Tuesday, September 6, 2022

 

     बाबूजी  

 

खादी का सफेद धोती-कुर्ता आपकी पहचान रहा,

गांधी के आदर्शों को निभाते आये आप,

आज समय की वर्तमानिकता में

आप और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं, बाबूजी।

 

         आपका मार्गदर्शी व्‍यक्तित्‍व

        हम पर सदा हावी रहा है,

        अच्छे-बुरे का भेद समझाकर

       जीवन-मूल्‍यों के साथ सामंजस्य बिठाकर 

       आगे बढ़ने की राह बतलाता रहा।

 

आज हम उसी राह पर लौट रहे हैं

जो कल-तक आपका था

उस समय अधिकांश चीजें

लोकल हुआ करती थी,बाबूजी।

समय-चक्र की चाल तो देखिये

50 वर्षों के बाद आज़ पूरा देश  

          लोकल के लिए वोकल हो रहा है।

 

जिस तरह आपने प्रत्येक रिश्ते को एक नाम दिया

व्‍यक्ति के योगदान को बिना किसी भेद-भाव के

स्‍वीकार करना सिखाया,

आपसी सम्बन्धों को निभाना सिखाया,

गांधी की सर्वसमावेशी

सामाजिक अवसंरचना को अमली जामा पहनाया।

 

जिस तरह आपने कत्तिनों, बुनकरों से मिलवाया,

उनके कामों की बारीकियों को विस्तार से बताया

उत्पत्ति विभाग,कोल्हू-घानी, बागवानी,गौशाला,

और गोबर-गैस प्लांट की उपयोगिता बतलाई,   

ग्रामोद्योग में कुटीर-उद्योग की

सहभागिता का महत्‍व बताया,

सर्व-धर्म समभाव पर आधारित

आत्‍मनिर्भर भारत का यह विचार

बिल्‍कुल क्रांतिकारी और हत्-प्रभ कर देने वाला था।

 

यह अतीत में बनाया गया

वर्तमान और भविष्‍य का भावी मानचित्र था,

बिलकुल बापू के राम-राज्य सरीखा,

और आप उस संकल्पना के जीवंत उदाहरण थे,बाबूजी।

 

जिस तरह आपने हमें राह दिखाने के लिए

विचारों की जगह कर्मयोग का सहारा लिया,

कृषि और पशुपालन का मानवीय मूल्‍यों से मेल कराया,

उसमें बसे सुख की अनुभूति करायी,

उसका आनंद लेना सिखाया,

यह सब कितना सुंदर था,बाबूजी।

 

आपको बागवानी करते देखना,

उसमें तन-मन से आपका साथ देना,

गाय और बछिया संग आत्‍मीय हो जाना,

उनका आकर आपके गले से लिपट जाना,

संबंधों की एक अमिट लकीर छोड़ती 

अद्वितीय तस्‍वीर ही तो थी, बाबूजी।

 

आपका गौशाला और शौचालय को स्‍वयं साफ करना,

आस-पास की नालियों की रोज सफाई करना,

सफाई और स्‍वच्‍छता की बेमिशाल तस्‍वीर ही तो थी 

जो बिना कुछ कहे हमें भी प्रेरित करती थी

         और आज भी हमारे संस्‍कारों की नींव में पैबस्‍त है।

 

आपके धैर्य, आपके अदम्‍य साहस,

आपकी मितव्‍ययिता की सीख ने

हमारी राहें आसान कर दीं, बाबूजी

धन की कमी कभी हमारी मेहनत, 

हमारी सफलता के आड़े नहीं आई

यह आपका ही आशीर्वाद था।

 

गांधी का महात्‍मा होना आपसे ही जाना है,बाबजूी

आपने ही हमारे सपनों को पंख दिये

अभाव के असीम आसमान में उड़ने का हौसला दिया।

 

मैं धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था

पर बचपन की अपनी बदमाशियों

और आपकी बेरहम पिटाई की बातें सोचकर

आज भी सिहर उठता हूँ

          आपके मौन से भयाक्रांत रहा करता था

जो घर के कोने-कोने में घर किए बैठी थी।

         आपके गुस्‍से,

         आपके आपके अभिभावकीय तेवर से परेशान

         मैं कई-बार सामान्‍य शिष्‍टाचार की सीमाएं लांघता रहा 

         क्योंकि मन पल-भर को विद्रोही हो जाता था।

         मेरे प्रति आपकी निराशा

        आपके आंखों की उदासी और सूनापन

        मन को कचोट जाती थी, बाबूजी।

 

