Monday, May 30, 2011

बैल

बैल

प्रिय बैल, 
हुआ करते थे तुम कभी वृषभ, 
ढला करते थे 
राजाओं की तरह मोहरों और सिक्कों पर 
सभ्यताओं के समृद्धि चिह्न बनकर, 
हुआ करते थे धरती की शान, 
किसानों की जान, 
देश की पहचान। 

 तुम्हारे कन्धों पर रखकर हल 
धरती की कोख से उगाई जाती थी 
सोने जैसी लहलहाती फसल, 
जोतकर गाड़ियों में तुम्हें ढोया जाता था 
 घर-बाहर का जरूरी सामान।
 ले जाते थे तुम लोगों को रिश्तेदारी में, 
अपनों से अपनों को मिलाने का बन जाते थे आधार. 

बच्चों को मेला घुमाते थे, 
लगाकर खुशियों का अम्बार 
सजाते थे उनके सपनों का संसार, 
बिना हिचक उठाते थे जुआ 
गाड़ी का हो या हल का . 

तुम होते थे परिवार का अहम् हिस्सा, 
तुम्हें भी दिया जाता था अपनों सा प्यार, 
सहलाई जाती थी तुम्हारी पीठ. 
हर वर्ष होती थी गोवर्धन पूजा 
जहाँ दिया जाता था तुम्हें ईश्वर का दर्जा, 
पूजा जाता था तुम्हें, 
की जाती थी तेरी परिक्रमा , 
गले डाली जाती थी ढ़ेरों रंगबिरंगी मालाएं, 
बदली जाती थी तुम्हारी पुरानी रस्सियाँ।
  
नहीं लगा पाया कोई 
 तुम्हारे श्रम का मोल, 
 तुम्हारा समर्पण 
 आज भी है अनमोल. 

तब राजनीतिज्ञों को भी कहाँ था तुमसे परहेज, 
गर्व से बनाते थे तुम्हें अपना चुनाव-चिह्न, 
घुमाते थे तुम्हें 
शहर-शहर,गाँव-गाँव, 
 तुम्हारा नाम ले-लेकर  
लोगों को रिझाया करते थे. 

आज सबने तुमसे  अपना मुंह फेर लिया है,
देख रहे हैं  दक्षिण की ओर 
जब हाशिये खड़े तुम 
अपने अवसान का कर रहे हो इन्तजार।

ना जाने कितने टुकड़ों में बँटा है तेरा अस्तित्व, 
कितने अर्थों में बांटी गई है तेरी पहचान. 
आज तो मेहनतकश इंसानों के लिए होने लगा है तेरे नाम का उपयोग , 
कहा जाने लगा है उन्हें "बैल", "कोल्हू का बैल" और न जाने क्या-क्या?. 

आज कहाँ देख पा रहे लोग तुममें में अपना भविष्य,
कहाँ लगा पा रहे हैं 
तेरी जैव-क्षमता का अनुमान 
जिसपर आ टिकेगा आनेवाला कल।

तुम तो आज भी सिर झुकाए, 
सहकर सारे अपमान 
 कर रहे हो श्रम का सम्मान , 
अनवरत दिए जा रहे हो दधिची सा दान।

Thursday, May 26, 2011

"नई प्रथाएं"

आज अचानक 
 जब मेरे बेटे ने कहा 
 "पापा,एक बात कहना चाहता हूँ, 
मैं अपने पसंद की लड़की से शादी करना चाहता हूँ"- 
एकबारगी तो लगा 
जैसे आ गया हो भूचाल, 
खिसक गई हो पावों तले से जमीन,. 
पत्नी के चेहरे पर भी उड़ रही थी हवाई, 
एक बार को तो मैं भी आ गया था सकते में , 
विचारों की श्रंखला भी हो गई थी छिन्न-भिन्न .  
लेकिन जैसे-तैसे मैं वर्तमान से बाहर आया, 
अतीत का दरवाजा खटखटाया 
 तो यादों ने झट से खोल दिए द्वार. 
दिखलाया 25 साल पहले का मंजर, 
जब मेरी बातें बनी थी खंजर , 
मां के पैरों तले से ऐसे ही खिसकी थी जमीन. 
 देकर प्रथाओं का वास्ता, 
दिखाकर ज़माने का डर , 
खींचकर भविष्य की भयावह तस्वीर 
मुझे डराया था, 
सारा उंच-नीच समझाया था. 
खा बैठी थी कसम जीते जी ऐसा न होने देने की. 
 आज एकबार फिर मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा है. 
एकबार फिर एक मां पडी है उलझन में: 
समाज की उंगली पकड़कर चले या फिर थाम ले समय का हाथ 
जो कहीं-न-कहीं बंधें हैं कई-कई प्रथाओं से, 
या फिर बनने दे नई प्रथाएं....

Tuesday, May 24, 2011

परकटे की उडान कैसी?

तुम्हारे जाने के बाद
मेरा घर,मेरे सपने
वीरान हो गए
जहाँ तेरी बातें
गजल होती थी,
गीत होते थे
तेरे होठों से निकले बोल
क्योंकि तब
एक अलग दुनियां थी
हमारी.....

