Friday, November 26, 2010

अंगूठा

अंगूठा
नहीं होता
सिर्फ अंगूठा
अंगूठा होता है पहचान
अलग-अलग इंसानों का ।
अंगूठा होता है हस्ताक्षर
गरीबों का, मजबूरों का
मजदूरों और किसानों का ,
जो होते तो सुघड़ हैं
पर,
रह जाते हैं अनपढ़ ।
क्योंकि नहीं पकड़ाई गई होती
उन अंगूठों को कलम।

अंगूठे में होता है समर्पण,
भरा होता है विश्वास ,
इसमें होती निष्ठा है
और होती है ताकत
कर्मफल तोड़ने की।
.
अंगूठा से ही बनाता है कोई देश,
इससे ही तय होती है
उसके उत्थान की दिशा
क्योंकि यही होता है
उसके श्रम का आधार,
ज्ञान का सूत्रधार.

अंगूठा होता है एकलव्य,
अंगूठा होता है अर्जुन,
पर,उन द्रोनाचार्यों का क्या करें
जो मांग लेते हैं अंगूठा ही दान
यदि दिखती है उसमें जान.

अंगूठा होता है
कर्मठ किसान,
लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित
हमारा अन्नदाता,हमारा भगवान
जब तक नहीं लगाया होता है अंगूठा
कोरे कागज पर साहूकार के
और बन जाता है
अपने ही खेतों में मजदूर
रखकर गिरवी अपना खेत,
अपना जीवन, अपने सपने,अपना सम्मान,
इस बात से अनजान कि उधारी खाद और बीज
उगलेंगे सोने जैसी फसल
या बाटेंगे बदहाली और मौत.

अंगूठा तो अंग्रेजों ने भी लगवाया था
हमारे पूर्वजों से,
बनाकर गुलाम
पहुचाया था अपनी माटी से दूर
लेकिन उन अंगूठों ने ही लिखी
अपनी आजादी की इबारत एक दिन,
हो गए सदियों की गुलामी से मुक्त
बनाकर अपना नया देश।

Monday, November 22, 2010

अब प्रश्न तो उठेगा....

किस गरल की बात करतें है,शिव,
उस गरल की
समुद्र-मंथन के बाद
जिसका किया था आपने पान
सिर्फ एकबार
विश्व बचाने को,
कहलाये
कालजयी मृत्युंजय .

हम सृष्टि के सूत्र-धार
स्नेह और प्यार से
सींचते रहे जीवन निरंतर
चलाते रहे जीवन-चक्र,
मृत्युपर्यंत बचाते रहे
प्रकृति का अस्तित्व.

बदले में क्या मिला?
अवहेलना और उत्पीड़न का अंतहीन दौर,
बंद रखे गए हमारे लिए बाहर के द्वार,
करने के लिए घर का चौखट पार
करना पड़ा हमें एक लम्बा इंतजार .

पुरुष और प्रकृति को था
हमारा मौन समर्थन,समर्पण
फिर भी पीते रहे हैं सदियों से
जहर ज़माने का
बिना उफ़ किये
अकारण
त्रेता में
सीता और अहिल्या बनकर ,
द्वापर में द्रौपदी बनकर.
झेलते रहे अपहरण,
चीरहरण का दंश.

फिर भी हमें नहीं मिला शिवत्व,
नहीं मिला हमारे नारीत्व को मान,
हम सिर झुकाए ढोते रहे
समाज का छद्म सम्मान,
जीते रहे ये सोचकर
कभी तो मिलेगा हमें भी
आप जैसा सम्मान .

Friday, November 19, 2010

अजनबी हो तुम

अपने ही शहर में
अजनबी हो तुम,
तुम्हारी बातें ,
तुम्हारे दिन,
तुम्हारी रातें .

क्योंकि
सफलता की चाह में
निकल गए हो
बहुत आगे,
फंस गए हो
प्रतिस्पर्धा के जाल में,
हो गए हो अपनों से दूर
स्वयं को भूलकर .

