Friday, April 30, 2010

वहम

नवजात
शिशु सा
खेला
तुम्हारी गोद में ,
तुम्हारी ऊँगली पकड़
पला-बढ़ा।
देखते ही देखते
तुम्हारी नजरों के सामने
हो गया बड़ा ।
पर, रुका नहीं
हमारी तरह ,
बढ़ता ही रहा,
बढ़ता ही रहा ,
और
विकराल हो गया ।
अब यह
हर रोज
डराएगा तुम्हें ,
तुम्हारे रातों की
नींद उड़ाएगा ,
छीन लेगा
दिन का चैन
क्योंकि
यह वहम है
तुमने ही पाल-पोस कर
बड़ा किया है
जिसे ।






Thursday, April 29, 2010

ठहरा हुआ बचपन

गाँव में
आज भी निकलता है
चाँद ,
अँधेरी रात
जगमगाती है
जग-मग करते
जुगनुओं ,
झील-मिल
सितारों से ,
पूरब की ओट से
ांकता सूरज भी है
और साथ में है
ठहरा हुआ
हमारा बचपन ।

सुबह-सबेरे
दादाजी की ऊँगली पकड़
कंधे पे बस्ता ,
हाथ में चटाई लिए
स्कूल जाता
बचपन ।

मास्टर जी से
आँख बचाकर
ईमली के पेड़ से
ईमली चुराता
और फिर
मास्टर जी से
मार खाता ,
उनकी छड़ी छुपाता
बचपन ।

खेतों की मेड़ों पर
दौड़ लगाता ,
हरियाली में
घुल-मिल जाता ,
तितलियों के पीछे भागता ,
कबूतरों को दाना चुगाता,
नदी की रेत पर
घरौंदा बनाता बचपन

मेले में जाने की
जिद करता ,
गुब्बारे के लिए मचलता ,
सपनों से लबरेज
सच के काफी करीब था
बचपन ।

तालाब के किनारे
खड़े-खड़े
एक छोर से
दूसरे छोर तक
पानी पर
पत्थर के टुकड़े
तिराता बचपन।

ये बचपन ही तो था
जो किसी की गोद में ,
किसी के कंधे पर
चढ़ा होता था ,
पापा की मार से
बचने के लिए
मां के आँचल में
छुपा रहता था ।

ये बचपन ही तो है
जो आज भी मन को
गुदगुदाता है ,
अतीत में ले जाकर
यादों के पालने में
झुलाता है ।

आज हम बड़े हो गए हैं,
पर आज भी
पूरी शिद्दत से
ठहरा हुआ है बचपन
हमारी यादों में ।




Tuesday, April 27, 2010

शब्द मेरी पहचान

शब्द से
मैं ,
मेरे भाव ,
शब्द
मेरी पहचान,
शब्द
मेरा सपना ,
शब्द
मेरी कल्पना ,
शब्द ही
मेरी उड़ान,
शब्द
मेरा सच ,
शब्द से ही
मेरा सारा ज्ञान ,
शब्द
मेरी धरती,
शब्द
मेरा आकाश ,
शब्द
घना अँधेरा ,
शब्द ही
सूर्यप्रकाश ।
शब्द में
सारे रिश्ते ,
शब्द
मेरा विश्वाश
शब्द
मेरी दृष्टि ,
शब्द
मेरी सांस ,
शब्द
मेरा ईश्वर
शब्द ही
ब्रह्माण्ड ।


Monday, April 26, 2010

तुम

तुम
एक अनदिखी
कड़ी
हम सबको
जोडती सी ,
तुमसे ही
श्रंखला
संबंधों की ।
तुमसे ही
सतरंगी
हमारा जीवन ,
चाँद की चांदनी
तुम्ही से ,
सितारों की झील-मिल
तुम्ही से ।
तुमसे ही उजाला
उम्मीद के सूरज का,
तुमसे ही
महकता सबेरा,
चमकती दोपहरी ,
मोहक ढलती शाम
तुम्ही से ।
हमारे कण-कण में
तुम्हारा प्यार ,
तेरी व्याप्ति ,
तेरा विस्तार ।
तेरे बिना
हमारा जीवन
एक बिखरा घर,
एक डरावना
स्वप्न
तुम
हम सबका
जग-मग जीवनदीप ,
लेकिन
मैं अब भी
तुम्हें नहीं समझ पाया ,
समझ पाया
तो बस
तेरा प्यार,
तेरा समर्पण ,
तेरा त्याग,
तेरा बलिदान।

