और सोच में सदा ही रहता है भेद,
लेकिन पाखंड की चाहरदीवारी होती है अभेद

Tuesday, April 5, 2011

"काश ! मैं बच्चा ही रहता"

काश!मैं बच्चा ही रहता
तो कितना अच्छा होता भगवान,
कम-से-कम
बना तो रहता
जिसे सब कहते हैं इन्सान,
होता सुख-दुःख के बेहद करीब
आंसू और किलकारी बनकर.

काश ! कोई कर पाता
मेरे बाल-मन से संवाद
तो समझ पाता
अपने-आपको ,
अपनी चाहत ,
अपनी परेशानी में
देख पाता
औरों की चाहत,
औरों की परेशानी.

पर
तुम कहाँ समझ पाओगे,
कहाँ देख पाओगे
मेरा पारदर्शी मन
अपने सपनों को
हमारे सपनों पर थोपकर,
कहाँ समझ पाओगे
सामाजिक सरोकारों से
दूर होते जाने का कारण .

मैं तो पूरी तरह निर्द्वंद्व,निष्कपट,
सखा-भाव का वाहक हूँ,
मां के आँचल में पलता
एक सुंदर सा स्वप्न हूँ.

कितने विवश थे
अपनी खुदी के सामने तुम ,
नहीं देख पाए
प्रकृति के संग
मेरा तारतम्य.
बस खेलते रहे चौपड़
जीवन की बिसात पर ,
चलते रहे अपनी चाल
कभी शकुनी
तो कभी युधिष्ठिर बनकर,
तैयार करते रहे
महाभारत की पृष्ठभूमि.

Wednesday, March 30, 2011

सागर से सागर तक

सागर से सागर तक


तेरी हुंकार भरती लहरें 
तट से टकरा कर लौटते हुए 
खुद में समा रही हैं 
क्षितिज के पार तक विस्तार पा रही हैं 
जीवन-सच बता रही है. 
सूरज की किरणे सागर जगा रही है, 
बादल बना रही हैं, 
धरती इशारे से 
उन्हें अपने घर बुला रही है, 
हरियाली का सबब बन जाने को उकसा रही है. 

बादल गरज रहे हैं, 
बिजली चमक रही है, 
बरसात आ रही है, 
रिमझिम के तराने, 
 जीवन-गीत गा रही है, 
फैला रही है उम्मीद का उजाला,
हर दिल में तमन्नाएं जगा रही है. 
 
बाधाओं को पार कर 
 जल की धाराएं नदियों का रूप ले 
अविरल बही जा रही है 
अपने ईष्ट की ओर बढ़ी जा रही हैं. 
एकबार फिर तेरी लहरों में समाकर 
एकाकार होने जा रही हैं 
 एकबार फिर लहरें हुंकार भरेंगी, 
तट से लौटकर अनंत में खो जायेंगी. 

चलता रहेगा सदा 
यह सर्जना चक्र मेरे बाहर, 
 मेरे भीतर 
 एक अंतहीन द्वंद्व बनकर.

Wednesday, March 23, 2011

दुपट्टे की लाली

तुम्हारे दुपट्टे की लाली मे
सुबह का सूर्य बिम्बित है
उजाले का प्रथम सन्देश लेकर .

तुम्हारे रक्तिम ओठों का
मूक आमंत्रण
मेरे जीवन का सार ,
प्रगति का आधार है.

सूरज सा लगता है
तुम्हारा साथ,
निराशा में भी करती है
आशा का संचार.

तुम्हारे होने मात्र से ही
रौशन है
हमारा दिन,
हमारी रात,
तुममें ही समाया है
हमारा पूरा संसार.

तुम हो
तो दिन हमारा है,
रात हमारी है,
आसमान में टंगा सूरज,
चाँद हमारा है,
सारी दिशाएं,
हमारी है .

जरूरत है तो बस
उन्हें उगते-डूबते,
डूबते-उगते
देखते रहने की,
समझते रहने का
उनसे आता पैगाम
तुम्हारे सहारे .

Thursday, March 3, 2011

रिश्तों का मर्म समझना है तो ..........

रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.
फैलाना हो उजाला
अँधेरे के उसपार
तो रवि हो जाओ.
किसी बेचैन मन को
देना हो करार
तो शीतल शशि हो जाओ,
गर जानना चाहो
जल की जात
तो जलपरी हो जाओ.
रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.

लाली देखनी हो
तो करो
उगते सूरज की बात,
गर देखना हो
हरियाली का असर
तो रेगिस्तान में
एक पौधा लगा आओ.
रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.

समझाना चाहो
गति जीवन की
तो नदी हो जाओ,
समाना चाहो
सबको अपने भीतर
तो समंदर से अनंत हो जाओ,
रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.

बसना है
किसी के दिल में
तो कोई दर्द-भरा गीत
बन जाओ.
रहना चाहो
किसी की आँखों में
तो एक सुदर सी छवि
बन जाओ.
रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.

जो चाहो लेना
छांव का आनंद
तो छिप जाओ
मां के आँचल में,
जेठ की दोपहरी में
घने बरगद के तले
आ जाओ .
रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.

गर लेना है
मौसम का मजा
तो मत घबराओ
कड़कती बिजलियों से,
गरजते मेघों से
सावन की झड़ी में
खो जाओ.
रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.

महकना है तो महको
औरों केलिये
फूल बनकर,
जीना है तो जियो
जीवन-भर
बाग का माली बनकर
जीवन को दिशा,
एक नया अर्थ दे जाओ
रिश्तों का मर्म समझना है
तो कवि हो जाओ.

Monday, February 21, 2011

आने दो वसंत

आज
हर तरफ सूखा है,
भीतर-बाहर
सब कुछ रुखा-रुखा है
बादल भी हो रहे हैं सफ़ेद.

इंसानों की कौन कहे
बिगड़ी हुई है
प्रकृति की भी चाल
पेड़ों ने भी नहीं ओढ़ी है
अभीतक
हरे पत्तों की शाल,
उतरा हुआ है
खेतों का भी रंग,
कुछ ठीक सा नहीं लगता,
समय का रंग-ढंग.

एकबार फिर
आने दो वसंत
चारो ओर
चहकने दो चिड़ियों को
डाली-डाली,
नदियों को
कल-कल बह जाने दो,
झरनों को
झर-झर झर जाने दो,
खेतों में खिल जाने दो
सरसों के पीले फूल.

चुन लेने दो
तितलियों को
मनचाहे फूल,
भवरों को
झूम लेने दो
पीकर मकरंद,
बिछ जाने दो
हरियाली की चादर
चारो ओर
बह लेने दो
एकबार फिर
मंद-मंद
सिहरन भरा समीर,
घुल जाने
दो हवाओं में भंग,
छा जाने दो
चतुर्दिक उमंग.

शेमल के फूलों से
चुरा कर रंग लाल
बना लो गुलाल,
खेलो होली
एक-दूजे के संग.
रंग दो
मन का कोना-कोना,
अंग-अंग.

दो रिश्तों को
नया जीवन,
वसंत को आने दो
बार-बार,बार-बार,
लगातार,
सबकुछ
वासंती हो जाने दो.

Tuesday, February 1, 2011

एक अनुभव

एकबार
जब तुम बहुत बीमार थे,
हम बिलकुल लाचार थे,
काटे नहीं कटता था
समय,
रातें लगती थी
सागर से गहरी,
दिन लगते थे
पहाड़ से.

तब हमने
हजार-हजार पलों में
बाँट लिए थे
अपने दिन,अपनी रातें,
हर पल में
निराशा एक वृत्त था,
आशा उसका केंद्र .

तुम्हारे लिए
क्रंदन और किलकारी
एक-दूसरे का
रहा होगा पर्याय,
रहे होंगे
जिंदगी और मौत
एक सिक्के को दो पहलू .

हमारे लिए तो यह
पल-पल जी गई मौत थी
आशंका और अवसाद भरी,
धडकनों की रफ़्तार में
हर कतरा खून था
सिहरा हुआ,
सिमटा हुआ.

