सुमित्रानंदन पंत
समय का सांसारिक आघात,
अपनेपन का आभाव,
जीवन का अकेलापन,
जब नहीं भाया उसे
मानव-संसार
जहाँ होता रहता था सदा
एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात,
दर्द जब होने लगा
असह्य,अनंत
इन सबसे पाने को पार
चले गए तुम
प्रकृति के द्वार.
जहाँ
हरियाली ओढ़े जंगल था,
हिमाच्छादित पर्वतराज,
झरने झर-झर गाते रहते,
गीत मिलन के सारी रात.
फूलों में मकरंद भरा था,
जीवन में आनंद भरा था,
कांटे भी उगते थे वन में,
पर कोमलता होती थी मन.
जंगल का साम्यवादी संसार,
पादप-पुष्प,झरने,नदी,पहाड़,
सूरज,चाँद,सितारे
बसे हुए थे उनके उर में.
खग-वृन्द भी करते थे संवाद
तितलियाँ उड़-उड़ आती थी,
बैठकर उड़ जाती थी
मनचाहे फूलों पर,
भंवरे भी मंडराते थे,
लेकर पराग उड़ जाते थे.
जंगल के सब जीव भले थे
लगता था एक कोख पले थे.
सबसे सबका सरोकार यहाँ था
जीवन का आधार यहाँ था,
जीवन मूल्य यहाँ पलता था
जीवन-यज्ञ सदा चलता था.
यहाँ मिली
मातृत्व की छांव,
शाश्वत स्नेह,
निश्छल प्यार,
देवकी नहीं मिली तो क्या ?
प्रकृति रही सदा उनके साथ
यशोदा बनकर,
बांहों के हिंडोले पर
झुलाती रही उनका बालपन,
सहलाती रही उनके कोमल गात,
आहत मन को देती रही सहारा,
बहलाती रही उनका बालमन
दूर भगाती रही अकेलापन.
प्रकृति को तन-मन कर अर्पण
जिए सदा बन प्रकृति-दर्पण .