Friday, October 29, 2010

बिटिया

जबसे
मेरी गोद में
आई थी
नन्ही सी जान,
उसी में जा बसे थे
मेरे प्राण.

झांकती थी
मेरी आँखें
उसकी आँखों में
जहाँ तैर रहे थे सपने
मेरे बचपन के,
उसके नैन-नक्श में
देखती थी
अपना शैशव.

यह था
ईश्वर का अमूल्य
वरदान
मेरे लिए.
नहीं हो रहा था
विश्वास
मेरी गोद में
लेटी थी सृष्टि
अपनी पूर्णता के साथ .

कांपते हाथों से
सहलाये थे मैंने
उसके कोमल गात
उसके मखमली बाल,
लग रहा था छू रही हूँ
जैसे पंखुड़ियाँ गुलाब की,
हो रहा था एक अजीब सा
सिहरन-भरा अहसास .

उसके आने से
और आसमानी हो गया था
मेरे मन का आकाश,
निकल आया था पूरा चाँद
अपनी चाँदनी के साथ
चारो ओर फैला था
अद्भुत प्रकाश।

पहली बार मैं
अपने सपनों को
सहला रही थी
उसकी ऊँगली पकड़ ,
लग रहा था मानों
मैं ही लेटी हूँ
अपनी गोद में .

Thursday, October 28, 2010

दर्द का कोई चेहरा नहीं होता

दर्द
होता है
ईश्वर की तरह
निराकार ,
पर,नहीं होता है
निराधार .

यह भी होता है
सर्वव्यापी
उसी की तरह,
होते हैं इसके भी
कई-कई रूप.

नहीं होता इसका
अलग-अलग रंग,
बस चोट होती है
अलग-अलग
दिखी-अनदिखी सी.

दर्द का
कोई चेहरा नहीं होता,
हर चेहरे पर
उभर आता है ये दर्द
आइना बनकर.

आंसू और मुस्कान में
छुपा रहता है.
वेदना-अंतर्वेदना में
बंटा रहता है
ये दर्द
सृजन का सार बनकर,
रिश्तों का आधार बनकर.

Friday, October 15, 2010

एक दिन की आजादी

देकर एक दिन की आजादी
अपनी होशियारी पर इतराते हो,
करके धर्म के ठेकेदारों से सांठ-गांठ
अपनी-अपनी दुकानें चलाते हो,
दिन में तो दिखते हो अलग-अलग
रात को मयखाना साथ जाते हो।

सहारा लेते हो
भेद-भाव की राजनीति का ,
मंदिर-मस्जिद को
बताते हो अलग-अलग
राग और द्वेष की जहरीली
फसल उगाते हो,
अपनों को अपनों से लड़ाते हो ।

मौका पाते ही
बदल लेते हो अपनी चाल
ओढ़ लेते हो भेंड की खाल
स्वयं को हमारा
मसीहा बताते हो,
जनप्रतिनिधि कहलाते हो.

देकर हमें एक दिन की आजादी
सालो-साल तुम सब एक होकर
हमारी गुलामी का जश्न मनाते हो,
खून-पसीने की हमारी कमाई पर
खुलकर करते हो मौज
समझकर हमें बेवकूफ
हमारी भलमनसाहत का
मजाक उड़ाते हो.

अकड़ तो ऐसे दिखाते हो
जैसे तुम हो साहूकार,
हम तेरे कर्जदार
हम जनता नहीं है,
तुम हमारे प्रतिनिधि नहीं,
तुम तो कर रहे हो
हम पर अहसान,
मजबूरी में उठा रहे हो
हमारा भार.

डूबे रहते हो
भ्रष्टाचार में आकंठ
शर्मो-हया को छोड़कर
देश और देश की छवी का
खुलकर बजाते हो बैंड
होकर निडर, निःशंक,
जीतकर जो आते हो.

क्या सोचते हो ?
हम समझते नहीं हैं
तुम्हारी दोहरी चाल.
नहीं रहता हमें याद
हाथ जोड़कर
हर एक के आगे
तुम्हारा गिड़-गिडाना,
भरी दोपहरी में
गली-गली घूमना
बड़े-बूढों के तलवे सहलाना.

तुम्हारी नस-नस से
वाकिफ है हम ,
तुम्हारी हर फितरत है
हमारी निगाहों में
क्योंकि नदी तो वही है
जिसमें हम भी रहते हैं
तुम भी रहते हो .

हम तो बस
तुम्हें समझने का,
संभलने का
दे रहे हैं एक मौका ,
तलाश रहे हैं
एक अदद चेहरा
जो खो गया है
तुम जैसों की भीड़ में.

Tuesday, October 12, 2010

बेटियां नहीं अब बोझ.....

धीरे-धीरे ही सही
बदल रही है सोच,
सोच की दिशा
हो रही है उत्तरायण,
बहने लगी है
परिवर्तन की बयार .

होती रही होगी
बिटिया कभी बोझ,
झुकाती रही होगी माथा
अपने माँ-बाप का
क्योंकि
उसे मिला होगा
कुंठित,संकुचित,
झूठी प्रतिष्टा का पैरोकार
सहमा हुआ समाज,
जो नहीं लांघने देता था देहरी
पीहर हो या ससुराल.

अब लोग
बेटियों को
नहीं मानते बोझ,
पूर्व-जन्म का पाप.
नहीं कहते हैं
उसे पराया धन .

