Monday, February 21, 2011

आने दो वसंत

आज
हर तरफ सूखा है,
भीतर-बाहर
सब कुछ रुखा-रुखा है
बादल भी हो रहे हैं सफ़ेद.

इंसानों की कौन कहे
बिगड़ी हुई है
प्रकृति की भी चाल
पेड़ों ने भी नहीं ओढ़ी है
अभीतक
हरे पत्तों की शाल,
उतरा हुआ है
खेतों का भी रंग,
कुछ ठीक सा नहीं लगता,
समय का रंग-ढंग.

एकबार फिर
आने दो वसंत
चारो ओर
चहकने दो चिड़ियों को
डाली-डाली,
नदियों को
कल-कल बह जाने दो,
झरनों को
झर-झर झर जाने दो,
खेतों में खिल जाने दो
सरसों के पीले फूल.

चुन लेने दो
तितलियों को
मनचाहे फूल,
भवरों को
झूम लेने दो
पीकर मकरंद,
बिछ जाने दो
हरियाली की चादर
चारो ओर
बह लेने दो
एकबार फिर
मंद-मंद
सिहरन भरा समीर,
घुल जाने
दो हवाओं में भंग,
छा जाने दो
चतुर्दिक उमंग.

शेमल के फूलों से
चुरा कर रंग लाल
बना लो गुलाल,
खेलो होली
एक-दूजे के संग.
रंग दो
मन का कोना-कोना,
अंग-अंग.

दो रिश्तों को
नया जीवन,
वसंत को आने दो
बार-बार,बार-बार,
लगातार,
सबकुछ
वासंती हो जाने दो.

Tuesday, February 1, 2011

एक अनुभव

एकबार
जब तुम बहुत बीमार थे,
हम बिलकुल लाचार थे,
काटे नहीं कटता था
समय,
रातें लगती थी
सागर से गहरी,
दिन लगते थे
पहाड़ से.

तब हमने
हजार-हजार पलों में
बाँट लिए थे
अपने दिन,अपनी रातें,
हर पल में
निराशा एक वृत्त था,
आशा उसका केंद्र .

तुम्हारे लिए
क्रंदन और किलकारी
एक-दूसरे का
रहा होगा पर्याय,
रहे होंगे
जिंदगी और मौत
एक सिक्के को दो पहलू .

हमारे लिए तो यह
पल-पल जी गई मौत थी
आशंका और अवसाद भरी,
धडकनों की रफ़्तार में
हर कतरा खून था
सिहरा हुआ,
सिमटा हुआ.

पाकर तुम्हें
खोना नहीं चाहते थे हम,
असहाय से कभी तुम्हें ,
कभी आसमान की ओर.....
देखते थे हम.

हमारे पास
नदी के बीच डगमगाती
उम्मीद की नाव तो थी,
भरोसे की पतवार नहीं थी.

हमारी हर आस टिकी थी
उन अनजान थपेड़ों पर
जो मंझधार से बढ़ रही थी
किनारे की ओर.............

(हर किसी के जीवन में कभी न कभी ऐसा पल आता है)