न जाने क्यों?
लोग प्यासे रह जाते हैं
पानी नहीं बचाते.
जलते रहते है
जेठ की दोपहरी में,
मगर पेड़ नहीं लगाते.
न जाने क्यों?
देखते हैं घायल को
सड़क पर तड़पते,
तड़प-तड़पकर कर
दम तोड़ते हुए
तमाशबीन बनकर,
मगर सहायता के लिए
आगे नहीं आते,
उसे अस्पताल
नहीं पहुंचाते.
न जाने क्यों?
देखते हैं सरेआम
झपटमारी, छेड़-छाड़,
नहीं करते विरोध,
मदद को
आगे नहीं आते.
काटकर कन्नी
निकल लेते हैं.
न जाने क्यों?
सहते रहते हैं
सारे जुल्मों-सितम
चुप-चाप ,
आवाज नहीं उठाते,
नहीं करते प्रतिकार.
न जाने क्यों?
रह लेते हैं
घुप्प अँधेरे में
चुपचाप ,
दीया नहीं जलाते,
ढूंढ़कर नहीं लाते
दूसरा सूरज.
न जाने क्यों?.
(अतीत से वर्तमान तक से पोस्ट किया गया पुराना पोस्ट है)
अगर इस जाने क्यूँ का उतर मिल जाता तो आज ऐसी स्तिथि आती ही नहीं
ReplyDeleteanu
आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
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