अब तो
मां-बाप मांगने लगे है
ईश्वर से वरदान ,
झोली में देना
बिटिया ही दान.

पूछने लगे हैं
खुद से ही सवाल:
ऐसा क्या किया है बेटे ने
जो बिटिया ने नहीं किया,
फिर भी,
क्यों नहीं मिल रही.
उसे पहचान ?

आज
वह भी
कमा रही है नाम,
बढ़ रही है आगे
कंधे-से-कंधे मिलाकर,
बढ़ा रही है
जननी,
जन्म-भूमि का मान.

अब नहीं चाहिए
उसे वैशाखी
समाज की ,
बस चाहिए
एक कंधा
स्नेह- भरा
मां का हो या बाप का







Sunday, October 10, 2010

काश ! दर्पण मुझमें समा जाता.....

काश !
मैं दर्पण में
और
दर्पण
मुझमें
समा जाता,
चला जाता
मेरे जेहन के पार।

मेरे भीतर का मैं
उससे दो-चार हो पाता
और देख पाता
अपने भीतर की
कश्मकश,
निरंतर जारी
द्वंद को पढ़ पाता
भले-बुरे का भेद
समझ पाता
खुद को इन्सान
बना पाता।


देख पाता
किसी के लिए घृणा,
किसी के लिए प्यार,
कहीं श्रद्धा से नत मस्तक,
कही विश्वास की झलक,
आत्मविश्वास की पकड़,
कहीं नास्तिक मन की अकड़
उस दर्पण में।

ढूंढ पाता
उसके पीछे का राज
अपने भीतर,
कर पाता
उसमें सुधार.
कारणों के जाल से
बाहर निकल,
अपनों से भरा,
अपनेपन से भरा
एक सुंदर सा संसार
बसा पाता
तो दर्पण का मुझमें,
मेरा दर्पण में समाना
सार्थक हो जाता।

ऐ दाता !

ऐ दाता !
कभी इतना मत देना
जो दामन में न समाये,
इतना भी मत देना की
मेरी झोली
खाली रह जाये.
बस इतना-भर देना
कोई मायूस न जाये
मेरे घर से,
मैं तेरे दर से।

देना ही है तो देना
एक टुकड़ा जमीन
मेरे बाहर,मेरे भीतर ,
उपजाऊ सी,
साथ में देना
थोड़े से बादल,
देना एक अच्छी सी बरसात,
एक बहती नदी देना
साथ में देना
थोड़ी सी हरियाली,
जिससे आये
खुशहाली चारो ओर।

मुझे देना
थोड़ा सा दर्द,
दर्द का अहसास
ताकि
मैं औरों का दर्द
समझ पाऊं,
बाँट सकूँ
गमजदा लोगों के गम.
मेरे मन को
देना वो नमी
जो रहने दे
मेरे आँखों में पानी
जो रिश्तों को
तर कर जाये
भर जाये
जीवन में उमंग ।

जी लेने दो मुझे
ख़ुशी-ख़ुशी
उन रिश्तों के साथ
पल-दो-पल
जिन्हें बड़ी मुश्किल से
जोड़ पाया हूँ,
पी लेने दो
अपनेपन से उपजा
आनंद-रस
एकबार.

मत छोड़ना
मुझे कभी अकेला,
मेरे हर कर्म में देना
मेरा साथ,
बनाये रखना
अपना आशीष,
धरे रहना सदा
मेरे सिर पर
अपना हाथ .

Friday, October 8, 2010

उसका दर्पण

नहीं निहारती
अब वो
अपने-आपको,
अपने रूप,
अपने श्रृंगार को
आईने में
बार-बार,
दिन में
कई-कई बार
जबसे
चाँद सी बिटिया आई है
उसके घर।

बस निहारती रहती है
उसका फूल सा
गुलाबी चेहरा
क्योंकि अब
वही हो गया है
दर्पण उसका ।

Monday, October 4, 2010

जन्म-दिन

कल
तुम्हारा .
जन्मदिन है,
बहुत खुश था मैं
यह सोचकर।


सोचा था
तुम्हारी मम्मी के साथ

जाऊंगा बाजार
बर्थ-डे-केक लाऊंगा,

साथ ही लाऊंगा
ढेरों गिफ्ट
पूरे घर को सजाऊंगा

तुम्हारे लिए।


पर,
मेरी विवशता तो देखो

बाजार तो गया,
मगर,

न बर्थ-डे केक

ले पाया,

न ही गिफ्ट
तुम्हारे लिए.
क्योंकि जेब में
उतना पैसा नहीं था,
नया-नया मकान
जो बनाया था.

इसलिए ले आया था
कुछ पेस्ट्री,
कटा-कटाया केक
कह लो,
तुमसे ही कटवाया था
उसे
एक बार फिर
तुम्हारा मन बहलाने को ,

क्या करता मैं?

दुनियांदारी के भंवर में

जो फंसा था ,
जीवन मेरे लिए
"नीरस विवशता" के सिवा

कुछ और नहीं रह गया था ।

सच कहूँ तो मेरा शरीर
दायित्व से दबा था ,

और मन दबा था
वादा पूरा न कर पाने के
बोझ तले.

लेकिन जनता हूँ
ये दिन भी निकल जायेंगे
और दिन की तरह,
निकल आएगा सूरज
बादलों की ओट से ।

एक दिन