Wednesday, December 29, 2010

कुछ न मिलेगा इस दुनियां से......

कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा.

छल-प्रपंच से भरे विश्व में
मानव तू कुछ न पायेगा,
भौतिकता का अंत नहीं है
कौन तुझे ये बतलायेगा.
कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा.

माया की इस मरूभूमि में
मोह संग क्यों दौड़ लगाता,
तृष्णा की तृप्ति से पहले
तू अनंत में खो जायेगा .
कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा.

तृष्णा ही तृष्णा इस जग में ,
कहीं शांति का क्या तू पायेगा
सुषमा की इस भरी सभा से
दूर कभी क्या हो पायेगा ?
कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा.

ऐसा बीता हर-पल,हर-क्षण
नहीं समझ पाया तेरा मन ,
सुख-सागर में लिप्त हुआ जो
किसको फिर वह समझाएगा .
कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा.

तुमनें सोचा होगा पहले
दुनियां में सुख ही सुख होगा,
भ्रामकता के गहन तिमिर में
असमय ही तू खो जायेगा.
कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा.

सत्य समय की डोर न थामे,
समय सत्य की बांह पकड़ता,
एक समय ऐसा आएगा ,
मिटटी में तू मिल जायेगा.
कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा.

तोड़ ले नाता भौतिकता से
उससे नेह लगा ले मानव
समय कहीं अनजान डगर
मंजिल बनकर मिल जायेगा.
कुछ न मिलेगा इस दुनियां से
समय व्यर्थ ही खो जायेगा

(वर्ष 1979 में लिखी थी)
www.ghonsla.blogspot.com पर देखें.

Saturday, December 25, 2010

क्यों नहीं जा पाते तुम....

मैं पूछती हूँ
क्यों नहीं जा पाते तुम
हमारे तन के पार?
क्यों नहीं लाँघ पाते
रीति-रिवाजों से से नियंत्रित
परम्पराओं की देहरी
जहाँ तिरता है जीवन-मूल्य
पानी पर तेल सा
जीवन-मृत्यु के बीच
सृजन के धागों से बंधकर
झूलते हैं सारे रिश्ते
आजादी की अनदेखी कर

क्यों नहीं देख पाते उसकी आँखों में
छलकता प्यार,उमड़ती करुणा
अपने और औरों के लिए.
तन के माध्यम से ही तो होता है
ये सारा व्यापार ,
अनगिन भावों का निरंतर संचार.


क्यों नहीं रख पाते याद
उसका व्रत,उपवास,
मुसीबत की घड़ी में
जागना सारी-सारी रात
तुम्हारे भले के लिए
मां,बहन और पत्नी बनकर.

क्यों नहीं देखते जननी को
प्रकृति सा लेटा अपने आस-पास
अलग-अलग रूप और परिधान में.
क्यों नहीं खोलते मन का नाजुक द्वार
जहाँ तन में लहराता है
बहन का प्यार राखी बनकर
माँ का दुलार
कौशल्या बनकर,यशोदा बनकर ,
तुम मचलते हो बनकर
राम और श्याम.

इसी में बसी है राम की सीता ,
सावित्री सत्यवान की.
पाषाणी अहिल्या
नहीं है केवल एक तन
जिसे किसी ने धोखा दिया
किसी ने किया प्रताड़ित .
वह जूझती रही प्रश्नों के द्वंद्व से
टूटा ह्रदय लिए,
बिखरे अरमानों के साथ.
करती रही एक ऐसे शरीर में वास
जो समझ नहीं पाया
अपना अपराध
आजतक.

ये तो आज भी है एक पहेली
क्यों कोई बन जाता है युधिष्ठिर ,
लगा देता है द्रौपदी का शरीर
अपने हर दाव पर?
क्यों दु:शाशन ठहाके लगता है
अपने कृत्य पर?
क्यों आज भी मौन हैं पितामह?
क्यों ली जाती है अग्नि परीक्षा
इस देह की बार-बार लगातार?
क्यों आज भी जन्म लेते हैं
परमहंस और गाँधी जैसे लोग
हमारे बीच .
एक पाशविक वृति का वाहक बनकर ,
दूसरा मानवता का उपासक बनकर?

राजा रवि वर्मा की तसवीरें बोलती हैं
बाहर का सच ,
खींचती हैं अपनी ओर
आकर्षण की डोर ले,
हुसैन की तस्वीरें देती है
भावनाओं को हवा,
पाती हैं तन पर न्योछावर
हजारों मीठे बोल.
कोई कहाँ झांकता है पोर्ट्रेट के भीतर
जहाँ धड़कता है एक कोमल ह्रदय,
पलती है जीवन को दिशा देनेवाली सोच.

यह सत्य है अकाट्य
कोई धरा को नहीं समेट सकता है
अपनी बाँहों में,
पर, एक छोटा सा स्नेहपाश
कर सकता है धरती-आकाश एक.

शरीर नहीं है कोई सड़क
चलने के लिए,
है एक किताब जीवन की
पढ़ने के लिए.
एक घर
जिसके दरवाजे खुले रहते हैं
सदा
शरण देने के लिए.
प्यार के सागर की लहरों पर
अठखेलियाँ करती एक नाव है यह
हमेशा बढ़ती हुई
किनारे की ओर.

