अचार
किसी ने कहा था एक दिन,
“जब जीवन से भोजन की तरह जाने लगे स्वाद,
इसका बासीपन
विचारों के बासीपन की तरह करने लगे परेशान
तो अचार बनाने पर और खाने पर जरूर करें विचार,
मैं तो करता हूँ।
जब कभी मैं जाता हूँ मंडी/बाज़ार
और देखता हूँ कच्चे आमों का ढेर
स्वयं को रोक नहीं पाता हूँ
खरीद कर ले आता हूँ कई-कई किलो आम
बैठकर फिर बड़े जतन से
उन्हें काटता हूँ कई-कई टुकड़ों में,
पानी भरे बाल्टी में डुबोकर
उन्हें धोता हूँ कई-कई बार,
फिर डाल देता हूँ खिली धूप में
चटाई पर फैलाकर
नमी हटाने को जेठ की भरी दोपहरी में।
मिट्टी की हांडी में उन टुकड़ों को डालकर
उस पर डालता हूँ हल्दी
और छिड़कता हूँ नमक
धूप की गर्मी में
उसे कई-कई दिन पकाता हूँ
हफ्ते-भर बाद
उसमें भांति-भांति के मसाले मिलाता हूँ,
उन्हें तेल में नहलाता हूँ
और सीसे के मर्तबान में समेटकर रख लेता हूँ
सहेजकर खुशियों के पल की तरह।
आज भी याद है मुझे
माँ के साथ मिलकर
पिताजी भी बनाया करते थे अचार
मैं तो बस मूकदर्शक बना
देखता रहता एक-एक चरण
देखने की खुशी तो मुझे मिलती
पर कुछ बनाने का सुख पाते थे बाबूजी।
बन जाता था स्वादिष्ट अचार
खाने का जायका तो बढ़ाता था
जीवन की नीरसता में करता था
नयेपन का संचार ।”
24/10/2010
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