मैं
कभी बुद्ध,
कभी ईसा ,
कभी गाँधी,
होता हूँ,
तो कभी
महज एक दंगाई,
एक आतंकवादी.
कभी
अपने चारो ओर
खड़ी करता हूँ
नफरत की दीवार,
कभी करता हूँ
शांति-पथ की तलाश.
मैं
एक ही पल में
कभी हिन्दू होता हूँ ,
कभी सिख,कभी ईसाई,
कभी जीता हूँ
मुसलमां बनकर.
एक-दूसरे को मारते हुए
हैवान बनकर,
एक-दूसरे को बचाते हुए
इन्सान बनकर.
मैं
अबतक
नहीं समझ पाया
कभी मानव,महा-मानव,
कभी दानव,महा-दानव
क्यों हो जाता हूँ,
कैसे हो जाता हूँ ?
Dil Ka Aashiyana Where Every Relation has Its Relavance,Every Individual has his Place.Humanity Reigns Supreme.
Sunday, January 16, 2011
Thursday, January 13, 2011
दूसरा किनारा
एक किनारा छोड़
दूसरे किनारे
आ गया हूँ मैं,
तुझे अपनाकर
किसी को पीछे
छोड़ आया हूँ मैं.
जुड़ गया हूँ
परम्पराओं से,
रश्मों-रिवाजों से
तुम्हें पाकर,
पर,आज भी
पूरी तरह
अतीत से नाता
नहीं तोड़ पाया हूँ मैं.
अब तो बस
तुम हो,मैं हूँ
हम बनकर
और साथ हैं
कुछ भूली-बिसरी बातें
परछाई बनकर .
नहीं कह सकता
क्यों चाहने लगा हूँ
तुम्हें इतना,
समझने लगा हूँ
हिस्सा अपना
धीरे-धीरे,
फ़िरभी
क्यों लगता है
कभी-कभी
मन का कोई कोना
सूना-सूना
उसके बिना.
जब-जब
देखता हूँ
पीछे मुड़कर ,
लगता है
पाकर भी
बहुत कुछ खोया है
मैंने अपना.
पहला सपना,
पहला प्यार
जो आज भी
यादों की लहर बनकर
लौटता है बार-बार,
तुम तक आकर
लौट जाता है,
मेरे भीतर
अजब सी
एक टीस छोड़कर.
सच कहूँ तो अब
मुश्किल लगता है
पल-भर भी जीना
तेरे बिना .
तुम साथ रहो,
मेरे पास रहो
अपना बनकर,
उसे रहने दो
दिल के किसी कोने में
मेरा अतीत,
मेरा सपना बनकर
और
देदो मुझे
मेरे द्वंद्व से मुक्ति.
दूसरे किनारे
आ गया हूँ मैं,
तुझे अपनाकर
किसी को पीछे
छोड़ आया हूँ मैं.
जुड़ गया हूँ
परम्पराओं से,
रश्मों-रिवाजों से
तुम्हें पाकर,
पर,आज भी
पूरी तरह
अतीत से नाता
नहीं तोड़ पाया हूँ मैं.
अब तो बस
तुम हो,मैं हूँ
हम बनकर
और साथ हैं
कुछ भूली-बिसरी बातें
परछाई बनकर .
नहीं कह सकता
क्यों चाहने लगा हूँ
तुम्हें इतना,
समझने लगा हूँ
हिस्सा अपना
धीरे-धीरे,
फ़िरभी
क्यों लगता है
कभी-कभी
मन का कोई कोना
सूना-सूना
उसके बिना.
जब-जब
देखता हूँ
पीछे मुड़कर ,
लगता है
पाकर भी
बहुत कुछ खोया है
मैंने अपना.
पहला सपना,
पहला प्यार
जो आज भी
यादों की लहर बनकर
लौटता है बार-बार,
तुम तक आकर
लौट जाता है,
मेरे भीतर
अजब सी
एक टीस छोड़कर.
सच कहूँ तो अब
मुश्किल लगता है
पल-भर भी जीना
तेरे बिना .
तुम साथ रहो,
मेरे पास रहो
अपना बनकर,
उसे रहने दो
दिल के किसी कोने में
मेरा अतीत,
मेरा सपना बनकर
और
देदो मुझे
मेरे द्वंद्व से मुक्ति.
Monday, January 10, 2011
ये तमन्ना है मेरी
सड़क तुम तक आये ,
तुम उसपर
अपने नाजुक पाँव धरो,
और वह तुम्हें
तुम्हारी मनचाही जगह
ले जाए
ये तमन्ना है मेरी .
पुरवैया बयार बहे,
तुम्हारे बालों को
हौले-हौले सहलाये ,
तुम्हें गुगुदाकर
चला जाए ,
ये तमन्ना है मेरी.