पाकर तुम्हें
खोना नहीं चाहते थे हम,
असहाय से कभी तुम्हें ,
कभी आसमान की ओर.....
देखते थे हम.

हमारे पास
नदी के बीच डगमगाती
उम्मीद की नाव तो थी,
भरोसे की पतवार नहीं थी.

हमारी हर आस टिकी थी
उन अनजान थपेड़ों पर
जो मंझधार से बढ़ रही थी
किनारे की ओर.............

(हर किसी के जीवन में कभी न कभी ऐसा पल आता है)

Sunday, January 16, 2011

मैं कब क्या होता हूँ ?

मैं
कभी बुद्ध,
कभी ईसा ,
कभी गाँधी,
होता हूँ,
तो कभी
महज एक दंगाई,
एक आतंकवादी.

कभी
अपने चारो ओर
खड़ी करता हूँ
नफरत की दीवार,
कभी करता हूँ
शांति-पथ की तलाश.

मैं
एक ही पल में
कभी हिन्दू होता हूँ ,
कभी सिख,कभी ईसाई,
कभी जीता हूँ
मुसलमां बनकर.

एक-दूसरे को मारते हुए
हैवान बनकर,
एक-दूसरे को बचाते हुए
इन्सान बनकर.

मैं
अबतक
नहीं समझ पाया
कभी मानव,महा-मानव,
कभी दानव,महा-दानव
क्यों हो जाता हूँ,
कैसे हो जाता हूँ ?

Thursday, January 13, 2011

दूसरा किनारा

एक किनारा छोड़
दूसरे किनारे
आ गया हूँ मैं,
तुझे अपनाकर
किसी को पीछे
छोड़ आया हूँ मैं.

जुड़ गया हूँ
परम्पराओं से,
रश्मों-रिवाजों से
तुम्हें पाकर,

पर,आज भी
पूरी तरह
अतीत से नाता
नहीं तोड़ पाया हूँ मैं.

अब तो बस
तुम हो,मैं हूँ
हम बनकर
और साथ हैं
कुछ भूली-बिसरी बातें
परछाई बनकर .

नहीं कह सकता
क्यों चाहने लगा हूँ
तुम्हें इतना,
समझने लगा हूँ
हिस्सा अपना
धीरे-धीरे,

फ़िरभी
क्यों लगता है
कभी-कभी
मन का कोई कोना
सूना-सूना
उसके बिना.

जब-जब
देखता हूँ
पीछे मुड़कर ,
लगता है
पाकर भी
बहुत कुछ खोया है
मैंने अपना.

पहला सपना,
पहला प्यार
जो आज भी
यादों की लहर बनकर
लौटता है बार-बार,
तुम तक आकर
लौट जाता है,
मेरे भीतर
अजब सी
एक टीस छोड़कर.

सच कहूँ तो अब
मुश्किल लगता है
पल-भर भी जीना
तेरे बिना .

तुम साथ रहो,
मेरे पास रहो
अपना बनकर,
उसे रहने दो
दिल के किसी कोने में
मेरा अतीत,
मेरा सपना बनकर
और
देदो मुझे
मेरे द्वंद्व से मुक्ति.

Monday, January 10, 2011

ये तमन्ना है मेरी

सड़क तुम तक आये ,
तुम उसपर
अपने नाजुक पाँव धरो,
और वह तुम्हें
तुम्हारी मनचाही जगह
ले जाए
ये तमन्ना है मेरी .

पुरवैया बयार बहे,
तुम्हारे बालों को
हौले-हौले सहलाये ,
तुम्हें गुगुदाकर
चला जाए ,
ये तमन्ना है मेरी.

झूमकर आये
सावन की घटाएं
रिमझिम फुहार बरसाएं,
तेरे पैरों के नीचे की दूब
हरी मखमली हो जाये
ये तमन्ना है मेरी.

गाढ़ा नीला हो जाए
आसमान,
तेरे चेहरे पर सजे
उगते सूरज की लाली,
तू झिलमिलाए सदा
तारा बनकर
मेरे मन आँगन में
ये तमन्ना है मेरी.