इसलिए, आओ
आगे बढ़ो
पूरी संवेदना से निभाओ इसका साथ.
यहीं मिल जायेगी तुम्हे पूरी धरती,
पूरा आकाश,
आँखों में उम्मीद का सूरज.

पढो अपना मन
कि पढ़ पाओ उसका मन,
जाकर खड़े हो जाओ उसके पास
सुन पाओगे
उसके भीतर की आवाज
इच्छाओं के पार से आती हुई .

उसका शरीर है सूरज
चक्कर लगाते है जिसके चारो ओर
हजारों सम्बन्ध
अलग-अलग कक्षाओं में रहकर.
सदा रहती है वह
उन्हें सीने से लगाये
प्रोटान बनकर.

Tuesday, December 21, 2010

न जाने क्यों?

एक दिन
तुमने ही तो कहा था
सज-धज कर रहो
अच्छी लगती हो,
मन को भाती हो.

लेकिन
जब-जब मैं
सज-सवंर कर निकली
तुमने रोक दिया था
मुझे बाहर जाने से
न जाने क्यों?

तुमने ही कहा था
छोटे रखने को बाल,
आई-ब्रो बनवाने को.
शायद तुम्हें अच्छा लगता था
ये सब..........
अगले दिन जब खुले सिर
निकली घर से बाहर
तुमने रख दिया
साडी का आँचल
मेरे माथे पर
न जाने क्यों?

तुमने ही बड़े शौक से
खरीदा था मेरे लिए
टाप और जींस
पहनाया भी था मुझे
हुलसकर
लेकिन इसे पहनकर
मेरे बाहर जाने पर
हमेशा ऐतराज रहा तुम्हें
न जाने क्यों?

तुमने ही जिद करके
सिखाया था
मुझे गाड़ी चलाना
बड़े चाव से,
बनवाया था मेरा ड्राइविंग लाइसेंस,
तुम्ही ने कहा था एक दिन,
"आज गाडी तुम चलाओ.
मैं बैठूँगा तुम्हारी बगल में".
रियर-व्यू मिरर में देखा था मैंने
तुम्हारे चेहरे का बदलता रंग,
बदरंग होता हुआ
जब लोगों ने देखा था मुझे
न जाने क्यों ?

पति की चाहत
पुरुष की सोच का अंतर
उभर आया था
तुम्हारे चेहरे पर
शिकन बनकर .
तुम्हारी इच्छा थी मुझे सजाने की,
पर, नहीं जुटा पाए साहस
मेरे सौन्दर्य,
मेरी इच्छाओं को
मन के आईने के पार
देख पाने का,
न जाने क्यों?

जब-जब मैं
तुम्हारे सपनों को जीती
हकीकत के धरातल पर गिरकर
चूर-चूर हो जाते थे तुम्हारे सपने
अपने अहम् में तुम जीते रहे
सदा पुरुष बनकर
न जाने क्यों?

तुम्हारे अहम् के साथ
बढ़ता रहा.......
तुम्हारे भीतर का खारापन
तुम जीते रहे
संगी से इतर
रश्मो-रिवाज में बंधकर
पुरुष और परंपरा बनकर
न जाने क्यों?

Tuesday, December 14, 2010

मानदंड

बदला तो बस समय
समय के साथ
चीजें होती गई प्यारी,
रिश्ते होते गए भारी.
बादलों के भी बदल गए
हाव-भाव,
प्रकृति में भी आये
ढेरों बदलाव.

पर,
सूरज ,चाँद,सितारों की तरह
नहीं बदले आप,
नहीं बदला
जीवन के प्रति आपका नजरिया
नहीं बदला
सबके लिए आपका स्नेह,
सबके लिए प्यार
रिश्तों के प्रति आपका लगाव,
क्षितिज तक दिखता है
जिसका विस्तार आज भी,
गहराई लगती है समंदर सी.

आपसे ही उगता था
सूरज हमारी उम्मीदों का,
आपकी उंगलियाँ ही देती थी
दिशाएं हमारे जीवन को,
आपका साहस,आपका धैर्य था
हमारा संबल.

अभाव के बादल
उमड़ते-घुमड़ते रहे
गरजते रहे,बरसते रहे
कई-कई दिन,कई-कई रात
मुसलाधार
लगातार.

फ़िरभी,
नहीं तोड़ पाए
विश्वास पर टिका
आपका फौलादी मनोबल.
नहीं डिगा पाए आपको
आपके अपनाये रास्ते से,
नहीं तोड़ पाए रिश्तों का घेरा
जो आपने डाल रखा था
अपने चारो ओर
क्योंकि
आपने कभी नहीं तोला इन्हें
उस तराजू में
जो झुक रहा था दूसरी ओर.

बन गए मानदंड
हमारे लिए
जिसके सहारे पढ़ पाए थे हम,
मूल्यों के उतर-चढ़ाव,
कर पाए थे
बदलाव का मूल्यांकन.
आपके अपनाये मूल्यों में
तौल पाए थे
स्वयं को,
औरों को उस तराजू में.
लगा कितने छोटे हो गए हैं हम.