          छोटी-छोटी मांगों को कल पर टाल देना

आपके लिए आम रहा हो 

लेकिन मेरे मन को बुरी तरह आक्रोशित कर जाता था,

मैं अपने मन को समझाता था

क्योंकि आपकी विवशता मैं समझने लगा था, बाबूजी।

 

मुझे आज भी याद है

जब घर से 7-8 किलोमीटर दूर स्थित

इंटर कॉलेज में मैंने दाखिला लिया था

और कॉलेज जाने-आने के लिए

मैंने आपसे एक नई साईकिल मांगी थी,

तो आपने रंग-रोगन करवाकर

एक नई साईकिल दिलवाई थी।

 

घर के हालात का मुझे पता था, बाबूजी

पर, आपकी ईमानदारी और सत्‍यनिष्‍ठा पर

कभी-कभी बेहद गुस्‍सा आता था

क्योंकि इससे हमारे छोटे-छोटे सपने

यदा-कदा चोटिल हो जाया करते थे

और हम किसी से कह भी नहीं पाते थे।

 

जीवन और उसकी सीमाओं के प्रति आपका सम्‍मान,

शब्‍दों के चयन में बरती जानेवाली सावधानियों,

आपके उद्दात और समदर्शी विचारों के सामने

मैंने अपने-आपको बहुत छोटा पाया है,बाबूजी।

   

गुस्‍से के ज्‍वार-भाटे से परे

आपका प्‍यार अथाह

मगर सागर अंतःस्थल सा शांत था।

          हमउम्र दोस्‍त की तरह

आपका हमारे साथ बैठकर ताश खेलना

अपनी संस्‍था के नियम-अंतर्नियम समझाना

गांधी की विचारधारा को विस्‍तार से बताना

कितना साधारण, कितना विस्‍मयकारी था

अब समझ आ रहा है,

आज देश का प्रधानमंत्री उसे ही दोहरा रहा है।

 

कुर्ते बेशक पैबंद लगे मगर बेदाग हुआ करते थे

घर से निकलते समय

मां के टोकने पर मुस्‍कुरा कर कहते,

इसमें हर्ज ही क्‍या है, भाग्‍यवान।

आज हजारों लोगों को यह भी मय्यसर नहीं है’।

मां निरूत्तर हो जाया करती थीं

ऐसे थे बाबूजी, ऐसी ही थी उनकी सोच।

 

हमेशा एक लकीर खींचती सोच के साथ जीते आए,

जो सबके लिए एक ही लम्‍बाई लिए थी।

सर्वोदय के सिद्धांत,आपके विचार

बेहद मूल्‍यवान एवं जादुई थे,बाबूजी।

 

1990 का वर्ष था

जब फरवरी के महीने में

          मैंने भारत सरकार में नई-नई नौकरी ज्‍वाइन की थी,

और एकबारगी ही सारे सम्‍पर्क सूत्रों से कटकर

असहाय सा महसूस करने लगा था।

ऐसे समय स्‍नेहाशीष से भरा आपका खत

एक पूल बन जाता था,

रिश्‍तों को जोड़े रखने वाला पूल

ऐसा करके आप

परिवार को परिवार से जोड़े रखते थे,बाबूजी।

 

आज भी याद आता है

आपका प्‍यार से मेरे बालों में उंगलिया फिराना

जून-जुलाई की वारिश में

गायों,बछियों संग मैदान में जाकर खड़ा हो जाना ,

उनकी पीठ को सहलाते हुए उन्हें नहलाना,

क्या ही अद्भुत नजारा होता था,बाबूजी।  

 

सर्दियों की रात में देर तक अलाव के पास बैठना,

बैठकर बातें करना

आपके सानिध्‍य की गर्माहट से भर देता था

मैं आपके उस विश्‍वास का दीवाना था, बाबूजी

जिसमें आपको

मेरे सपनों को आसमान मि‍लने का भरोसा था

          यही आपके जीवन जीने के ठंग का वसीयतनामा-सा था।

और खुशी इस बात की है कि आखिकार

यह भी हमें अच्‍छाई की राह पर ही ले गया।

No comments:

Post a Comment