झूमकर आये
सावन की घटाएं
रिमझिम फुहार बरसाएं,
तेरे पैरों के नीचे की दूब
हरी मखमली हो जाये
ये तमन्ना है मेरी.
गाढ़ा नीला हो जाए
आसमान,
तेरे चेहरे पर सजे
उगते सूरज की लाली,
तू झिलमिलाए सदा
तारा बनकर
मेरे मन आँगन में
ये तमन्ना है मेरी.
तू जहाँ भी रहे
खुश रहे,
खुशहाली तेरे आस-पास
अपना घर बसाये,
तेरे चाँद से चेहरे पर
कभी कोई शिकन
न आये
ये तमन्ना है मेरी .
पापा नहीं हैं
कोई बात नहीं,
तेरे लिए
मेरे प्यार की सच्चाई पर
कभी कोई आंच न आये
ये तमन्ना है मेरी .
तू जैसी थी
वैसी ही बसी रहना
मेरे घायल मन में,
समय इसमें कोई बदलाव
न ला पाए
ये तमन्ना है मेरी.
मेरी मुहबोली बहन मीरा की प्यारी बिटिया की स्मृति में.
तुम उसपर
अपने नाजुक पाँव धरो,
और वह तुम्हें
तुम्हारी मनचाही जगह
ले जाए
ये तमन्ना है मेरी .
पुरवैया बयार बहे,
तुम्हारे बालों को
हौले-हौले सहलाये ,
तुम्हें गुगुदाकर
चला जाए ,
ये तमन्ना है मेरी.
झूमकर आये
सावन की घटाएं
रिमझिम फुहार बरसाएं,
तेरे पैरों के नीचे की दूब
हरी मखमली हो जाये
ये तमन्ना है मेरी.
गाढ़ा नीला हो जाए
आसमान,
तेरे चेहरे पर सजे
उगते सूरज की लाली,
तू झिलमिलाए सदा
तारा बनकर
मेरे मन आँगन में
ये तमन्ना है मेरी.
तू जहाँ भी रहे
खुश रहे,
खुशहाली तेरे आस-पास
अपना घर बसाये,
तेरे चाँद से चेहरे पर
कभी कोई शिकन
न आये
ये तमन्ना है मेरी .
पापा नहीं हैं
कोई बात नहीं,
तेरे लिए
मेरे प्यार की सच्चाई पर
कभी कोई आंच न आये
ये तमन्ना है मेरी .
तू जैसी थी
वैसी ही बसी रहना
मेरे घायल मन में,
समय इसमें कोई बदलाव
न ला पाए
ये तमन्ना है मेरी.
मेरी मुहबोली बहन मीरा की प्यारी बिटिया की स्मृति में.
Saturday, January 8, 2011
ठहरा हुआ बचपन
गाँव में
आज भी
निकलता है चाँद,
जगमगाती है
अमावस की रात
झिलमिलाते तारों से,
भर जाता है आँगन
चमकते जुगनुओं से.
पूरब की ओट से
झांकता है
शर्मीला सूरज
भोर में.
इन सबके बीच ही
कहीं ठहरा हुआ है
हमारा दौड़ लगाता
बचपन.
गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
मेला जाने की रट लगाता
गुब्बारा लेने के लिए
मचलता बचपन. .
दादाजी की उंगली थामे
स्कूल जाता,
कच्चे फर्श पर
चटाई बिछाकर
पढाई करता,
मास्टर जी की मार खाता,
छड़ी छुपाता बचपन.
मेंड़ों पर दौड़ लगाता ,
खेतों की हरियाली में
घुलमिल जाता,
औरों के खेतों से
गन्ने और मटर
चुराता बचपन.
गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
तालाब के पानी पर
पत्थर तिराता बचपन.
सावन की झपसी में
सिर उठाकर
बूंदों को चूमता,
घर के बरामदे बैठ
आँगन से निकलती धार में
कागज की नाव
बहाता बचपन,
डूबते सूरज के साये में
नदी की गीली रेत पर
घरौंदा बनाता,बिगाड़ता,
उन्हें बिगाड़कर
जोर-जोर से
खिलखिलाता बचपन.
ये बेफिक्र बचपन ही तो था
जो किसी की गोद में,
किसी के कंधे पर
चढ़ा होता था,
खौफ से बेख़ौफ़ होने के लिए
मां के आँचल में छिपा होता था .
ये बचपन ही तो है
जो आज भी हमारे मन को
बार-बार गुदगुदाता है ,
हमें यादों के पालने में झुलाता है.
बेशक !
आज हम बड़े हो गए हैं,
अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं.
