Wednesday, June 29, 2011

अजन्में का इन्तजार

तुम्हें तो पा लिया,बेटे
लेकिन खो दिए हैं
तेरे इंतजार में बीते
बैचैनी-भरे
पल.
पल जो मन को तरसाते थे,तड़पाते थे,
आशा और निराशा के भंवर में घुमाते थे.

तेरे आने की बात
मन को गुदगुदाती थी ,
तुम्हारे ना आने की बात
हमें डराती थी,
कराती थी विवशताओं का अहसास ,
ह्रदय को शंकाओं से भर जाती थी.

तेरे आते ही ख़त्म हो गए
बेकरारी भरे पल,
ख़त्म हो गया
अजन्में का इन्तजार,
भर गया घर का कोना-कोना
आनंद के अतिरेक से.

तुम्हारे आने से
जीवन को मिल गई है
नई उर्जा,नई दिशा,
मिल गई है एक नई राह
चलने के लिए,
मिल गया है नया आकाश,
नया सूरज,नया चाँद
चमकता हुआ,
रिश्तों की छांव में
जीवन सजाने के लिए .

Wednesday, June 22, 2011

तुम्हारी मुस्कान

तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
सोये नहीं थे हम
कई-कई रात ,
तुम्हारी एक मुस्कान पर
हम रहे न्योछावर.
तुम्हारे हर क्रंदन पर,
बेचैन,

तुम्हारा मचलना,
गुस्सा होना,चिल्लाना
और फिर ...
सहज हो जाना,
जो तुम्हारी मुस्कान में है,
बहुत राहत देता है
सिर पर जलता सूरज ओढ़े
समय की तपती रेत पर
चलते हमारे मन को.

जब-जब तुम मुस्कुराते हो
कभी राम,
तो कभी कृष्ण,
कभी पुरवैया का झोंका ,
कभी जीवन अभिराम हो जाते हो
क्योंकि तुम जीते रहे
अपना जीवन
पल-पल.

आज
मैं भी जीना चाहता हूँ
हर कतरा जीवन
होना चाहता हूँ,
निर्विकार
तुम्हारी तरह.

भाव से परे नहीं,
भावपूर्ण होना चाहता हूँ.
होना चाहता हूँ
परिस्थितिजन्य.

परन्तु
इतना आसान कहाँ है ये सब ,
हमारे निश्छल भावों पर
हमारा विचार हावी है,
समय हावी है,
समय के साथ ही
सारा संसार हावी है.

Tuesday, June 21, 2011

तुम तक जाना है मुझे

तुम तक जाना है मुझे
समय कटता नहीं,
विरह में जलता हूँ,
हसरत-भरी निगाहों से
देखता हूँ
सामने
सड़क के पार
जहाँ है तुम्हारा घर
हरियाली के बीच.

हमदोनों के घरों के बीच
है चिलचिलाती धूप
जेठ की दोपहरी की
हैं दरारों भरे सूखे खेत,
जहाँ चलते हैं
लू के बेरहम थपेड़े
गर्म हवाओं में बहता है
पानी का भरम.
दिखता है चारो ओर
पानी ही पानी ,
प्यास ही प्यास.
रास्ते लगते हैं
ठिठककर ठहरे हुए.

चाहत और दूरियां
चलती हैं साथ-साथ
एक-दूसरे के समानान्तर.
न दूरियां ख़त्म होती है
न ही मिलन की आस .

ख़ुशी बस इतनी सी है
तुम बस जाओगी
मेरी यादों में
एक तड़प बनकर.

तड़प
जो इंतजार करना सिखाता है,
औरों के लिए
जीना-मरना सिखाता है.

(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)

न जाने क्यों?

न जाने क्यों?
लोग प्यासे रह जाते हैं
पानी नहीं बचाते.
जलते रहते है
जेठ की दोपहरी में,
मगर पेड़ नहीं लगाते.
न जाने क्यों?

देखते हैं घायल को
सड़क पर तड़पते,
तड़प-तड़पकर कर
दम तोड़ते हुए
तमाशबीन बनकर,
मगर सहायता के लिए
आगे नहीं आते,
उसे अस्पताल
नहीं पहुंचाते.
न जाने क्यों?

