खोखले हो रहे हैं शब्द,
इन्सान हो या शहर
सब खो रहे हैं अपना अर्थ,
अपना असर.
कोई नहीं दिखता है
अपने नाम सा,
कोई नहीं दिखता
किसी काम का.
शब्द हैं असहाय,
नहीं झांक पाते अपने भीतर
सूर और तुलसी बनकर,
नहीं दे पाते
प्रेम और भक्ति का सन्देश
राधा और मीरा बनकर.
शब्द
जो गढ़ा गया था कभी
जीवन के लिए,
प्यार के लिए,
नहीं रह गया है
भावों का,
विचारों का वाहक़ ,
नहीं रह गया है
अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतीक,
हो गया है पर्याय
झूठ का,दहशत का, फरेब का,
खड़ा है आज चौराहे पर
प्रतिष्ठा का पहरुआ बनकर.
कभी खींची गई होगी
शब्दों से मर्यादा की रेखाएं
सफल ,सुखद जीवन के लिए,
पर, कहाँ बढ़ पाई
समय के साथ इसकी लम्बाई,
बनकर रह गई
प्रथाओं की लक्षमण-रेखा
जिसने भी लांघी
जलकर खाक हो गया.
आज शब्द नहीं है राम,
शब्द हो गया है रावण
शब्द हो गया है कंस,
कहीं जुए में हारता युधिष्ठिर,
कुटिल मुस्कान लिए शकुनी,
कहीं चीरहरण में व्यस्त दुशासन,
कहीं द्रौपदी की असहायता पर
ठहाके लगता दुर्योधन.
आज शब्द हो गया है
स्वतंत्र,
स्वछन्द और निरंकुश.
आज तो बस
हर तरफ शब्द है,शरीर है,
आत्माहीन,उद्देश्यहीन ...........,
चारो तरफ कोलाहल है,
महाभारत सी भीड़ है.
शब्दों में
कहीं नजर नहीं आती
उम्मीद की लाली
उगते सूरज की,
नहीं दिखती है इसमें
चाँद की शीतल चांदनी ,
बस दिखता है
घना अँधेरा चारो ओर....
अब
एकबार फिर
नए सिरे से जुटाएँगे
ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे
बहुत सुन्दर आह्वान्……………शब्द ही अपना बनाते हैं शब्द ही पराया……………शब्दो की महिमा अनन्त है……………सुन्दर रचना।
ReplyDeleteवाह, राजीव ज़ी,
ReplyDeleteएकदम सटीक!!
अब
एकबार फिर
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ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे
सुज्ञ: ईश्वर डराता है।
बेहद खूबसूरत कविता.... जीवन के खोखलेपन को दर्शाती....
ReplyDeleteअब
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ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे
bahut khoob.......thanks.
अब
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नए सिरे से जुटाएँगे
ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे
फिर से नए सृजन का आवाहन करती हुई खुबसूरत रचना |
अब
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ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे
....... hausla hai to raaste hain aur jeet hai
यहां राहत तो है.
ReplyDeleteजब खोखले पेट में दाना न हो.दिमाग का खून भी भी पी लिया हो शरद पवार जैसे कुकर्मियों ने तब शब्द कैसे निकलेंगे मधुर रस से भरे ये गंभीर सवाल है...? बहुत ही दर्दनाक अवस्था है इंसानियत की तथा शब्दों की मर्यादा की...
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत कविता|
ReplyDeleteअब
ReplyDeleteएकबार फिर
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ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे....
बहुत प्रेरक प्रस्तुति..आज शब्द खोखले हो कर रह गये हैं और अपनी महत्ता खो चुके हैं. बहुत ख़ूबसूरत रचना
अब
ReplyDeleteएकबार फिर
नए सिरे से जुटाएँगे
ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
खूबसूरत परन्तु गंभीर कविता. पर सच्चाई को कब तक नकार सकते है.
शब्दों की भरमार है मगर भाव नहीं है ...
ReplyDeleteमगर इन्हें एकजुट कर फिर से जीवित करनी की उम्मीद नयी है ...
सार्थक सन्देश !
ब
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ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे
बेहद खूबसूरत शब्दों का संगम है इस अभिव्यक्ति में ।
अब
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नए सिरे से जुटाएँगे
ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे ..
sahi hai sir...shabd hi sab kuchh kar pate hain
apne shabd...
hamare shabd hi hame khushi dete hain...aur dard bhi...!
behtareen rachna.........
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteआभार,
हरीश गुप्त
शब्दों में
ReplyDeleteकहीं नजर नहीं आती
उम्मीद की लाली
उगते सूरज की,
नहीं दिखती है इसमें
चाँद की शीतल चांदनी ,
बस दिखता है
घना अँधेरा चारो ओर.... shabdo ki bheed me shabd khokhale ho gaye hai...sunder rachana ...
आदरणीय राजीव ज़ी
ReplyDeleteनमस्कार !
शब्द हैं असहाय,
नहीं झांक पाते अपने भीतर
सूर और तुलसी बनकर,
नहीं दे पाते
बेहद खूबसूरत कविता.... जीवन के खोखलेपन को दर्शाती...
Shabdon meomn naye bhaav pirone ka vaqt aa gaya hai ... bhut hi lajawaab ra hna ...
ReplyDeleteबड़ी ही सशक्त कविता।
ReplyDelete"खोखले हो रहे हैं शब्द,"
ReplyDeleteबस इसके आगे कुछ कहना मुनासिब नहीं है....!!
सशक्त कविता।
अब
ReplyDeleteएकबार फिर
नए सिरे से जुटाएँगे
ढेर सारे खोखले शब्द,
भरेंगे उनमें नए भाव,नए अर्थ,
सींचेंगे उन्हें संस्कार जल से धीरे-धीरे
जीवन-मूल्य के नए पौधे उगाएंगे .
रिश्तों का सहारा देकर
बरगद सा बड़ा और छायादार बनायेंगे
राजीव जी,
सबसे पहले आपसे मुलाकात करके बहुत अच्छा लगा. आपकी कविता के भावों से लगता है की ये सकल्प सभी को लेना होगा. अपने अर्थ खो चुके शब्दों को फिर से परिभाषित करना होगा और उनमें नई शक्ति और भाव लाने होंगे.