एक पेड़ की याचना

मुझे
मत काटो ,
मत मारो
मुझे ।

मैं रहता हूँ
सदा
तेरे साथ।
मैं तुम्हें
ढेर सारी छांव दूंगा ,
ओढ़ लूँगा सूरज को
जेठ की दोपहरी में ,
एक अच्छी सी ठांव दूंगा ।

साथ ही दूंगा
जीवन दायिनी हवा ,
भेजूंगा संदेशा
बादलों को ,
बुलाऊंगा उन्हें
तुम्हारे घर ,
कहूँगा
आँगन में बरस जाने को ,
तुमें सराबोर कर जाने को।

ढेर सारे
फल दूंगा
तुम्हें
खाने को ,
नहीं मांगूंगा
कोई प्रतिदान ,
मान ,
सम्मान ।
बस
देदो मुझे
एक
जीवनदान ।






Friday, April 23, 2010

कैसी कविता लिखूं आज मैं

मैं रांझे की हीर लिखूं
या सीरी का फरहाद लिखूं,
या फिर जाकर ताजमहल में,
शाहजहाँ का प्यार लिखूं ,
कैसी कविता लिखूं आज मैं ।

आज चांदनी रात लिखूं
या तारों की बारात लिखूं ,
कल-कल बहती नदी लिखूं
या हरियाली की बात लिखूं,
कैसी कविता लिखूं आज मैं

मीठे से कुछ बोल लिखूं
या फिर जीवन अनमोल लिखूं ,
पल-भर की बरसात लिखूं
या जलते जेठ की बात लिखूं ,
कैसी कविता लिखूं आज मैं।

जीवन के कुछ पन्ने पलटूं
या जीवन के साथ चलूँ ,
या फिर ले लूँ कलम हाथ में
पीछे (बचपन) की कुछ बात लिखूं ,
कैसी कविता लिखूं आज मैं ।

मुंबई का इतिहास लिखूं
या फिर समुद्र की बात लिखूं ,
या फिर तट पर खड़े-खड़े
सूरज का अवसान लिखूं ,
कैसी कविता लिखूं आज मैं ।

जन-जन की मैं बात लिखूं
या दहशतगर्दी की बात लिखूं ,
या फिर उनकी बात लिखूं
जो हमसब की हैं जान बचाते,
कैसी कविता लिखूं आज मैं ।


Thursday, April 22, 2010

सृजन का सुख

तुम मिली ,
मैं पूरा हुआ ,
सृजन का स्वप्न
हुआ साकार ,
धरती पूरी हुई ,
पूरा हुआ आकाश ।
ख़ुशी है
अपनी दुनियां
बसाने की,
बस गम है
"उनसे "
बिछड़ जाने का।
मैं इस सच से
मुंह मोड़ नहीं सकता ,
तुझसे नाता
तोड़ नहीं सकता ।
मेरा निष्कासन
बन गया
तुमसे मिलन का साधन,
और मिला
सृष्टि-सृजन का सुख,
सुअवसर ,
और मिला
जीवन-चक्र ।
मेरा अतीत
मेरे साथ नहीं ,
कोई बात नहीं ,
"उनका" प्यार
मेरे साथ नहीं ,
कोई बात नहीं ।
तुम्हारे प्यार के सहारे
जी लूँगा ,
करूंगा सृजन का स्वप्न
साकार ,
ढूंढ़ लूँगा
तेरे मनुहार में
"उनसे" बिछड़ने के दुःख
का पर्याय ।
आंसू नहीं बहाऊंगा,
नहीं करूगा फरियाद,
मुझे अकेलापन नहीं ,
तुम्हारा साथ चाहिए ,
मुझे स्वर्ग नहीं ,
सृष्टि का संचार चाहिए ।
भूलकर अपना अतीत
नयी दुनियां बसाऊंगा ,
जीऊंगा वर्तमान में
सृजन का जश्न मनाऊंगा ।

