Monday, August 30, 2010

गृहणी हूँ मैं

गृहणी हूँ मैं

न जाने कितने संबंधों में

बंधी हूँ मैं ,

कभी पत्नी,कभी माता

कभी कुछ और हूँ मैं

सृजन का सार हूँ मैं,

सभी संबंधों का आधार

पति और बच्चों से बना

एक छोटा सा

सुंदर संसार हूँ मैं ,

मै देखती हूँ घर और बाहर ,

सास-ससुर को रखती हूँ सादर ।

सबकी अपेक्षाओं ,

उम्मीदों से ऐसी बनी हूँ मैं

गर्व है मुझे

अपने गृहिणी होने पर

क्योंकि थोड़े में पा लेती हूँ

संसार का सारा सुख

पूरा जीवन जी लेती हूँ मैं

बन जाती हूँ

गम और ख़ुशी की पहचान।

सुबह-सुबह

बिटिया को करती हूँ तैयार,

छोड़कर आती हूँ स्कूल वैन में

पति को जाता देखती हूँ दफ्तर

दरवाजे पर खड़े-खड़े तबतक

जबतक की वो

आँखों से ओझल नहीं हो जाते ।

कुछ डर,कुछ संशय लिए

बना रहता है मन में एक उद्वेग

उनके लौटकर घर आने तक ।

उन सबके जाते ही

घर के साथ-साथ

मन का खालीपन भी

काटने को दौड़ता है,

ह्रदय में मची रहती है हल-चल

विचारों की ,

नजरें बिछी होती हैं सड़क पर

उन सबके लौट आने तक।

इस खालीपन से बचने के लिए

करने लगती हूँ

घर की साफ-सफाई,

कपड़े धोती,सुखाती हूँ,

किचेन संवारती हूँ,

सबकुछ करती हूँ

पर अनमने ढंग से.

उम्मीदों की डोली में सवार

करती हूँ उनके आने का इन्तजार ,

उन्हें देखते ही मन में

बरस जाती है सावन की घटा ,

निकल आता है पूरा चाँद,

मिट जाती हैं माथे की लकीरें ,

मैं सुंदर हो जाती हूँ ,

क्योंकि मैं मां हो जाती हूँ।

Friday, August 27, 2010

एक सुझाव

भाई साहब आइए
कुछ अच्छा कर जाइए
अपने बेटे को
किसी बेटी के नाम कर
अपना,अपने पुरखों का नाम
ऊंचा कर जाइए,
या फिर,
मुक्त बाजार में
खुला है
नीलामी का विकल्प ,
बेटे की कीमत लगाइए,
बोली लगवाइए,
मनचाहा पाइए ,
बेटे को बेचकर
ख़ुशी-ख़ुशी घर जाइए ।


Wednesday, August 25, 2010

बंधन जो बांध गया सदा के लिए.

बचपन में रहता था
इसदिन का बेकरारी से इन्तजार ,
सपनों में भी दिखती थी
रंग-बिरंगी राखियाँ
कलाइयों में सजी हुई
चेहरे पर होती थी
चटक मुस्कान ।

बहनों का थाल में ,
रोली,राखी सजाना
दीप जलाना,
राखी से मिठाई तक होती थी
उसकी मिठास।
इस सबके पीछे होती थी मां,
होते थे पिताजी ,
हमारा तो होता था उत्साह
राखी बंधवाने का,
मिठाई खाने का
सारे गिले-शिकवे भूलकर
रक्षाबंधन मनाने का।

आज भी जब आता है
ये त्यौहार
ले जाता है मुझे
वर्तमान के पार
मेरे अतीत में
जहाँ गुडिया जैसी
मेरी बहना
बांध रही है
राखी मेरे हाथों में
खिलखिलाती हुई
और मैं
बंधता जा रहा हूँ
उसके प्यार में वैसे ही
जैसे यशोदा के हाथों बंधे थे
माखनचोर ।