कैद होकर रह गए हो
अपने ही बनाये
घरोंदे में,
छूट गया है
खुला आसमान,
चाँद-सितारों का साथ
जबसे तुम्हें
अपनी रौशनी का
भरोसा हो गया है .

तभी तो
सब हैं तुम्हारे साथ,
तुम्हारे आस-पास
बस तुम खो गए हो,
तुम्हारा वजूद खो गया है
चाहत की भीड़ में.

समय आ गया है
करो खुद ही
खुद की तलाश
रिश्तों को ढूँढ़ो
अपने आस-पास.


बना लो उसे
अपनी चाहत,
कट जायेगा
जीवन का सफ़र
आराम से .

Sunday, November 14, 2010

देखता रहता हूँ मैं........

मैं
निश्चल
निःशब्द
अकेला खड़ा
देखता रहता हूँ
उसे
और
वह
होकर
निर्विकार
शब्दों के खोल में
डालता रहता है
बोल
खट्टे-मीठे
भाव भरे,
हँसते-खिलखिलाते से,

एकाग्रमन
रचता रहता है
अपना संसार,
अपनी धरती,
अपना आकाश,
अपने सूरज,चाँद,सितारे
विश्वामित्र की तरह.


मैं
एक किनारे
स्थिर खड़ा
देखता रहता हूँ
सृजन का अद्भुत खेल,
शब्दों में समाये
ऊँचे-ऊँचे पहाड़,
झर-झर झरते झरने,
कल-कल बहती नदिया,
उनसे निःसृत होता संगीत.

देखता हूँ
भावों को
शब्दों के घरोंदों में
लुका-छिपी का खेल
खेलते हुए,
अपने आगे-पीछे
दौड़ लगाते ,
उधम मचाते हुए
चुपचाप
बस एक माध्यम बनकर
क्योंकि मैं
दुनियांदारी में उलझा,
भौतिकता के भंवर में
डूबता-उतराता
एक अदना सा इन्सान जो हूँ .

पर,
उसे
इससे क्या ?
मेरी परेशानियों से परे
वह
चुपचाप
मेरे प्रवाहमान भावों को
शब्दों में पिरोता रहता है,
बुनता रहता है
सृजन जाल .

मैं तो बस देखता रहता हूँ,
देखता रहता हूँ
रचनाकार का
निरंतर जारी खेल

Saturday, November 13, 2010

जब तय नहीं थी मंजिलें

जब तय नहीं थी
मंजिलें,
नहीं बन पाया था
कोई लक्ष्य.

चाहे दिन हो या रात
हाथ नहीं आता था
आसमान
चाँद,सितारे भी चलते थे
मेरे आगे-आगे.

बहुत भरमाता था सूरज,
कई-कई रास्ते दिखाकर
छोड़ जाता था
एक अनजाने,अनचाहे
चौराहे पर.

आज
जब तय हो गई है
मंजिलें,
बन गई है
भटकाव से दूरी.

दिखता है आसमां
क्षितिज पर
धरती से मिलता हुआ,
दिखती है नदी,
सागर में गोते लगाती हुई ,
नहाती हुई .

उग रहा है
सोने जैसा सूरज
उम्मीदों भरा
पूरब में.

मैं छू लूँगा उसे
एक दिन
ये विश्वास जगाता है,
मुझे मेरी मंजिल सा
नजर आता है.

आज वह भी
मेरे साथ-साथ चलता है,

Friday, November 12, 2010

कभी देखा है.....

कभी देखा है
पक्षियों को
करते हुए परवाज
बिलकुल उन्मुक्त,
बिलकुल स्वछन्द
पर,रखे हुए नजर
अपने घोंसलों पर
जिससे मिलता है उन्हें
ऊँचाइयों को छूने का
निर्द्वंद्व हौसला.