दिल कि बात

चाँद-सितारों तक
सिमटकर रह जाती थी
मेरी बात।
मुझे तो चाहिए था ,
बस तुम्हारा साथ ।
तमन्ना थी
तुम रहो पास
पल-दो-पल,
यादों में समेटकर
रख लूं तुम्हें ,
आँखों में बसा लूं
तेरी तस्वीर,
उसके सहारे ही
कट जायेंगे
मेरे दिन और रात ।
चाँद-सितारों तक
सिमटकर रह जाती
है
मेरी बात।

Wednesday, April 21, 2010

नई दुनियां बसा लेंगे

कौन कहता है मन में उमंगें नहीं मारती हिलोर,
कौन कहता है बरसात में नहीं नाचता मन-मोर।

बस एक बार पावस की फुहार बन आ जाओ ,
एक बार रिमझिम के मीठे गीत सुना जाओ,
रेगिस्तान में भी लहलहाती फसल उगा देंगे,
नदियों की कौन कहे समंदर में भी तूफान उठा देंगे ।

जब भी फुर्सत हो मेरी यादों में आ के बस जाना ,
मेरे सपनों को अपने अरमानों से सजा जाना ,
तुम रहो-न-रहो मेरे पास कोई बात नहीं,
सारी जिंदगी पलों में काट जायेंगे ।

मुझे आज भी तेरे आने का इन्तजार रहता है,
मेरा दिल आज भी तुमसे मिलने को बेकरार रहता है,
अब भी अरमान है कि तुम रूबरू मेरे हो जाओ ,
आना गर मुनासिब न लगे तुमको अपने खयाल दे जाओ।

गर मिली जमीन तो आसमा बना लेंगे ,
खुदी रही तो अपना खुदा बना लेंगे,
बस एकबार तेरा साथ मुझको मिल जाये ,
अपनी एक अलग दुनियां बसा लेंगे ।

कैसी दुनियां

जीवन सच एक
लेकिन जीवन के रंग अनेक ।

कहीं भूख से बिलबिलाता बचपन ,
प्यास से तड़पते लोग
तो कहीं स्विमिंग पूल में नहाते ,
जश्न मनाते, इतराते लोग।

कहीं दर्द एक लम्बी दास्तान,
मुसीबत सामने खड़ी सीना तान ,
वहीँ दूसरी ओर
बियर में डूबते-उतराते,
पार्टियों में मौज मनाते लोग ।

कहीं अफ्रीका का इथियोपिया ,
कहीं एशिया , कहीं यूरोप ।
कहीं जीवन रोग ,
कहीं जीवन भोग ।

कहीं भूख से उबलकर बाहर आती आँखे,
कातर नजरों में उम्मीद लिए लोग ,
वहीँ समंदर पर दौड़ लगाते,
सूरज में नहाते लोग ।

कहीं हाथों में कटोरा लिए लोगों की लम्बी कतार,
कही खानेवाला नदारत ,
गोदामों में सड़ता अन्न का भंडार।

कहीं भीख मांगकर गुजारा करते लोग,
कहीं भीख देकर इतराते लोग,
कहीं पोषण अपार ,
कहीं कुपोषण की भरमार ।

कहीं चूल्हे के पास सिमटा
पूरा परिवार ,
कहीं किचेन फाईव स्टार।

कहीं भूकंप,भुखमरी ,बेकारी ,
कहीं सरेआम अन्न की कालाबाजारी,
कहीं मांस का ढेर लगता शरीर ,
कहीं हड्डियों के ढांचे पर टिका शरीर ।

