Tuesday, June 21, 2011

न जाने क्यों?

न जाने क्यों?
लोग प्यासे रह जाते हैं
पानी नहीं बचाते.
जलते रहते है
जेठ की दोपहरी में,
मगर पेड़ नहीं लगाते.
न जाने क्यों?

देखते हैं घायल को
सड़क पर तड़पते,
तड़प-तड़पकर कर
दम तोड़ते हुए
तमाशबीन बनकर,
मगर सहायता के लिए
आगे नहीं आते,
उसे अस्पताल
नहीं पहुंचाते.
न जाने क्यों?

देखते हैं सरेआम
झपटमारी, छेड़-छाड़,
नहीं करते विरोध,
मदद को
आगे नहीं आते.
काटकर कन्नी
निकल लेते हैं.
न जाने क्यों?

सहते रहते हैं
सारे जुल्मों-सितम
चुप-चाप ,
आवाज नहीं उठाते,
नहीं करते प्रतिकार.
न जाने क्यों?

रह लेते हैं
घुप्प अँधेरे में
चुपचाप ,
दीया नहीं जलाते,
ढूंढ़कर नहीं लाते
दूसरा सूरज.
न जाने क्यों?.
(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)

2 comments:

  1. अगर इस जाने क्यूँ का उतर मिल जाता तो आज ऐसी स्तिथि आती ही नहीं

    anu

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  2. आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !

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