देखते हैं सरेआम
झपटमारी, छेड़-छाड़,
नहीं करते विरोध,
मदद को
आगे नहीं आते.
काटकर कन्नी
निकल लेते हैं.
न जाने क्यों?

सहते रहते हैं
सारे जुल्मों-सितम
चुप-चाप ,
आवाज नहीं उठाते,
नहीं करते प्रतिकार.
न जाने क्यों?

रह लेते हैं
घुप्प अँधेरे में
चुपचाप ,
दीया नहीं जलाते,
ढूंढ़कर नहीं लाते
दूसरा सूरज.
न जाने क्यों?.
(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)

जितिया (पुत्र-रक्षा व्रत)

मैंने देखा है तुम्हें
रखते हुए व्रत
जितिया का
बार-बार,लगातार
वर्ष-दर-वर्ष.
जानता हूँ
परंपरा से ही यह
आया है तुझमें.

कहते हैं
रखने से यह व्रत
दीर्घायु होते हैं बच्चे,
टल जाती हैं
आनेवाली बलाएँ,
निष्कंटक हो जाता है
उनका जीवन.

देखा है मैंने
तुम्हें रहते हुए
निर्जलाहार
सूर्योदय से सूर्योदय तक,
तुम्हारे कुम्हलाए चेहरे में
देखा है
आत्मविश्वास का सूरज
उगते हुए.

देखा है तुम्हें
किसी तपी सा
करते हुए तप
पूरी निष्ठा से,
मौन रहकर
मौन से करते हुए बात,
देखा है तुम्हें
निहारते हुए शून्य में,
माँगते हुए मन ही मन
विधाता से आशीष
अपने बच्चों केलिये.

अपने अटूट विश्वास के सहारे
कर लेना चाहती हो
अपने सारे सपने साकार
कर लेना चाहती हो
सारी भव-बाधाएं पार.

चाहती हो
तुम्हारे रहते न हो
उनका कोई अहित
चाहे कितना भी
क्यों न उठाना पड़े कष्ट,
रखना पड़े व्रत-उपवास.

शायद
उबरना चाहती हो
अनिष्ट की आशंका से,
थमाना चाहती हो पतवार
अपने डूबते-उतराते मन को,

तभी तो तुम
आस्था के दीप जला
इस व्रत के सहारे
करती हो आवाह्न
अपने इष्ट का,
जोड़ती हो दृश्य को अदृश्य से
पूरे समर्पण के साथ.

रखकर निर्जला व्रत,
कर अन्न-जल का त्याग
तोलती हो
उसमें अपना विश्वास,
सौंपकर उसके हाथों में
अपने उम्मीद की डोर
हो जाती हो निःशंक
किसी अनहोनी से.

जी लेना चाहती हो
रिश्तों से भरा जीवन ,
भयमुक्त,खुशियों भरा,
तभी तो आज भी रखती हो
निर्जला व्रत जितिया का.

(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)

Wednesday, June 8, 2011

"मेरी पहचान बन जाते"

तुम
एकबार फिर
लौटकर आओगे,
मेरे मन में ये उम्मीद
जगा जाते,
तुम्हारी याद में आंसू बहाकर
जिन्हें अबतक सींचती रही .
मेरे सपने का वो सूखता गुलाब
बचा जाओगे
बस इतना भरोसा दिला जाते.

अब
जब तुम्हारा आना
अनिश्चित
और
इस गुलाब का सूख जाना
निश्चित है
तो सोचती हूँ
उस दिन
रोते-रोते
अचानक
चुप क्यों हो गई थी मैं.

तब तो
मैं ही हुई न
इस गुलाब की हत्यारिन
क्योंकि उस दिन के बाद...
कभी रोई नहीं हूँ मैं.

काश !
एकबार तुम आ जाते,
मेरी आँखों को
थोड़ी नमी दे जाते
और
दे जाते
गुलाब को नया जीवन,
मेरी पहचान बन जाते.