Tuesday, August 24, 2010

अनदिखी डोर



राखी



कहते हैं जिसे बंधन



एक डोर है



अनदिखी,पतली सी ,



रिश्तों की



एक-दूसरे को जोड़ती हुई



कल भी इंतजार था इसका



बेसब्री से ,



आज भी है



उतनी ही शिद्दत से।



कह नहीं सकता



कितनी लम्बी है ये डोर



जो कुछ पल बंधकर



बनाए रखती है अनंत तक



भाई-बहन निश्छल प्यार





Thursday, August 19, 2010

दूसरी सड़क के लोग

दूसरी सड़क के लोग हो
तुम लोग,
दूसरा आसमान है तुम्हारा,
गाढ़ा सिन्दूरी लाल,
दूसरी हवा है
दहशत भरी,
एकदम सर्द
तीखी-सी।

सूरज स्याह है ,
ए.के . 47 की तड- तड़ाहट के बाद
चूड़ियों के टूटने की आवाजके बीच से
उभरती है सिसकियाँ,
साथ ही उभरता है
मासूम आँखों में सिमटा
एक उलझन-भरा सवाल
" पापा बोलते क्यों नहीं,
क्या हो गया उनको ?"
कोई जवाब नहीं।
उसके ग़मगीन चेहरे पर
अभी भी ठहरे हुए हैं
कई उनुत्तरित सवाल,
ख़ामोशी में तैरते हुए ।

नेता,पुलिस,पडोसी,
सांत्वना के दौर,
लोगों का आना-जाना,
सर झुकाना और चले जाना।
लेकिन तुम्हे क्या?
तुम तो जेठ के सूरज हो
हवाओं को झुलसाते हुए,
शाम का क़त्ल कर
उसे खून से नहलाते हुए,
छोड़ जाते हो
अंतहीन रातें
रोने के लिए।

Tuesday, August 17, 2010

सावन के महीने में

सावन के महीने में ,
कड़कती बिजलियों के बीच
घनघोर बरसते पानी में
अकेला खड़ा मैं
तकता रहा आसमान,
निहारता रहा
सफ़ेद-काले भेड़ों से दौड़ते- भागते
बादलों के झुण्ड ।

मेरी इच्छा थी
यूँ ही मुसलाधार बरसते रहे
घने-काले घुंघराले बालों वाले मेघ,
और पड़ती रहे
उसकी शीतल फुहार
मेरे तन-मन पर
ताकि मुक्त हो जाऊं मैं
अतीत की सृजनहीनता से
बो सकूँ सृजन के नए बीज
नई सुबह में उग आने के लिए।

धो डालूं
अपना गुस्सा ,अपना कलुष ,
सावन की फुहार
बन जाये मेरा प्यार ,
बदरी बन सबको
तर कर जाऊं ,
बंजर भूमि में
स्नेह के बीज उगाऊं ।

हर युग, हर वर्ष
इस मौसम का रहा मुझे
बेसब्री से इंतजार ,
इसके साथ आये परिवर्तन का,
नवजीवन का इंतजार
जो पीढियां बनाती रहीं,
श्रृष्टिचक्र बनकर बार-बार
अपनी अंतहीन परिधि में
सबको घुमाती रही ,
देती रही वरदान
जीवन बनकर।

करूँगा अगली सुबह का इंतजार
जब फूलों की पंखुड़ियों पर,
दूब की नुकीली नोकों पर
टिकी होंगी मोतिया बूंदें
ओस की,
और हवा
अपने हिंडोले पर
हिला रही होगी
समस्त पादप-पुंजों को ।

दिखेगा नया उत्साह,
नया जीवन ,
हरियाली की शुरुआत ,
लौट जाऊंगा मैं
अपने बचपन में,
खुले आसमान के नीचे ,
बरसात में नंगे बदन
भींगता-भागता सा।

Tuesday, August 10, 2010

परायेपन की "परिधि"

मैं
परायेपन की सोच से पैदा हुई ,
परायेपन के सच के साथ,
परायेपन के माहौल में ही पली-बढ़ी ,
परायापन हावी रहा ताउम्र ,
मुझ पर
समाज बनकर ।

सबको मिला दूध,
मुझे दूध का धोवन ,
यह सच है,
एक कड़वा सच !
आखिर बेटी जो ठहरी मैं
बेटी तो 'परायाधन' होती है।

परायेपन के अपनेपन में
कब मायका छूटा ,
माँ-बापू के साथ जीने का
भरम टूटा ,
कब अपने गुड्डे-गुड़िया को छोड़
बनते-बिखरते सपनों के संग
ससुराल गई
पता ही नहीं चला!

