Wednesday, March 31, 2010

परबतिया-परायेपन का ठहरा हुआ सच

मैं , परबतिया,
परायेपन की सोच से पैदा हुई ,
परायेपन के सच के साथ,
उसी माहौल में पली बढ़ी ,
परायापन हावी रहा ताउम्र ,
हमपर , हमारे परिवार पर।

सबको मिला दूध, मुझे दूध का पानी,
यह एक सच है, कड़वा सच !
आखिर बेटी जो ठहरी , मैं
बेटी तो 'परायाधन ' होती है।

परायेपन के अपनेपन में कब मायका छूटा ,
माँ-बापू के साथ जीने का भरम टूटा ,
कब अपने गुड्डे -गुड़िया को छोड़
बिखरे सपनो के संग ससुराल गई
पता ही नहीं चला!

परायेपन की कोख से ही फिर बचपन फूटा ,
मेरे भीतर बहुत कुछ बिखरा, बहुत कुछ टूटा ,
एक बार फिर मेरा बचपन,
मेरी गोद में ठहर गया ।

उसकी आँखों में ढूँढती रही
अपने बिखरे सपने ,अपना बचपन ,
अपना किलकता अतीत ,
पर वहां खालीपन के सिवाय कुछ नहीं था ,
कुछ भी तो नहीं ।
बस एक झोपड़ी और हम तीन ,
अपनों के बीच परायों कि तरह जीते हुए ।

लेकिन मैंने सोच लिया है
उसके बचपन को दूंगी जवानी ,
उसके सपनो को दूंगी उड़ान,

अब मैं परायेपन के अहसास तले नहीं जीऊँगी।
अपने मरद को समझाउंगी
बर्तन माजूंगी, पोछा लगाउंगी
मगर अपनी बेटी को ' खूब पढ़ाउंगी' ,
उसे खड़ा कराऊंगी अपने पैरों पर
ताकि उसकी हो अपनी अलग पहचान ।

परायेपन के पालने में नहीं झुलाऊँगी उसे ,
पालूंगी अपनेपन के साथ ,
अपने-पन के लिए ।







Sunday, March 28, 2010

अजनबीपन

जब कभी भी किसी नई जगह जाओगे ,
स्वयं को अपनों से दूर
नए लोगों के बीच पाओगे ,
और पाओगे एक घुटन-भरा अजनबीपन,
अपने चारो ओर, सन्नाटे की तरह पसरा हुआ ,
कौतूहल जगाता हुआ ।
समय और स्थान ,
सब कुछ नया लगेगा , अजीब लगेगा ,
धरती और आसमान भी लगेगा बदला-बदला सा ।
बहुत बैचन करेगा ये नयापन,
ये बदलाव ,
कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा ,
कुछ भी तो नहीं।
पर अगले ही पल से अजनबीपन का दायरा घटने लगेगा ,
धीरे धीरे अपने आप में सिमटने लगेगा ।
लोगों का कौतुहल , परायापन
अपनेपन में बदलने लगेगा ।
ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है,
तेरे साथ - मेरे साथ,सबके साथ ।
अपना समझने का " पन" ही तुम्हे
औरों से जोड़ेगा
लयबद्ध विकास के पथ पर मोड़ेगा
"अजनबीपन" से ही अपनेपन की शुरुआत होगी,
घबराना मत,
इसे हँसकर गले लगाना।




Monday, March 22, 2010

पुनर्मिलन

जब - जब मैं टी वी के सामने बैठता हूँ , पापा
और घडी रात के ८.४० बजाती है
और समय होता है समाचार का
आपके साथ मैं बैठता हूँ
आप देखते हैं समाचार, मैं भी देखता हूँ ,
मैं देखता भी हूँ, सोचता भी हूँ
समाचार खत्म होते ही माँ आकर आगे बैठ जाती है
"सास-बहू" सीरिअल शुरू होने वाला है
आप खा भी रहे है और देख भी रहे हैं,
संतोष आँगन में खाट डाले पड़ा है,
पड़े - पड़े देख रहा है
पुष्पा रसोई बना रही है
"आप भी खा लीजिये ना ", वह वहीं से बोलती है।
"अभी ठहरो, थोड़ी देर बाद खा लूंगा , इतनी जल्दी भी क्या है ?"
"कहीं चले मत जाइयेगा, आपकी तो आदत ही ऐसी है"
राजा बेटा, वैसे मत करो
देखो, नहीं मानोगे तो मार खाओगे
तभी पिताजी उसे गोद में उठा लेते हैं -
"प्यार तो करोगे नहीं, सिर्फ मारने की बात करोगे "
"आप समझते क्यों नहीं पापा , इसकी आदत ख़राब हो जायेगी,
मैं जब भी उसे डांटता हूँ , आप उसे पुचकारने लगते हैं "
पुष्पा भी मुझ पर ही गुस्सा हो रही है
और मैं पुनः टी वी में खो जाता हूँ
अब अंगरेजी का समाचार आ रहा है
"हेडलाइंस अगेन " के साथ समाचार खत्म होता है,
तब अचानक याद आता है कि आप लोग मुजफ्फरपुर में हैं
और मैं " पुरुलिया " में ।
मिलकर बैठने की ख़ुशी और बिछड़ने का गम साथ लिए ।


