Monday, May 31, 2010

रिश्तों का रेगिस्तान

गाँव,गाँव,
शहर,शहर
धीरे-धीरे
सूखता जा रहा है
भू-जल की तरह
आँखों का पानी,
रिश्तों के रेगिस्तान का
बढ़ता ही जा रहा है आकार ,
हो रहा है शनै-शनै
इसका असीमित विस्तार.

झरने खो रहे हैं
अपना झर-झर स्वर,
नदियों की कम हो रही है
रवानी,
क्योंकि कम हो रहा है
उसका भी पानी.

हर जगह सन्नाटा है पसरा,
हर जगह की है यही कहानी.
चिलचिलाती धूप में
बबूल के पत्तों के नीचे टिकी छाँव से
ठंढी नहीं होती
थार के तपते रेत की तपिश.

जब चलते हैं
लू के थपेड़े यहाँ
धरती हो जाती है गर्म तवा
जिसपर टिकता नहीं पानी.

बस हर तरफ होता है
पानी का भ्रम,
मृगमारीचिका से
नहीं बुझती प्यास,
प्यास से सूखता है गला
सबका.

पटा पड़ा है सारा रेगिस्तान
संबंधों की लाशों से
जिसपर मडरातें हैं
स्वार्थी चील-कौवे
नोच-नोच कर
उन्हें खा जाने को.

कहीं-कहीं दिखती है
कैनवास पर पड़ी
हरे रंग के
धब्बे सी
एक छोटी हरियाली
काँटों-भरी
कैक्टस की.

भेड़ों के झुण्ड की तरह
बादलों के ढेर
मडरातें है नीले आकाश में,
कुछ देर धमा-चौकड़ी मचाते हैं,
फिर बिना बरसे
वापस लौट जाते हैं
बिना बरसे
समंदर की ओर.

अब तो
आँखों में
उमड़ आने दो समंदर,
मन में उमड़ते बादलों को
बरस जाने दो,
बना कर
इस मरुस्थल में
एक छोटी सी नहर
बह जाने दो
आँसुओं संग अपनेपन की धार ,
इंतजार करो सूखे पेड़ों में
रिश्तों के कोंपलों के
निकल आने का.

धीरे-धीरे
बढ़ेगी हरियाली
पत्ता-पत्ता,डाली-डाली,
धीरे-धीरे होगा इनका विस्तार,
समय के साथ
सिमटता जायेगा
रिश्तों का रेगिस्तान.

Wednesday, May 26, 2010

तेरी यादों से.....

तेरी यादों से
जी तो बहल जाता है
जिन्दगी नहीं कटती ,
नहीं कटते
मेरे दिन और रात
सपनों में खो जाने से.

यूं तो
सूरज की सोचकर
उजाला सा
मन में होता है,
पर
बिना सूरज के
उजाला नहीं होता है
जीवन में .

तस्वीरों में
देख-देख तुम्हें
बहुत बहला लिया
दिल को,
सामने आओगी
तो मेरा वक्त
गुजर जायेगा .

कह नहीं सकता
चांदनी रात से
क्या मिलता है
मुझे
तेरे बिन,
तुम जो
आ जाती हो
तो
चाँद भी
पूरनम हो जाता है.

न जाने क्यूं ......

पत्थर हूँ मैं
रास्ते का
पास से गुजरते है
कई लोग
कोई एक ठोकर लगा जाता है,
कोई श्रद्धा से उठा
माथे से लगाता है
शिवाले का शिवलिंग
बना जाता है ,
न जाने क्यूं .......

पेड़ हूँ मैं
हरा-भरा
जिसपर
कुछ तो जल चढाते हैं,
शीश नवाते हैं,
कुछ राह चलते
डालियों को तोड़ जाते हैं,
पत्तियां नोच जाते हैं
न जाने क्यों ........

फूल हूँ मैं
बगिया का
बागबां पालता है
जिसे
जतन से,
स्नेह-भरे हाथों से
डाली से अलग कर
गुलदस्ते में सजाता है,
किसी के घर की
शोभा बना देता है.
पर, कुछ लोग
बड़ी बेरहमी से
तोड़ लेते हैं ,
पंखुड़ियों को मसलकर
फेंक देते हैं ,
न जाने क्यों ........