परायेपन की कोख से ही
फिर बचपन फूटा ,
मेरे भीतर बहुत कुछ बिखरा,
बहुत कुछ टूटा ,
एक बार फिर
मेरा बचपन,
मेरी गोद में ठहर गया
मेरी बिटिया बनकर ।

मैं उसकी आँखों में ढूंढ़ती रही
अपने बिखरे सपने,,
अपना किलकता बचपन
अपना अतीत ,
पर,वहां.............
सिवाय खालीपन के
कुछ नहीं था ,
कुछ भी तो नहीं,
थे तो बस
अपनों के बीच
परायों की तरह
जीते हुए हम ।

लेकिन मैंने सोच लिया है
अपनी बिटिया को
परियों की कहानी दूँगी,
दूँगी उसके सपनों को पंख
उसके बचपन को दूंगी
जवानी ,
उसकी आशाओं को दूंगी
जमीन ।

अब मैं नहीं जीऊँगी
पराएपन के अहसास तले,
उनको भी समझाउंगी
चाहे कुछ भी करना पड़े
अपनी बेटी को 'खूब पढ़ाउंगी' ,
खड़ा करूंगी उसे अपने पैरों पर
दूँगी उसे एक पहचान ।

परायेपन के पालने में
अब नहीं झुलाउंगी उसे ,
पालूँगी अपनेपन के साथ ,
ले आउंगी उसे
परायेपन की "परिधि" से बाहर ।

Monday, August 9, 2010

बुंदेलखंड का सच

बुंदेलखंड का सच
भूख का,तिरस्कार का ,
प्रकृति की मार का,
अपनों की दुत्कार का सच है.

जहाँ सपनों की फसल
बोने की चाह में
न जाने कितने ही सपने
तस्वीर बनकर रह गए .

कुंए के पानी के साथ ही
सूख गए हैं आँखों के आंसू ,
पथराई आँखे
आज भी करती हैं
बुझे चूल्हे के पास बैठ
अपनों का इंतजार
दरार पड़े खेतों ,
झुर्रीदार चेहरे के साथ ।

पूरब लगने लगा है
पश्चिम सा ,
सूरज हरवक्त दिखता है
क्षितिज पर
डूबता सा,
सर्द चांदनी रात देती है
आंसुओं-भरी सुबह.

खेत ख़ुशी नहीं देते आज
शरीर की तरह
सूखी है धरती
जो न हरियाली का सबब है,
न उमंगों का।

मन में उम्मीद का सूरज,
होठों पर सुबह लाली लिए
पालकी से उतरी थी,कम्मो,
अपने पिया की दहलीज पर.
वह ब्याही गयी थी
लड़के के संग-संग,
उसके खेतों के साथ।

सोने जैसी फसल की चाहत ,
"लहलहाती फसल" की सच्चाई
खा गयी उसका पति,
उसका खेत ,
उसके सपने।

मिला क्या दहकती आग
जो चूल्हा नहीं जला सकी ,
बस लगाई पेट में आग,
जला गई दिल को,
कर गई सपनों को खाक।

Thursday, August 5, 2010

काश!टिफिन का डब्बा ही बन पाया होता.

देखा था बहुत कुछ करने का सपना,
पर समय का लगा ऐसा फेर,
बनकर रह गया विचारों का ढेर,
टिफिन का डब्बा भी नहीं बन पाया.