कही टुकड़ों पर पलता बचपन,
कहीं टुकड़ों पर लेटा बचपन,
कहीं फाईव स्टार स्कूल जाता बचपन ,
कहीं स्कूल के ख्वाब सजाता बचपन।


कहीं गरीबी ढोती अपना नंगा बदन ,

कहीं अमीरी नाचती नंगा नाच ,

हमाम में सब नंगे हैं ,सच है ,

बस कारण अलग-अलग हैं ।

कहीं गरीबी में फटा कपड़ा ,

कहीं फैशन में घटा कपड़ा।

कहीं झोपड़ों में दिन काटते लोग ,

कहीं महलों की शोभा बढ़ाते लोग ।

कहीं गोद उठाते लोग

कहीं गोद उजाड़ते लोग ।

कैसी है ये दुनियां !

शायद ऐसी ही है दुनियां।

Tuesday, April 20, 2010

नींव की ईंट

मैं
नींव की ईंट
बना,
पड़ा रहूँगा चुप-चाप
धरती के सीने में दफ़न
अनजानी सी पहचान लिए
ताकि तुम
गगनचुम्बी इमारत
बन सको,
ऊँचा ,बहुत ऊँचा
उठ सको।
लोग देखेंगे तुम्हे ,
सराहेंगे तुम्हारा कद ,
तेरा सौंदर्य !
औरों की तरह
तुम्हें भी याद नहीं आऊंगा
नींव के नीचे पड़ा मैं
क्योंकि नजर से दूर रहकर
तेरे दिल में
नहीं बस पाउँगा मैं ।
यह सच है ,
और
उतना ही शाश्वत और चिरंतन
जितना सूरज ,चाँद ,सितारे ,
धरती और आकाश।

Monday, April 19, 2010

कवि और कविता

कविता कवि की जान है,
उसका ईमान ,
उसकी कल्पना ,
उसके मन की उडान है ।

कविता ही उसका सच ,
कविता ही उसका मान ,
कविता ही उसकी पहचान है।

कविता ही उसका इष्ट ,
कविता ईश्वर साकार ,
कविता से ही वह,
कविता उसका पर्याय ।

कविता उसका जीवन-आधार,
कविता से उसका जनाधार
कविता कहीं गंगा ,
कहीं यमुन-धार ,
कहीं निर्झर अविराम ,
कहीं गगन निराकार ।

कविता पूरनमासी का चाँद ,
कवि उसका चातक,
कवि उसका चकोर ,
कविता उमड़ता बादल ,
कवि नर्तक मयूर ।

कविता फूलों की बगिया
कवि उस बगिया का माली ,
कविता क्षितिज की लाली ,
खेतों में फैली हरियाली ,
कवि उस खुशहाली का सूत्र-धार।

कवि हर-पल एक पात्र,
कविता उसके मन की बातें ,
कविता उसकी कहानी ,
उसी की जुबानी ।

Friday, April 16, 2010

शब्द

शब्द
शरीर ,
भाव
उसका मनप्राण ।

शब्द
समेट लेते हैं
भावों को
अपने-आप में ।
समयातीत
बना देते हैं उन्हें
स्वयं में सहेजकर ।

शब्द
हैं बाँध
जो भावनाओं के असीमित प्रवाह को
बाँध लेते हैं
अपनी सीमाओं में
और
मर्यादित कर उसे
यादगार बना जाते हैं ।

शब्द
है ताजमहल ,
एक प्रेम-कहानी है
जिसमें ठहरी हुई ।

Thursday, April 15, 2010

महानगर

यहाँ की सडकें चौड़ी-चौड़ी,
अट्टालिकाएं ऊँची-ऊँची,
यहाँ पर नाले नदियों जैसे,
नदियाँ सूखी- सूखी।
लोग चलते हैं यहाँ
मगर रवानी नहीं होती,
लोग पलते हैं
मगर बचपन नहीं होता,
लोग बढ़ते हैं
मगर जवानी नहीं होती ।
लोग सोते हैं यहाँ
मगर आँखों में नींद नहीं होती ।
यहाँ बस भूख होती है ,भूख ,
प्यास से गला सूखता है ,
क्योंकि यह महानगर है,
जहाँ सन्नाटा पसरा है भीड़ में
और
एक अजनबीपन छाया है
लोगों के बीच में ।

क्यों होता है ऐसा ....