तितली हूँ मैं
अपने रंग-बिरंगे
पंखों पर इठलाती,इतराती
फूलों पर मंडराती हूँ मैं,
कोई तो
स्नेह-भरे हाथों से
सहला जाता है ,
कोई
मेरे पैरों में सूतली बांध
मेरी उडान रोक जाता है ,
न जाने क्यों ........

पंछी हूँ मैं
उन्मुक्त उडान भरता हूँ
खुले आकाश में,
कभी-कभी थककर
नीचे गिर जाता हूँ ,
तब
कुछ तो पानी पिलाते हैं
कुछ यूं ही तड़पता
छोड़ जाते हैं
न जाने क्यों ........

Tuesday, May 25, 2010

मां हो तुम

माँ हो तुम.
कौशल्या हो या कैकेयी
यशोदा हो या वैदेही ,
प्यार-भरा उपहार हो तुम
सबका जीवन-आधार हो तुम,
मां हो तुम.

तेरे आँचल की छाँव तले
राम पले,घनश्याम पले ,
लक्ष्मण भी पले,बलराम पले,
सपनों से भरा संसार हो तुम,
मां हो तुम.

भौतिकता को स्वीकार किया
जीवन को हमपर वार दिया,
दे-देकर अपना स्नेह लेप,
पैरों पर हमको खड़ा किया,
प्रकृति का अद्भुत सार हो तुम,
मां हो तुम.

गा-गाकर कर लोरी रातों में
परियों के देश तुम ले जाती,
जब नींद हमें भी आ जाती,
मीठे सपनों में खो जाती तुम,
मेरी कल्पना का आकार हो तुम
मां हो तुम.

बचपन तो झूला करता है,
तेरी इन कोमल बाँहों में,
तू राग मेरा, तू रंग मेरा,
तुमसे ही है सर्वांग मेरा,
जीवन की बहती धार हो तुम,
मां हो तुम..

तुमसे ही सारे रिश्ते हैं
तुमसे ही सारे नाते हैं
बाकि तो बनते रहते हैं,
बाकि तो आते-जाते है,
सारे रिश्ते की नाव हो तुम,
मां हो तुम.

तू ही पूजा,तू ही भक्ति
तू ही आदि शक्ति है,मां
तेरे अंतर्मन के जैसा
संसार न कोई दूजा है,
प्रकृति का सुंदर उपहार हो तुम,
मां हो तुम. .

हम सब में एकाकार हो तुम,
ईश्वर का एक अवतार हो तुम,
छोटे सहज साकार का,
निराकार विस्तार हो तुम ,
मां हो तुम.

नजरिया

शब्द
कभी सूरज
हुआ करता था
मेरे मन-आँगन का
चमकता हुआ,
आज तो
वह एक गोली है
लोहे की जंग लगी .

शब्द
कभी चाँद सा
चेहरा
हुआ करता था
मेरे प्यार का
सलोना सा ,
अब तो
सूखी रोटी सा
नजर आता है
दागों भरा.

शब्द
कभी
सितारों सा
जगमगाया करता था
उसके आँचल में
जुगनुओं की तरह
आज तो
नदी की
चमकती रेत
नजर आता है .

Thursday, May 20, 2010

अमानुष

मैं तो ईंट था
जब नींव में पड़ा
सक्रिय जीवन से
ले लिया सन्यास
निष्क्रिय रहकर
एक सक्रिय आधार बना .

जीता रहा
अपनों की याद लिए,
अपनों का साथ लिए ,
एक गुमनाम जिंदगी
आजीवन
औरों के लिए .

लेकिन
तुम तो मानुष थे,
तुम्हें तो बड़ा बनना था,
भला बनना था,
औरों के लिए जीना,
औरों के लिए मरना था.
किसी का सहारा बनना था .

फिर तुमने क्यों
अलग कर लिया
स्वयं को
अपनों की भीड़ से ,
जीते रहे
अपने-आप से अलग
एक एकाकी जीवन
अपने लिए
और
हो गए अमानुष

Thursday, May 13, 2010

नीड़

उड़कर आये थे
बहुत दूर
भरे मन से
अपनों को पीछे छोड़
एक नई दुनियां बसाने
तम्हारे लिए .