तुमसे मिलने की चाहत
तब भी थी,
अब भी है.
आनेवाले कल की कौन कहे?
कौन जाने?

अब तो नज़रों के सामने
दो जून की रोटी है
एकबार फिर
छोटे से घर का सपना है,
और एक दीया है
तेल को तरसता हुआ.

मखमली दूब
अब चुभती है,
तुम्हारे खयाल
गर्म सलाखों से
दिल में उतर जाते हैं.

समय के सलीब पर लटका मैं
नहीं देख सकता
पीछे मुड़कर.
जहाँ तुम आज भी खडी हो
मेरा अतीत बनकर.

लेकिन एक परकटे की उडान कैसी?
उसकी भावनाओं की पहचान कैसी?

Monday, May 16, 2011

रिश्तों का असर

आज
सत्तर से ऊपर के हैं बाबूजी,
पहले जैसा नहीं रहा है शरीर,
उन्हें होने लगी है जरूरत
सहारे की
चाहे लाठी की हो
या हमारे कन्धों की.

पर,
आज भी जब होती है
किसी अपने से मिलने जाने की बात
छोटे बच्चे की तरह
मचल उठते हैं बाबूजी,
व्यग्र हो उठता है उनका मन
क्योंकि रिश्तों में ही जिए,
रिश्तों के लिए ही जिए हैं
सब दिन बाबूजी.

लाठी के सहारे ही सही
आज भी रिश्तों के करीब तक
चलकर जाना चाहते है बाबूजी.
चढ़ लेना चाहते हैं ऊँची सीढियाँ
हमारे कन्धों का सहारा ले
बिना उफ़ किये ये सोचकर
"कोई अपना बैठा है
उन ऊँचाइयों पर".

आज भी याद आता है
बचपन का वो दिन
जब बाबूजी की ऊँगली पकड़,
उनके कंधे पर चढ़
जाया करते थे रिश्तेदारी में
पूरे उत्साह से,
हो जाते थे अभिभूत
उनके अपनेपन से ,
भर आती थी आँखें
पाकर ढेर सारा स्नेह,
ढेर सारा प्यार.

आज
वे हमारी उंगली पकड़,
कंधे का सहारा ले
जब थाम लेना चाहते हैं
रिश्तों की डोर,
तय कर लेना चाहते है
जीवन का सफ़र
तो समझ पा रहे है हम
जीवन में रिश्तों का महत्व,
जीवन पर उसका असर,
मंझधार में
पतवार के संग
कश्ती का सफ़र.

Sunday, May 15, 2011

तुमसे मिलकर....

तुमसे मिलकर जाना
क्या होती है
मिलन की चाह,
विरह की आग.

तुमसे मिलकर जाना
क्यों मीठी लगती है
सूरज की आंच
जब तुम होते हो साथ,
क्यों जलाती है
चाँद की शीतल चाँदनी,
क्यों लग जाती है
सावन में आग
मेरे तन-मन में
जब तुम नहीं होते हो पास..

तुमसे मिलकर जाना
क्यों उठाती है मन में हूक
कोयल की मीठी कूक.
क्यों होता है
पपीहे की आवाज में
इतना दर्द

तुमसे मिलकर जाना
क्यों छा जाती हैं
काली घटाएं
क्यों बरसने लगते हैं मेघ,
क्यों छलक पड़ती हैं आँखें
तेरे आने के बाद,
तेरे जाने के बाद.

तुमसे मिलकर जाना
क्यों नहीं सताता सावन,
समय नहीं दे पाता
कोई संताप.
क्यों लहराता है
तेरी आँखों में
समंदर प्यार का .

तुमसे मिलकर जाना
कैसा है ये मर्ज,
क्या है इसकी दवा ?

Tuesday, May 10, 2011

समय करता था इन्तजार......

जब भी तुम
होती थी मेरे पास,
दरवाजे के बाहर खड़ा रहकर
समय करता था इंतजार
तुम्हारे बाहर आने का.

तुम्हारे बाहर आते ही
चला जाता था वह
मुस्कुराता हुआ
तुम्हारे साथ.
मैं करता रहता था
बेसब्री से इन्तजार
तेरे लौट आने का,
समय के ठहर जाने का.

जो तुम होती थी साथ
समय समा जाता था तुझमें.
घंटा गुजर जाता था
पल बनकर ,
बस तुम-ही-तुम होती थी
आस-पास,
कोई और नहीं होता था.

आज
मेरे पास नहीं हो तुम
साथ हैं बस तुम्हारी यादें
जिन्हें बांहों में भरकर
छू लेता हूँ तुम्हें,
कर लेता हूँ
तुमसे दो-चार बातें.

आज भी
समझ से परे है
क्यों पाकर तेरा साथ
सदियाँ बीतती रही
पल बनकर,
तुम्हारे न होने पर
समय पाता रहा
अनंत विस्तार.

क्या यही था
मिलन और जुदाई का खेल
जो समय खेलता रहा हमारे साथ,
और हम खेलते रहे
समय के साथ
सालों-साल.