दिल और दीया

जलने के लिए ही बना है

दिल और दीया ,

जलना ही उनकी नियति है ,

जलना ही उनकी प्रकृति है,

एक जलकर रौशन हो जाता है ,

सबको रौशन कर जाता है ,

एक जलकर इन्सां हो जाता है ,

क्योंकि

औरों का दर्द समझता जाता है।

Thursday, March 18, 2010

यमुना

मृत्यु शैया पर लेटी यमुना
जीवन मांग रही , जीवन
ताकि जीवनदान दे सके ,
गौरव और अभिमान दे सके ,
पर कोई उसे "संजीवनी " नहीं देता,
नहीं देता उसे उसकी "धार"
सोचते सब हैं, मैं भी और तुम भी
पर कर कुछ नहीं पाते
कुछ करना चाहते भी नहीं
बस सोचते रहते हैं ,सोचते रहते हैं........
उसकी विशालता से सब घबराते हैं
शरीर माँ का हो या नदी का
विशाल तो होता ही है
तभी तो पलती हैं जिंदगियां
उनकी कोख में
अठखेलियाँ करती है
उसकी गोद में ।
पर कब तक !
आखिर कब तक
कलकल करती यमुना की तस्वीर निहारेंगे ?
कबतक उसकी विशाल काया से घबरायेंगे ?
कब तक करेंगे इन्तजार
उसके स्वयं ठीक हो जाने का
मृत्यु शैया से उठ आने का ।
आओ , कुछ करें की यमुना बच जाए
और मिल जाये हम सबको नया जीवन .......

Friday, March 12, 2010

आओ बच्चों कुछ कर जायें

जंगल सारे उजड़ रहे हैं
पर्वत सारे बिखर रहे हैं
सूख रहे हैं निर्झर सारे
धरती का सीना है छलनी
इस धरती की जान बचाएं
आओ बच्चों कुछ कर जायें

चलो आज से पेड़ लगायें
चहुँ ओर हरियाली लायें
जामुन, नीम और आम लगायें
जेठ माह सावन बन जाए
आओ बच्चों कुछ कर जायें

इतने पेड़ लगाएं हम सब
जंगल में भी होगा मंगल
भालू, चीते, शेर भी होंगे
बस उनकी तस्वीर ना लायें ।
आओ बच्चों कुछ कर जायें ।

बाग़ बगीचे अब लहरायें
फूलों से बचपन भर जाये
आने वाला कल का सूरज
और अधिक रोशन हो जाये ।
आओ बच्चों कुछ कर जायें

गावों में भी अलख जगाएं
खेतो में फसले लहराए
बादल को संदेशा भेजें
गागर में सागर भर लाये ।
झमझम कर बरसे आँगन में
धरा धाम को तर कर जाये ।
आओ बच्चों कुछ कर जायें

स्वच्छ रहें और स्वच्छ बनायें
कचरों को अब ना फैलाएं
नालों की हम करें सफाई
नदियाँ भी जीवन पा जाएँ
जीवन में खुशहाली छाये
आओ बच्चों कुछ कर जायें





अहसास

पा लिया है तुम्हें
लेकिन खो दिया है तुम्हें न पाने का डर
जो हमारे मन को हर पल डराता था,
तरसाता था , तड़पाता था ,
मंझधार में फंसें मन को
आशा और निराशा के हिंडोले पर झुलाता था ।
तेरे आने की बात मन को गुद-गुदाती थी ,
तेरे न आने का ख्याल और अपनी बेबसी का एहसास
अजीब सी तड़प छोड़ जाते थे ।
सपनों के संसार संजोए थे हमने ,
जहाँ हम थे,तुम थे बस ।
तेरे आते ही सब टूट गए
ख़त्म हो गई बेकरारी ,ख़त्म हो गया इन्तजार
पर निराश नहीं हैं हम ।
हमें मिल गया है तेरा क्रन्दन
मिल गयी है तेरी मुस्कान
और जीवन को मिल गया है-
एक अर्थ ।