तिनका-तिनका जोड़
भीड़ से अलग
बनाया था
एक नीड़:
भीतर कोमल,बाहर कठोर.
डाला था उसमें
तुम सबों का बचपन,
चुगकर लाते थे दाने,
चुगाते थे तुम्हें प्यार से
स्वयं रहकर भी खाली पेट
कई-कई बार,
सींचते थे
तुम सबका तन-मन
दुलार से .

अपने डैनों पर
ओढ़ लेते थे सूरज,
झेल लेते थे
बारिस का झमकता पानी
तुम्हें बचाने के लिए
ताकि
तुम बनो
अपना सबल कल,
हमारा सहारा बनों.

यह हमारा सपना था
उम्मीदों भरा.
जब तुम जवान हुए
बन गए
नदी की मचलती धार
और
हम सराहते रहे
तुम्हारा अविरल प्रवाह .

लेकिन
तुमने
हमदोनों को
बना डाला "दो" तीर
जो देखते रहे
एक-दूसरे को
हसरत भरी निगाहों से
मिलन की धूमिल आस लिए.
तुमने बाँट दिया हमें ,
हमारा साझा अस्तित्व ,
बनाकर रख दिया हमें
यादों का ढेर.

बेहतर होता
तुम हमें "दो" न करते,
छोड़ देते हमें
हमारे हाल पर
अपने सपनों के साथ .

Wednesday, May 12, 2010

सांझ

जब
वातावरण में
हो उठता गुंजायमान
शिवालय के
घड़ीघंटे का स्वर
दिन के आखरी प्रहर
समझ लेती मैं की सांझ उतर आई है
मेरे आँगन में.

जब
सुनाई देती
जंगल से चर कर
घर लौटती गायों के
रंभाने की आवाज
और
दिखाई देता
उनके खुरों की चोट से
उठता धूल का गुबार
समझ लेती मैं की सांझ उतर आई है
मेरे आँगन में.

जब
पर्वतों के पेड़ों से
उतरने लगती
सुरमई धूप
और
हरियाली
खोने लगती
अपना रंग
समझ लेती मैं की सांझ उतर आई है
मेरे आँगन में.

जब
पेड़ों पर उतर आते
खगवृन्द
और
उनका कलरव
हो जाता तेज
समझ लेती मैं की सांझ उतर आई है
मेरे आँगन में.

जब
शनै-शनै
घटने लगती
सूरज की प्रकाश परिधि
और
पश्चिम में आकाश
हो जाता
सिन्दूरी लाल,
धुंधला हो जाता
आस-पास
समझ लेती मैं की सांझ उतर आई है
मेरे आँगन में.

जब
गली में खेलते समय
कानों में पड़ती
बाबूजी की स्नेहभरी पुकार
और
रसोईघर से आने लगती
बर्तनों के खड़कने की आवाज
समझ लेती मैं की सांझ उतर आई है
मेरे आँगन में.

जब
आँगन के तुलसी-चौरे में
दीप जला
तुलसी को साँझ दिखाती माँ
और
श्रद्धा से
दीप्त हो उठता
उनका मुखमंडल
समझ लेती मैं की सांझ उतर आई है
मेरे आँगन में.

