बैल
प्रिय बैल,
हुआ करते थे तुम
कभी वृषभ,
ढला करते थे
राजाओं की तरह
मोहरों और सिक्कों पर
सभ्यताओं के समृद्धि चिह्न बनकर,
हुआ करते थे
धरती की शान,
किसानों की जान,
देश की पहचान।
तुम्हारे कन्धों पर रखकर हल
धरती की कोख से
उगाई जाती थी
सोने जैसी लहलहाती फसल,
जोतकर गाड़ियों में तुम्हें
ढोया जाता था
घर-बाहर का जरूरी सामान।
ले जाते थे तुम
लोगों को रिश्तेदारी में,
अपनों से अपनों को मिलाने का
बन जाते थे आधार.
बच्चों को मेला घुमाते थे,
लगाकर खुशियों का अम्बार
सजाते थे उनके सपनों का संसार,
बिना हिचक उठाते थे जुआ
गाड़ी का हो या हल का .
तुम होते थे
परिवार का अहम् हिस्सा,
तुम्हें भी दिया जाता था
अपनों सा प्यार,
सहलाई जाती थी तुम्हारी पीठ.
हर वर्ष होती थी
गोवर्धन पूजा
जहाँ दिया जाता था तुम्हें
ईश्वर का दर्जा,
पूजा जाता था तुम्हें,
की जाती थी तेरी परिक्रमा ,
गले डाली जाती थी
ढ़ेरों रंगबिरंगी मालाएं,
बदली जाती थी
तुम्हारी पुरानी रस्सियाँ।
नहीं लगा पाया कोई
तुम्हारे श्रम का मोल,
तुम्हारा समर्पण
आज भी है अनमोल.
तब
राजनीतिज्ञों को भी कहाँ था
तुमसे परहेज,
गर्व से बनाते थे तुम्हें
अपना चुनाव-चिह्न,
घुमाते थे तुम्हें
शहर-शहर,गाँव-गाँव,
तुम्हारा नाम ले-लेकर
लोगों को रिझाया करते थे.
आज सबने तुमसे अपना मुंह फेर लिया है,
देख रहे हैं दक्षिण की ओर
जब हाशिये खड़े तुम
अपने अवसान का
कर रहे हो इन्तजार।
ना जाने
कितने टुकड़ों में बँटा है
तेरा अस्तित्व,
कितने अर्थों में
बांटी गई है तेरी पहचान.
आज तो मेहनतकश इंसानों के लिए
होने लगा है तेरे नाम का उपयोग ,
कहा जाने लगा है उन्हें
"बैल", "कोल्हू का बैल"
और न जाने क्या-क्या?.
आज
कहाँ देख पा रहे लोग
तुममें में अपना भविष्य,
कहाँ लगा पा रहे हैं
तेरी जैव-क्षमता का अनुमान
जिसपर आ टिकेगा आनेवाला कल।
तुम तो आज भी
सिर झुकाए,
सहकर सारे अपमान
कर रहे हो
श्रम का सम्मान ,
अनवरत
दिए जा रहे हो
दधिची सा दान।