पर,आज भी
ठहरा हुआ है बचपन
हमारी यादों में
पूरी शिद्दत से.
आज भी
निकलता है चाँद,
जगमगाती है
अमावस की रात
झिलमिलाते तारों से,
भर जाता है आँगन
चमकते जुगनुओं से.
पूरब की ओट से
झांकता है
शर्मीला सूरज
भोर में.
इन सबके बीच ही
कहीं ठहरा हुआ है
हमारा दौड़ लगाता
बचपन.
गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
मेला जाने की रट लगाता
गुब्बारा लेने के लिए
मचलता बचपन. .
दादाजी की उंगली थामे
स्कूल जाता,
कच्चे फर्श पर
चटाई बिछाकर
पढाई करता,
मास्टर जी की मार खाता,
छड़ी छुपाता बचपन.
मेंड़ों पर दौड़ लगाता ,
खेतों की हरियाली में
घुलमिल जाता,
औरों के खेतों से
गन्ने और मटर
चुराता बचपन.
गाँव की गलियों में
उधम मचाता,
तालाब के पानी पर
पत्थर तिराता बचपन.
सावन की झपसी में
सिर उठाकर
बूंदों को चूमता,
घर के बरामदे बैठ
आँगन से निकलती धार में
कागज की नाव
बहाता बचपन,
डूबते सूरज के साये में
नदी की गीली रेत पर
घरौंदा बनाता,बिगाड़ता,
उन्हें बिगाड़कर
जोर-जोर से
खिलखिलाता बचपन.
ये बेफिक्र बचपन ही तो था
जो किसी की गोद में,
किसी के कंधे पर
चढ़ा होता था,
खौफ से बेख़ौफ़ होने के लिए
मां के आँचल में छिपा होता था .
ये बचपन ही तो है
जो आज भी हमारे मन को
बार-बार गुदगुदाता है ,
हमें यादों के पालने में झुलाता है.
बेशक !
आज हम बड़े हो गए हैं,
अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं.
पर,आज भी
ठहरा हुआ है बचपन
हमारी यादों में
पूरी शिद्दत से.
Sunday, January 2, 2011
इन खतों में क्या है?
ये ख़त है
जो कभी
तुमनें लिखे थे
मुझको.
उसका अक्षर-अक्षर
तेरा अक्श बन
उभर आता है
आज भी
मेरे जेहन में
चाहे-अनचाहे.
क्योंकि
इन खतों में हैं
कुछ हँसते,
खिल-खिलाते पल,
कुछ सिसकते,
सहलाते पल.
बांटा था जिन्हें
हमने
आपस में
मिल-बैठकर.
इन पलों में
आज भी
सिमटी है
मिलने की चाह,
न मिल पाने का गम,
दूर रहकर भी
पास होने का भ्रम
जो पलता रहा है,
बढ़ता रहा है
सदा
साथ-साथ
तेज होती
धडकनों में
पलती है
प्यार की तपिश
जो देती है
झुलसने का
मीठा अहसास.
ये सब सिमटे हैं
शब्दों के घरौंदे में.
घरौंदा
जो घर हो गया है
बीती बातों का,
आशाओं का,
अरमानों का,
धड़कनों में छिपी
विवशता का,
बैचैनी का
टूटते-बनते रिश्तों का.
मेरे-तुम्हारे होने का
एक-दूसरे से अलग
एक-दूसरे के साथ
जीवनपर्यंत
एक सिलसिला बनकर.
जो कभी
तुमनें लिखे थे
मुझको.
उसका अक्षर-अक्षर
तेरा अक्श बन
उभर आता है
आज भी
मेरे जेहन में
चाहे-अनचाहे.
क्योंकि
इन खतों में हैं
कुछ हँसते,
खिल-खिलाते पल,
कुछ सिसकते,
सहलाते पल.
बांटा था जिन्हें
हमने
आपस में
मिल-बैठकर.
इन पलों में
आज भी
सिमटी है
मिलने की चाह,
न मिल पाने का गम,
दूर रहकर भी
पास होने का भ्रम
जो पलता रहा है,
बढ़ता रहा है
सदा
साथ-साथ
तेज होती
धडकनों में
पलती है
प्यार की तपिश
जो देती है
झुलसने का
मीठा अहसास.
ये सब सिमटे हैं
शब्दों के घरौंदे में.
घरौंदा
जो घर हो गया है
बीती बातों का,
आशाओं का,
अरमानों का,
धड़कनों में छिपी
विवशता का,
बैचैनी का
टूटते-बनते रिश्तों का.
मेरे-तुम्हारे होने का
एक-दूसरे से अलग
एक-दूसरे के साथ
जीवनपर्यंत
एक सिलसिला बनकर.
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