मैं तो
शब्दों के पीछे
दौड़ता-भागता हूँ
जैसे कोई बच्चा
दौड़ता है
रंग-बिरंगी
तितलियों के पीछे.
करता हूँ इन्तजार
फूलों की डालियों पर
उसके बैठने का,
फिर
करता हूँ
सहज दिखने का
सजग प्रयास.
धीरे-धीरे
चपलता से
चुपचाप
जाता हूँ
उसके बिलकुल करीब
पंखों से
पकड़ लाता हूँ उसे
बड़े गौर से
निहारता हूँ,
निरखता हूँ
उसके सतरंगी पंख.
देखता हूँ
उसकी आँखों में
दहशत-भरी बैचैनी.
उसकी विवशता,
देखता हूँ
कैद में मचलता
उसका शरीर,
उसकी आँखों में
उड़ान की ललक.
काँप उठता हूँ
सोचकर
अपना हाल ,
जन्म के बाद
हरपल
उस अनचाहे,
अनजाने बंधन से
मुक्ति की चाह.
उसकी उड़ान में
पाता हूँ
अनायास ही
अपने मन की
उन्मुक्त उड़ान.
ढीली हो जाती है
मेरी पकड़
उसके पंखों पर,
उसके साथ ही
मैं भी उड़ जाता हूँ ,
फूलों की घाटी की ओर.
कितना भाता है
अचानक
उसका उड़ जाना,
उड़कर
फिर से फूलों पर
मंडराना.
मैं तो बस यूँ ही
कुछ देर
खेलता हूँ
शब्दों के संग
आँख-मिचौली का खेल
चोर-सिपाही बनकर
कभी उन्हें पकड़ता हूँ,
कभी पकड़ा जाता हूँ.
पर
क्या करूँ
मैं उनका
जो समझते हैं
मैं कवि हूँ
शब्दों के मर्म
समझता हूँ.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!
वाह, शब्दों से खेलकर कवि कहलाने से अधिक आनन्द है, बच्चों की तरह कविहृदय रखने में...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..
वाह ...बहुत बढि़या।
ReplyDeleteबहुत खूब ... शब्दों से खेलना ही तो कवि होना है ...
ReplyDeleteलाजवाब अभिव्यक्ति ....
हाँ कवि ऐसे ही होते हें जो औरों में खुद जी लेते हें और उनके दर्द को उसी शिद्दत से शब्दों में ढाल कर पेश कर देते हें. हम गलत नहीं समझते हें. बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteभावनायों और शब्दों से आपका ये साथ यूँ ही बना रहें ....
ReplyDeletebahut khoob...
ReplyDeleteशब्दों से खेलने की कला तो कोई आपसे सीखे. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDelete.
ReplyDeleteपर
क्या करूं
मैं उनका
जो समझते हैं
मैं कवि हूं
शब्दों के मर्म
समझता हूं…
समझने वालों को क्या समझाया जाए…
बहुत ख़ूब!
राजीव जी
सुंदर शब्दावली में गूंथी है आपने रचना …
शब्दों की तितलियां जब पकड़ में आ जाती हैं तो बस…
हार्दिक शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
क्या बात है...बेहतरीन!!
ReplyDeleteसाधु-साधु
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता। मन को छू गयी । .बेहतरीन!! ।
ReplyDeleteshabdo ke saath aapki khel behtareen lagi... kahin dil ko chooo gayeee:))
ReplyDeleteकैसे ना माने कवि आपको देखिये कभी शब्दों के फूल खिलाते हैं, कभी तितली बनकर फूल-फूल मंडराते हैं... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteDr.Jenny shabnam jenny.shabnam@gmail.com
ReplyDelete5:46 PM (18 hours ago)to me
Rajiv ji,
apne blog ka link bheje. bahut achchhi rachna hai.
shubhkaamnaayen.
jenny
rashmi prabha to me
ReplyDeleteमैं तो बस यूँ ही
कुछ देर
खेलता हूँ
शब्दों के संग
आँख-मिचौली का खेल
चोर-सिपाही बनकर
कभी उन्हें पकड़ता हूँ,
कभी पकड़ा जाता हूँ.... यही कुछ देर सदी भी बन उठता है
minakshi pant pant to me
ReplyDeletewaah bahut sundar rachna :)
Suman Patil suman
ReplyDeleteto me
लोग सच ही समझते है .....
Ravindra koshtirn@gmail.com
ReplyDeleteto me
Bahut badhiya!!!!!!!!
Bhawna Kunwar bhawnak2002@gmail.com
ReplyDeleteto me
ढीली हो जाती है
मेरी पकड़
उसके पंखों पर,
उसके साथ ही
मैं भी उड़ जाता हूँ ,
फूलों की घाटी की ओर.
Bahut khub ukera hai aapne bebasi ke dard ko....bahut2 badhai....
Nirmla Kapila nirmla.kapila@gmail.com
ReplyDeleteto me
बहुत अच्छी कविता भावमय। बधाई। लिन्क नही मिला।
kavi ke paas sirf shabd nahin samvedna bhi hoti hai...
ReplyDeleteपर
क्या करूँ
मैं उनका
जो समझते हैं
मैं कवि हूँ
शब्दों के मर्म
समझता हूँ.
sundar rachna, badhai sweekaaren.
उसकी उड़ान में
ReplyDeleteपाता हूँ
अनायास ही
अपने मन की
उन्मुक्त उड़ान.
ढीली हो जाती है
मेरी पकड़
उसके पंखों पर,
उसके साथ ही
मैं भी उड़ जाता हूँ ,
फूलों की घाटी की ओर.
बहुत सुन्दर...
हर इंसान के अन्दर इसी तरह की छटपटाहट है कहीं न कहीं...
bahut hi sunder rachna rajeev ji har shabd apni baat kahata sa ..............gaharai se ukeri hui prastuti .
ReplyDeletebahut dino baad aapki kavita aayi .......swagat hai aur badhai swikaren rajeev ji
Shashi jee,
ReplyDeleteBahut-bahut dhanywad.Bahut sambalkari hain aap sabki baatein.
Aabhar.
Lambi bimari ke baad aap sabko padhne ka avsar mila... bahut achchhi rachna hai ye ... bahut2 badhai..
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा अंतरद्वन्द |
ReplyDeleteसादर |
bahut behtreen Rachna....
ReplyDeletehttp://ehsaasmere.blogspot.in/
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२४-१०-२०२०) को 'स्नेह-रूपी जल' (चर्चा अंक- ३८६४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है।आशा है आपको मेरी रचनाएँ पसन्द आएँगी और आप मुझे फॉलो करेंगे।प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कोमल भावों की शानदार अभिव्यक्ति कवि प्रकृति के साथ एकमेक होकर कैसे शब्दों से रचनात्मक सृजन कर बैठता है और यह समझता है कि वो स्वयं प्रकृति का हिस्सा हैं।
ReplyDeleteसुंदर सृजन।