जब कभी
आ बैठता हूँ तेरे साथ
तो दिन ,महीने ,साल
एक पल में गुजर जाते हैं ।

जब कभी रहता हूँ
तुमसे दूर
पल सदियों में बदल जाते हैं ।
क्यों होता है ऐसा
मेरे साथ
कोई तो बता दे ..........

Monday, April 12, 2010

एक किनारे की नदी

अचानक .........
छोड़ गई तुम मेरा साथ,
बुझा गयी अपना जीवन दीप,
बिना कुछ कहे,
बिना कुछ सुने
कर गयी मेरे जीवन में
कभी न ख़त्म होनेवाला
अँधियारा .........

जन्म-जन्मान्तर के लिए थामा था
तुमने मेरा हाथ ,
वेदी पर बैठ खाई थी कसमें
संग जीने ,संग मरने की ।

इतनी भी क्या जल्दी थी,
ऐसी भी क्या थी बात ,
जो मुझे छोड़ गयी -जीवन के दोराहे पर
यादों के अंतहीन सुरंग में
आखिरी सांस तक
भटकने के लिए ।

क्या करूंगा
ऐसा नीरस और निरर्थक जीवन
जिसमें तुम नहीं ,
तुम्हारा साथ नहीं
कैसे कटेगा दिन,
कैसे कटेंगी रातें
तेरे बिना!

हर पल-हर क्षण
याद आएगी तू,
तेरे साथ कटा जीवन,
तेरे साथ बटी बातें ,
घर के भीतर,घर के बाहर ,
हर जगह, हर- वक्त,
बस तू ही नजर आएगी ,

तेरा जाना
किसी भूचाल से कम नहीं
मेरे लिए ,
जिसने सारी आशाएं,
सारे अरमान धराशायी कर दिए मेरे ,
तोड़ दिए सपने सुहाने ,
जो देखे थे हमने साथ बिताने के ।

बेसहारा कर गयी मुझे
जब सहारे की जरूरत थी ।
तेरे बिन ठहर गई है रातें ,
ठहर गया है दिन ।

तेरा जाना........
सुनामी बन जायेगा
मेरे जीवन का
कभी सोचा ना था

और
मैं बनकर रह जाऊँगा
यादों की उछाल लेती लहरों पर

तैरती
जिन्दा लाश ।


दो किनारे थे हम - मैं और तुम ,
एक नदी के ।
एक किनारे की
नदी नहीं होती।

डंक मारते हैं बिच्छू की तरह ,
डसते हैं नाग सा ,
भर देते हैं जेहन
यादों के जहर से ।


तुम्हारी यादें
मुझे चैन से जीने नहीं देंगी ,
हर-पल झपट्टा मारती रहेंगी मुझपर,
चील-कौवों की तरह
और
नोंच -नोंचकर खाती रहेंगी
मेरे अस्तित्व को ,
खोखला करती रहेंगी
मेरा तन- मन

समय
ये घाव
कभी नहीं भर पायेगा ,
नहीं लगा पायेगा कोई मरहम,
मेरे जख्मों पर ।

कोई और नहीं ले पायेगा
तुम्हारी जगह
हर जगह
तुम-ही-तुम नजर आओगी मुझे,
हर-पल गूंजेगी मेरे कानों में
तेरी आवाज ,
हर-पल याद आएगा
तेरा साथ ।
कैसे भागूँगा
इस हकीकत से ,
उस हकीकत से ।

बच्चों में नहीं ढूंढ़ पाऊंगा
तेरा पर्याय ,
भीड़ में रह जाऊंगा,
बेहद अकेला।
रह जाएँगी मेरे साथ
ढेर सारी यादें
मेरे जाने तक
रुलाने के लिए , गुदगुदाने के लिए ...........