Tuesday, May 11, 2010

पत्रकारिता के बदलते आयाम

दूरदर्शन पर
देख रहा था
समाचार:
"आइसलैंड में
ज्वालामुखी फटा ,
यूरोप के आसमान पंर
राख के घने बादल छाये,
यूरोप को आने-जाने वाली
सभी उडाने रद्द "
सीधा-सीधा
फीका-फीका सा .
दिल किया
कोई और चैनल
खंगाळू .
खोजते-खोजते
अचानक
पहुँच गया
एक नामी-गिरामी
खबरिया चैनल पर
जहां महीने भर पहले
२४ घंटे तक
दिखाई गयी थी
"रावण की कब्र"
वहीँ आ रहा था
आज
एक और समाचार:
आज की ताजा खबर
"बर्फ में लगी है आग ,
आग लगी है बर्फ में .
सारा यूरोप जलनेवाला है.
कैसे जलेगा यूरोप,
क्यों जलेगा यूरोप?
ये हम बतायेंगे आपको
लेकिन
एक छोटे से ब्रेक के बाद.
आईये अब हम आपको
सीधे लिये चलते है
अपने संवाददाता
"निरालाजी" के पास
जो घटनास्थळ के काफी करीब है .
हां,तो निराला जी, बताइये,
क्या आग के कारण का पता चला?,
आशा जी,
यहां ज्वालामुखी फटा है .
यह बर्फ कि चादर से ढका
आईसलैंड का इलाका है ,
यही फटा है ज्वालामुखी ,
इससे निकलते गर्द का गुबार
जिससे पूरे यूरोप का आसमान
भर गया है,
आप अपने टीवी स्क्रीन पर भी
देख सकते है .
एक और ब्रेक का समय हो चला है
हम शीघ्र ही लौटेंगे
आप अपने टीवी स्क्रीन पर
बने रहियेगा,
कंही जाइयेगा नही.
आठ बजे शुरू हुआ था
समाचार
अब रात के बारह बजनेवाले हैं.
मैं अभी भी
टीवी स्क्रीन पर नजरें गड़ाए
सोच रहा था
कुछ तो नया आएगा .
लेकिन
मेरे उम्मीद के सूरज पर
पूर्णतः बाजारू,
समाचारी ज्वालामुखी से
निकलती राख
छा गयी थी
खबरो के आसमान पंर
समाचार का सूरज
निकलता कैसे ?
निकलता भी तो आखिर कैसे ?

Monday, May 10, 2010

एक सिपाही का निवेदन

साहब जी
सेंसिटिव जगहों पर
कैमरा मत
लगवाना,
अगर भूल से
लगवा भी दिया
सुरक्षा कारणों
का हवाला देकर
तो ऐसे संवेदनशील
जगहों पर
हमारी ड्यूटी
मत लगाना.
कैमरा लगा नहीं की
क्रिमिनलों की
शामत आ जाएगी.
सारी चोरियां ,
हमारी सीनाजोरियां
पकड़ी जाएँगी ,
सारे गुंडे
पकड़े जायेंगे ,
हमारा धंधा
चौपट हो जायेगा ,
हम बर्बाद हो जायेंगे ,
हमारे बच्चे
सड़कों पर आ जायेंगे.
साहब,
एक बार फिर सोच लो
हफ्ते की मार से
आप भी
उबर नहीं पाओगे .
इसलिए कहता हूँ
जैसे चल रहा है
चलने दो ,
अपने पेट पर लात
और पैरों पर
कुल्हाड़ी मत मारो
भूलकर भी
कैमरा मत लगवाओ ,
ये मेरा निवेदन है .

Thursday, May 6, 2010

दिल्ली

आते-जाते
रोज
मैं देखा करता था
एक नन्ही सी बच्ची को
अपने झोपड़े के आगे
खेलते हुए
गली के बच्चों के साथ.
प्लाट में बहते
नालों की तरह
बहती रहती थी
उसकी नाक,
सर के बाल
थे बेहद उलझे-उलझे से ,
उनींदी आखों में
भरी होती थी कीच
और
मेमने की तरह
लगा रही होती थी
वह दौड़
आस-पास के खेतों में,
खलिहानों में,
कच्ची-पक्की,
धूलभरी सडकों पर
बिना किसी चिंता,
बिना किसी भय.

बहुत दिनों बाद
आज जब मैं
एकबार फिर
गुजरा उधर से
तो
झोपड़े की जगह
एक भव्य मकान
खड़ा पाया.
हर तरफ
पक्की सड़कें,
पक्की नालियाँ,
बिजली के खम्भे
और
घर के बाहर
एक बेहद खूबसूरत
युवती को खड़ा पाया .
उसे देखकर
मैं सोच में पड़ गया ......
वह बच्ची कहाँ है?
कहाँ है वह झोपड़ा ?
तभी एक सुरीली आवाज से
मेरी तन्द्रा टूटी:
"मुझे पहचाना नहीं,अंकल,
मैं वही झोपड़ेवाली दिल्ली"

Wednesday, May 5, 2010

प्रदूषण (बचपन के नाम )