अगर आप बदल जाते
तो शायद हम बन जाते
ऐसा सोचते थे हम.

पर,
आपको कहाँ था स्वीकार
रोटी का आप पर हावी हो जाना.
भले ही कुरते पर क्यों न लगे हों
सैकड़ो पैबंद,
पर नहीं था आपको स्वीकार
चरित्र के कोरेपन पर कोई दाग.

आप दर्पण थे
व्यवहार में सदाचार के,
अपने आदर्शों के,अपने विचार के
जो आज भी ध्रुवतारा बनकर
हमें भटकाव से बचाता है .

हमने सोचा था
यदि आप बदल जाते
तो शायद हमारे दिन फिर जाते ,
संवर जाता हमारा आनेवाला कल.

लेकिन आज
जब किनारे खड़ा
समंदर को देखता हूँ
तो लगता है
तब सावन जरूर आता,
पर हमारे आँखों का पानी ले जाता.
हम कभी नहीं जान पाते
हमनें क्या खोया,
हमनें क्या पाया.

(परम आदरणीय बाबूजी को सादर समर्पित जो जीवन-भर अपने अपनाये गए मूल्यों को बचाने में लगे रहे)

Sunday, December 5, 2010

तारीखों में बसे चेहरे

आज धीरे-धीरे ही सही मगर निश्चित रूप से , 
ग़ुम हो रही हैं तारीखें, 
ग़ुम हो रहे है तारीखों में बसे चेहरे 
जो हुआ करते थे खास. 
अब तारीखों से याद नहीं आते गाँधी और नेहरू, 
तारीखों से याद आता है भयानक मंजर. 
 जब-जब याद आता है 9/11 और 26/11, 
याद आता है वर्ल्ड ट्रेड सेंटर,
भारतीय संसद, 
होटल ताज 
और शिवाजी टर्मीनस, 
ऐसे ही और कई अनगिन नाम . 

अब नहीं याद आएँगी तारीखें 
नहीं उभर पाएगा जेहन में उसमें बसा कोई नाम, 
कोई चेहरा, 
बस होंगे दिन और रात. 

शायद ही अब बन पाए 2 अक्टूबर ,14 नवम्बर जैसी तारीखें , 
जिसमें आज भी बसे हैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी , 
बच्चों के चाचा नेहरु। 
तारीखों के आते ही 
जो उभर आते हैं मन में त्योहारों की तरह. 
इसके पीछे होता है ढेर सारा समर्पण, 
मानवता के प्रति ढेर सारा प्यार । 
आज हर तारीख में जबरन घुसाए जा रहे हैं 
मदर्स-डे,
फादर्स-डे,
वैलेंटाइन-डे जैसी संज्ञाएँ 
जिसमें नहीं होती तस्वीरें 
समाज और जीवन को दिशा देनेवालों की, 
जीवन की राह में उंगली थमाने वाले मां की,बाबूजी की, अपनों की। 
बस एक ढेर होता है , 
अपने से लगते पराये चेहरों का, 
शहीदों का,नेताओं का, जनता और जवानों का। 
पहले अपने कर्म, 
सामाजिक सरोकारों से जाना जाता था चेहरा 
जो होता था आम चेहरों से अलग. 
आज तो सारे कर्म, सारे धर्म एक जैसे 
इसलिए चेहरे भी एक जैसे, 
आपस में मिलते-जुलते से। 
 ऐसे में कहाँ मिलेगा एक अदद चेहरा 
भीड़ का होकर भी जो हो भीड़ से अलग.

Wednesday, December 1, 2010

काश ! सुन पाते ....

काश!
एकबार हम
तुलसी,सूर और कबीर
जैसे हो पाते,
मौन रहकर सुन पाते
अपने भीतर अनगूंज गूँज
अनहद नाद की.

किसी के होने का अनुभव
अपने भीतर कर
उसमें अपना विश्वास जगा पाते.
निकल आते बाहर
मंदिर-मस्जिद,गिरजा और गुरुद्वारों से,
इन सबको अपने दिल में बसाकर
जला लेते
सम्मान से सम्मान का दीप,
अनुभवों के खेत में
विश्वास की फसल
फिर से उगा पाते,
अपने आत्म-विश्वास को
आस्था में बदल पाते .

दोहराते
रामचरित का दृष्टान्त
बार-बार,कई-कई बार,
अपने घर महाभारत नहीं दोहराते.

मोती बन पिरोये जाते एक सूत्र में
तो शायद आज
यूँ न बिखरते दाना-दाना
अलग-अलग,
अलग-थलग न पड़ जाते.

अब समय आ गया है
उम्मीद की बंजर जमीन पर
विश्वास की फसल उगाने का,
घृणा के कैक्टस को काट गिराने का.

समय आ गया है
यह समझने और समझाने का
हमने ही बांटे हैं
धरती और आकाश,
हमने ही बांटे है
खेत और खलिहान
कुछ अधिक पाने की चाह में.