कभी देखा है
उन्हें पंख फैलाये,
झुण्ड के झुण्ड
अपनों के संग
आखिरी प्रहर
सूरज के करीब से
गुजरकर
क्षितिज के पार जाते हुए,
नीले आसमान की
ऊँचाइयों में
ग़ुम हो जाते हुए .

कभी देखा है
उन्हें जल में
करते किलोल
फडफडाकर अपने पंख
औरों के संग,
भूलकर सारे अवसाद .

कभी देखी है
सागर दीवानी
नदिया
उसकी आतुरता,
उसका बेचैन पानी,
जिसके हर मौज पर
लिखी है
मिलन की कहानी,
पहाड़ों से उतरकर भी
रहती है जिसकी नजर
ऊंचे पहाड़ों पर.

मैं भी चाहती हूँ
किसी में समा जाना,
उसे अपना बना जाना,
होकर उम्मीदों पर सवार
ढूँढती हूँ संबंधों की धार
ताकि सब के साथ
बहती जाऊं निर्बाध
दोनो किनारा साथ लिए .

परन्तु ,
मैं तो समंदर हूँ,
मुझे तो सबको
अपने में समाना है,
अपना बनाना है
उनका ही होकर
रह जाना है......

Wednesday, November 10, 2010

खेत

खेत
जो कभी देते थे
अन्न , जीवन.
होते थे
संयुक्त परिवार का
आधार,
हमारी पहचान
आज स्वयं ही
लहूलुहान है

अब तो
देने से अधिक
लेने लगे हैं
जीवन
क्योंकि
छोटे-छोटे टुकड़ों में
बंटने लगे हैं खेत .

इन टुकडों के साथ ही
टूटने लगे हैं रिश्ते ,
बँटने लगे हैं दिल,
बदलने लगा है
आपसी व्यवहार.

खेतों से होकर गुजरनेवाले रास्ते
जो कभी ले जाते गाँव ,
मिलाते थे अपनों से
अब मुड़ने लगे हैं
शहर की ओर.

हर फसल से
जुड़े होते थे त्यौहार,
शादी-ब्याह के मौके पर
जुटा करता था
समूचा परिवार,
भूले-बिछड़ों से
हुआ करती थी
मुलाकात.

अब तो खेतों में
खड़ी है
टीस की फसल
लहलहाती सी
जिसके बीज को
अपनों ने बोया हैं,

हम आज भी
नहीं समझ पाए है
हमने क्या पाया,
हमने क्या खोया है.

अब तो खेत बन गए हैं
हमारा धुंधला दर्पण
जहाँ देखकर भी हम
अपनी बर्बादी को
कहाँ देख पाए हैं.

Monday, November 8, 2010

प्रेम-धार बहने दो

1
प्रेम-धार बहने दो

प्रेम यज्ञ आज करो
औरों को प्यार करो
सारे रार रहने दो
प्रेम-धार बहने दो.

रिश्तों का सार बनो
सबके साथ-साथ चलो
मन के तार जुड़ने दो
प्रेम-धार बहने दो.

मन में रखो आस तुम
अपनों में विश्वास तुम
स्वयं को आगे बढ़ने दो
प्रेम-धार बहने दो.

हाथों को थाम लो
सबसे स्वयं से को बांध लो
इस क्रम को चलने दो
प्रेम-धार बहने दो.

2

दूसरा अंतर्मन

तुम्हारा अंतर्मन
नागफनी का घना वन है,
तेरे काँटों की चुभन लिए मैं
एक दूसरा अंतर्मन .

तुम्हारी आँखों का शिकारीपन,
मेरे आँखों से झलकता डर,
मेरा अकेलापन.

आखिर किस रिश्ते से जुड़े हैं
हम : मैं और तुम?
कभी फुर्सत मिले तो बताना.


3

बावरी

कैसी बावरी थी मैं
तू सामने था
और मै
तुझे ढूंढ़ रही थी
अपने मन के वीराने में.