तन भी दूषित,
मन भी दूषित 
 दूषित ये जग सारा है 
 भोजन-पानी हवा भी दूषित 
 दूषित स्वास्थ्य हमारा है 

 किया-धरा यह नहीं और का 
सारा दोष हमारा है 
 अगर आज भी हम ना संभले 
 समय हाथ से जाएगा 
 हो जायेगा नष्ट यहाँ सब \
कुछ भी ना बच पायेगा 

 आओ मिल संकल्प करें अब 
 कचरा नहीं फैलायेंगे 
 प्रदूषण दूर भगायेंगे 
 स्वस्थ समाज बनायेंगे

कवि

मछुआरा
बन
बुनता हूँ जाल
पूरी तन्मयता से
शब्दों के
मजबूत धागों से
ताकि जा सकूँ
अपनी छोटी सी नाव ले
गहरे समुद्र में
मुंह अँधेरे
सुबह-सबेरे
और
पकड़ सकूँ
स्वतंत्र विचरण करती
ढेर सारी
मछलियाँ ,
देख सकूँ
जाल में
अपने
उनकी तड़प,
या फिर
बन जाऊं
बागबां
बागों से
चुनूं फूल
गूंथ-गूंथ कर
बनाऊं
एक माला
अदृश्य खुशबुओं
से भरी
और
जान लूं
काव्य सृजन का
राज
और
सहेज कर रख लूं
उन्हें
अपने मन-आँगन में.

आनंद की अनुभूति

जब
हम मिले
पहली बार
संबंधों की नीवं पड़ी ,
रोपा गया
प्रेम-बीज
आँगन में
और
होने लगी
आनंद की बरसात.

समय
आगे बढ़ा
बीज
पौधा बना ,
बढ़ता गया,बढ़ता गया
और
एकदिन
बन बैठा
हरा-भरा
बटवृक्ष
प्रेम का
फिर
बह चली
आनंद-धार
सागर की ओर
क्षितिज के पार
जहाँ मिलते हैं
धरती और आकाश
और
पा गयी
एक अंतहीन विस्तार
जीवन सा .

गाँव की सड़क

बचपन में
जब पिताजी की
उँगलियाँ पकड़े
जाता था अपने गावं
तो देखता था
टूटी सी खाट पर
लेटे हुए
बुढिया दादी की तरह
अपनी
जानी-पहचानी
सड़क को
पूरी तरह जीर्ण-शीर्ण
कृशकाय ,
कातर निगाहों से
निहारते
अपने शरीर में पड़े
अनगिन
छालों को
जो समय ने
दिए थे उसे ।

आज भी मैं
अपने बच्चों की बाहें थामे
जाता हूँ
अपने गावं
उसी सड़क पर चलकर ।
आज भी वह
वैसे ही पड़ी है
छालों से बने
अपने घावों को
सहलाती

और
कर रही है
इन्तजार
किसी के आने का
जो
उसकी जवानी
भले ही न लौटाए
पर उसके घावों पर
मरहम तो लगा जाये,
उसकी साँसों को
कुछ उम्र तो दे जाए ।

Tuesday, May 4, 2010

सबेरा होनेवाला है

जब
मस्जिदों में होती
पहली अजान
समझ लेती मैं कि सबेरा होनेवाला है ।

जब वातावरण में
मंदिर के घंटे का स्वर
होता गुंजायमान
समझ लेती मैं कि सबेरा होनेवाला है ।

जब सुनाई देती
कोयल कि कूक
पक्षियों के कलरव के बीच
समझ लेती मैं कि सबेरा होनेवाला है ।

जब कानों तक आती
मां की
ममता-भरी आवाज
समझ लेती मैं कि सबेरा होनेवाला है ।

कुछ पल बाद जब गालों पर होता
पापा के स्नेहिल हाथों का स्पर्श
समझ लेती मैं कि सबेरा होनेवाला है ।

जब रसोई से आने लगती
बर्तनों के खड़कने की आवाज
समझ लेती मैं कि सबेरा होनेवाला है ।

जब पूरब हो जाता सिन्दूरी लाल
और धरती पर फैलने लगता प्रकाश
समझ लेती मैं कि सबेरा होनेवाला है ।