तू जहाँ भी रहे
खुश रहे,
खुशहाली तेरे आस-पास
अपना घर बसाये,
तेरे चाँद से चेहरे पर
कभी कोई शिकन
न आये
ये तमन्ना है मेरी .

पापा नहीं हैं
कोई बात नहीं,
तेरे लिए
मेरे प्यार की सच्चाई पर
कभी कोई आंच न आये
ये तमन्ना है मेरी .

तू जैसी थी
वैसी ही बसी रहना
मेरे घायल मन में,
समय इसमें कोई बदलाव
न ला पाए
ये तमन्ना है मेरी.

मेरी मुहबोली बहन मीरा की प्यारी बिटिया की स्मृति में.

Saturday, January 8, 2011

ठहरा हुआ बचपन

गाँव में
आज भी
निकलता है चाँद,
जगमगाती है
अमावस की रात
झिलमिलाते तारों से,
भर जाता है आँगन
चमकते जुगनुओं से.
पूरब की ओट से
झांकता है
शर्मीला सूरज
भोर में.

इन सबके बीच ही
कहीं ठहरा हुआ है
हमारा दौड़ लगाता
बचपन.

गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
मेला जाने की रट लगाता
गुब्बारा लेने के लिए
मचलता बचपन. .

दादाजी की उंगली थामे
स्कूल जाता,
कच्चे फर्श पर
चटाई बिछाकर
पढाई करता,
मास्टर जी की मार खाता,
छड़ी छुपाता बचपन.

मेंड़ों पर दौड़ लगाता ,
खेतों की हरियाली में
घुलमिल जाता,
औरों के खेतों से
गन्ने और मटर
चुराता बचपन.

गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
तालाब के पानी पर
पत्थर तिराता बचपन.

सावन की झपसी में
सिर उठाकर
बूंदों को चूमता,
घर के बरामदे बैठ
आँगन से निकलती धार में
कागज की नाव
बहाता बचपन,

डूबते सूरज के साये में
नदी की गीली रेत पर
घरौंदा बनाता,बिगाड़ता,
उन्हें बिगाड़कर
जोर-जोर से
खिलखिलाता बचपन.

ये बेफिक्र बचपन ही तो था
जो किसी की गोद में,
किसी के कंधे पर
चढ़ा होता था,
खौफ से बेख़ौफ़ होने के लिए
मां के आँचल में छिपा होता था .

ये बचपन ही तो है
जो आज भी हमारे मन को
बार-बार गुदगुदाता है ,
हमें यादों के पालने में झुलाता है.

बेशक !
आज हम बड़े हो गए हैं,
अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं.
पर,आज भी
ठहरा हुआ है बचपन
हमारी यादों में
पूरी शिद्दत से.

Sunday, January 2, 2011

इन खतों में क्या है?

ये ख़त है
जो कभी
तुमनें लिखे थे
मुझको.

उसका अक्षर-अक्षर
तेरा अक्श बन
उभर आता है
आज भी
मेरे जेहन में
चाहे-अनचाहे.

क्योंकि
इन खतों में हैं
कुछ हँसते,
खिल-खिलाते पल,
कुछ सिसकते,
सहलाते पल.
बांटा था जिन्हें
हमने
आपस में
मिल-बैठकर.

इन पलों में
आज भी
सिमटी है
मिलने की चाह,
न मिल पाने का गम,
दूर रहकर भी
पास होने का भ्रम
जो पलता रहा है,
बढ़ता रहा है
सदा
साथ-साथ

तेज होती
धडकनों में
पलती है
प्यार की तपिश
जो देती है
झुलसने का
मीठा अहसास.

ये सब सिमटे हैं
शब्दों के घरौंदे में.
घरौंदा
जो घर हो गया है
बीती बातों का,
आशाओं का,
अरमानों का,
धड़कनों में छिपी
विवशता का,
बैचैनी का
टूटते-बनते रिश्तों का.

मेरे-तुम्हारे होने का
एक-दूसरे से अलग
एक-दूसरे के साथ
जीवनपर्यंत
एक सिलसिला बनकर.