किस्मत तो देखिये टिफिन के डब्बे की,
रोज-रोज भरा जाता है,
अपने भाग्य पर इतराता है,
ख़ुशी-ख़ुशी होता है
कई-कई कन्धों पर सवार,
कई-कई बार,
करता है गंतव्य की सवारी,
बदल-बदलकर गाड़ियाँ
बार-बार,लगातार.

पहुँच कर अपनी ठावं
लेता है एक गहरी साँस
चहरे पर होता है संतोष का भाव.
देखकर अपनों को तृप्त
भूल जाता है अपनी सारी थकान.
कुछ सार्थक कर पाने के दर्प से
होता है उसका मुखमंडल दीप्त.

एकाकीपन का अहसास तो सताता है,
जब दुखी मन से औरों की तरह
अपनी मंजिल पर अकेला जाता है.

लौटते हुए होगी सबसे होगी मुलाकात,
खाली होंगे,पर होंगे साथ-साथ
इस उम्मीद में भूल जाता है अपना गम.
मंजिल पर ही ठहरा रहेगा
मिलने-बिछड़ने का क्रम,
कम ख़ुशी की नहीं है ये बात,
कोई तो रिश्ता है हमारा
उनके साथ औरों के साथ.

Tuesday, August 3, 2010

मैंने देखा है.....

सूखी रेत की तरह
मैंने जिंदगी को
मुट्ठी से
फिसलते देखा है,
काफी करीब से
अपने वर्तमान को
अतीत में
बदलते देखा है
देखा है अपने सपनों को
सजते-संवरते,भरते उड़ान
बार-बार .
अपनी सोच की श्रंखला को
कई बार टूटते-बिखरते देखा है.
लोग आईने के पीछे
ढूंढते हैं खुद को
मैंने आईने में
खुद को बदलते देखा .

Monday, August 2, 2010

कामन वेल्थ गेम्स (अर्थात जन-धन क्रीड़ा)

जी हाँ,जनाब
ये कामन वेल्थ गेम्स है,
अर्थात जन-धन क्रीडा.
सब ले रहे हैं भाग
इस महान उत्सव में,
आप भी आइये, भाग लीजिये,
सभी कर रहे हैं स्वंय पर गर्व,
आप भी कीजिये.
देश का बढ़ा है गौरव
अपने भाग्य पर इतराइए
जबसे हमें
इसकी मेजबानी का हक़ मिला है
जनता के साथ-साथ
व्यस्थापकों का भी दिल खिला है
मन में मची है हलचल
दशकों बाद
कुछ तो अंतरराष्ट्रीय हुआ है .

हुजूर!
यह अकेले का "खेल" नहीं,
ढेरों लोग मिलकर खेलेंगे,
कामन वेल्थ का खेल
खेल भी होंगे अनेक,
कोई पर्यावरण से खेलेगा,
कोई पेड़ों से खेलेगा ,
कोई सड़क से खेलेगा,
कोई सड़क पे खेलेगा ,
कोई सड़क से दूर,
स्टेडियम में खेलेगा,
कोई खेलने जायेगा खेलगाँव.
परन्तु,खेलेंगे सब
क्योंकि यह कामन "वेल्थ"(जन-धन) का गेम है.
जनता तो बस मूक दर्शक बन
देखेगी,झेलेगी सारे खेल,
क्योंकि उसी का "वेल्थ" होता है
"कॉमन".

खिलाडी तो आते हैं
उछल-कूद मचाते हैं
तैरते है,साईकिल चलाते हैं ,
कुछ हारते है,कुछ जीत जाते हैं,
कुछ दिन उधम मचाकर
समापन समारोहके बाद
घर को लौट जाते हैं.

लेकिन कॉमन"वेल्थ" का गेम तो
आगे भी चलता रहता है
वर्षों पहले से महीनों बाद तक-एक समयबद्ध,
दूसरा समय से परे असीम.
यह कल भी जारी था,
आज भी है और कल भी रहेगा.

लेकिन स्वर्णपदक तो उसे ही मिलेगा
जो देश की अस्मिता से खेलेगा.