गाँव में
आज भी
निकलता है चाँद,
जगमगाती है
अमावस की रात
झिलमिलाते तारों से,
भर जाता है आँगन
चमकते जुगनुओं से.
पूरब की ओट से
झांकता है
शर्मीला सूरज
भोर में.
इन सबके बीच ही
कहीं ठहरा हुआ है
हमारा दौड़ लगाता
बचपन.
गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
मेला जाने की रट लगाता
गुब्बारा लेने के लिए
मचलता बचपन. .
दादाजी की उंगली थामे
स्कूल जाता,
कच्चे फर्श पर
चटाई बिछाकर
पढाई करता,
मास्टर जी की मार खाता,
छड़ी छुपाता बचपन.
मेंड़ों पर दौड़ लगाता ,
खेतों की हरियाली में
घुलमिल जाता,
औरों के खेतों से
गन्ने और मटर
चुराता बचपन.
गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
तालाब के पानी पर
पत्थर तिराता बचपन.
सावन की झपसी में
सिर उठाकर
बूंदों को चूमता,
घर के बरामदे बैठ
आँगन से निकलती धार में
कागज की नाव
बहाता बचपन,
डूबते सूरज के साये में
नदी की गीली रेत पर
घरौंदा बनाता,बिगाड़ता,
उन्हें बिगाड़कर
जोर-जोर से
खिलखिलाता बचपन.
ये बेफिक्र बचपन ही तो था
जो किसी की गोद में,
किसी के कंधे पर
चढ़ा होता था,
खौफ से बेख़ौफ़ होने के लिए
मां के आँचल में छिपा होता था .
ये बचपन ही तो है
जो आज भी हमारे मन को
बार-बार गुदगुदाता है ,
हमें यादों के पालने में झुलाता है.
बेशक !
आज हम बड़े हो गए हैं,
अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं.
पर,आज भी
ठहरा हुआ है बचपन
हमारी यादों में
पूरी शिद्दत से.
बहुत बढ़िया,
ReplyDeleteबड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
पूरी कविता दिल को छू कर वही रहने की बात कह रही है !
ऐसी कवितायेँ ही मन में उतरती हैं ॥
ReplyDeleteशानदार, बचपन की यादों को उभारती रचना!!
ReplyDeleteबेशक !
आज हम बड़े हो गए हैं,
अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं.
पर,आज भी
ठहरा हुआ है बचपन
हमारी यादों में
पूरी शिद्दत से.
बहुत ही सुंदर लिखा है...
ReplyDeleteवाकई हम बड़े हो गए हैं लेकिन अभी भी मां-पिता के किस्सों में खोया बचपन....बचपन ठहर गया है हमारी यादों में...
अच्छी रचना के लिए बधाई...
बहुत अच्छी प्रस्तुति. हर दिन किसी न किसी बहाने बचपन की कोई न कोई बात सामने आती ही रहती है और हमें बचपन से बाहर नहीं जाने देती
ReplyDeleteदिल को छोऊने वाली रचना .नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं.
ReplyDeleteबचपन और गाँव की कहानी,
ReplyDeleteशहरों में ढूढ़ते हैं वही निशानी।
शानदार, बचपन की यादों को उभारती रचना|शुभकामनाएं|
ReplyDeleteRahul Singh
ReplyDeleteto me
मन में ही सही, कुलांचे मारता रहे बचपन. आपका ब्लॉग पेज खुल नहीं रहा है, सो यहीं टिप्पणी लगा रहा हूं.
हरीश गुप्त
ReplyDeleteto me
सुन्दर कविता। भावों में गहनता विरल है।
आभार,
हरीश
बेहतरीन रचना है... बहुत खूब!!!
ReplyDeleteDr Tarif Daral
ReplyDeleteto me
बचपन की सुनहरी यादें पढ़कर बहुत अच्छा लगा ।
गाँव तो अभी भी वैसे ही होते हैं । बस हम बदल गए हैं ।
लेकिन कोई पछतावा भी नहीं ।
... umdaa !!
ReplyDeleteराजीव जी, यह तो वो खोई हुई दौलत है जिसकी कीमत हम हर दिन महसूस करते हैं और जो ख़र्च हो गया उसे दुबारा न हासिल कर पाने का मलाल सालता है हमें.
ReplyDeleteमगर आज के बदले हालत में तो ये आलम है कि
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा,
बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है!
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
ReplyDeleteमाँ मेरा मेरा बचपन लौटा दो
बहुत ही प्यारी रचना ! इस रचना को पढ़ कर बचपन की ना जाने कितनी यादें जेहन में ताज़ा हो गयीं ! इतनी सुन्दर रचना के लिये बधाई एवं आभार !
ReplyDeleteसही कहा आपने...बचपन कभी भुलाया नहीं जा सकता..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण मनमोहक रचना...
मेरा तो नहीं पर हाँ मेरे पापा का बचपन जरूर ऐसा ही था.... वो यही बताते हैं...
ReplyDeleteपर हाँ, बचपन कोई हो, किसी का हो, कैसा भी हो... भुलाया नहीं जा सकता..
शुक्रिया इस कविता से मिलवाने के लिए...
मकर संक्रांति, लोहरी एवं पोंगल की हार्दिक शुभकामनाएं...