Friday, April 9, 2010

छोटी सी मस्ती

सुबह-सबेरे मम्मी आती,
मम्मी आती, मुझे जगाती।
जब न उठता आँख दिखाती ,
आँख दिखाकर डांट पिलाती।
झुंझलाकर वह वापस जाती , ,
पापा को संग लेकर आती।

पापा आते, मुझे जगाते
इधर-उधर मैं करवट लेता,
-ऊं करता फिर सो जाता ,
पापा फिर भी प्यार जताते।

मेरी हरकत न सह पाती ,
मम्मी गुस्से से भर जाती ,
फिर वो कहती-"मार पड़ेगी"
पापा कहते-"क्योंकर भाई" ।

राजा बेटा अभी उठेगा,
उठकर के स्कूल चलेगा,
पढ़-लिख कर कुछ बड़ा बनेगा ।

पड़ा-पड़ा मैं सुनता रहता,
पर उठने का नाम न लेता,
तब मम्मी भीतर से आती ,
मुझको अपने गोद उठाती ,
ब्रुश करवाती,
ब्रुश करवाती, फिर नहलाती,
बातें कह- कहकर बहलाती ।

मैं तो उनकी एक सुनता,
रोता जाता और चिल्लाता,
और कहो मैं क्या कर पता ?
रो-रो कर मैं ड्रेस पहनता,
अपने मोज़े - शूज पहनता।

पापा आते, गोद उठाते ,
गोद में लेकर बस तक जाते,
बस कंडक्टर नीचे आता ,
हाथ पकड़ अंदर ले जाता,

पापा वापस घर को जाते ,
मैं गुम-सुम स्कूल को जाता।
वहां पहुँच मैं खुश हो जाता,
दौड़-दौड़ कर उधम मचाता ,
टीचर मैडम बाहर आती ,
हंसकर मुझको डांट पिलाती ,
कक्षा में वापस ले जाती ,
टाफी -चाकलेट खूब खिलाती ,
अच्छे -अच्छे गीत सुनाती ,

डेढ़ बजे जब छुट्टी होती ,
दौड़ सभी बस में चढ़ जाते ,
बस जब मेरे स्टैंड पर आती ,
धमा -चौकड़ी सी मच जाती ,
कूद-कूद हम नीचे आते ,
नीचे आकर दौड़ लगाते ।

मम्मी फिरसे आँख दिखाती ,
आँख दिखाती, डांट पिलाती ,
फिर जल्दी से गोद उठाती ,
चूम-चूम कर खुश हो जाती ।

ख़ुशी-ख़ुशी घर को ले आती ,
लड्डू- पेड़े मुझे मुझे खिलाती ,
बस्ता लेकर संग बिठाती ,
खुद पढ़-पढ़कर मुझे पढ़ाती ,
होमवर्क सारा करवाती ।

सूरज जब छिपने को आता ,
चुपके से मैं बाहर आता ,
बच्चों के संग रेस लगाता ।
खेल-खेलकर जब थक जाता ,
मैं घर जाता और सो जाता,
मीठे सपनों में खो जाता।












Monday, April 5, 2010

भीड़

भीड़ ,
निगल जाती है
सुरसा कि तरह
अवसरों को ,
बढ़ा देती है
मांगों को ,
लगा देती है
आवश्यकताओं का ढेर ।

भीड़
तोड़ देती है
उम्मीदों को ,
बिखेर देती है
संजोए सपनों को ।

भीड़
आंधी कि तरह
झकझोर कर रख देती है
जीवन मूल्यों
और
संस्कारों को ।

भीड़
अनदेखा कर गुजर जाती है
स्थापित मानदंडों को ,
मान्यतों को ।

भीड़
बढ़ जाती है आगे
ठुकरा कर
भावों को,
भावनाओं को ,
और
बना देती है
अपनों को बेगाना ।

भीड़
नहीं देखती
बचपन,
जवानी ,
बुढ़ापा
क्योंकि
भीड़ तो बस भीड़ है
कोई दिशा नहीं होती,
इसका कोई लक्ष्य नहीं होता ।