Wednesday, July 13, 2022

 

॥ तुम कहाँ हो पियाली घोष?

जब भी मेरा कोई मित्र कोलकाता पहुँचता है;

किसी न किसी बहाने से

मुझसे ज़रूर पूछता है तुम्हारा पता।

मैं यही कहता हूँ – पियाली घोष मुझे अंतिम बार

नेशनल लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर, 2013 में मिली थी।

मेरे मित्र तुम्हें खोजने के लिए

कई बार नेशनल लाइब्रेरी गए,

पर उन्हें बड़ी-बड़ी बोलती आँखों वाली

और रजत किरणों से चमकते केश लिए

पियाली घोष नहीं मिली।

वे सीपीआईएम के अलीमुद्दीन स्ट्रीट कार्यालय भी जाकर आए;

पर तुम्हारा कोई पता नहीं मिला।

एक मित्र जो इन दिनों कोलकाता में हैं,

आज सुबह फोन पर कह रहे थे –

तुम क्यों नहीं देते हो अपनी मित्र का पता,

तुम्हारी कविता पढ़ कर

मैंने सीपीएम के चुनाव प्रत्याशियों की

बंगाल की पूरी लिस्ट तक छान मारी है।

अगर वह भारत में होती

तो पार्टी की सक्रिय कार्यकर्ता बनी रहती

मुझे ज़रूर किसी इलैक्शन रैली में मिल सकती थी।

मैंने कहा - क्यूबा, उत्तर कोरिया, वियतनाम,

लाओस या चीन चली गई होगी?

अपने स्वर्गीय पति के

अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए

किसी नक्सल बहुल क्षेत्र में चली गई होगी!

यह भी संभव है कि अपने पति की ही तरह

किसी मुठभेड़ में मारी गई हो?

तुम कैसे प्रेमी हो? दोस्त झल्लाता है।

मेरी स्मृति में एक लम्बी

ब्लैक एण्ड व्हाइट’ फिल्म चलती है।

ख़ुद से पूछता हूँ -

क्या मैंने कभी पियाली घोष से प्यार किया था?

जब 1984 में, मैं उससे पहली बार मिला था

वह एक सुदर्शना कन्या थी

जो प्रेसिडेंसी कॉलेज में राजनीति-शास्त्र और संगीत पढ़ते-पढ़ते

सीपीएम की महत्त्वपूर्ण कार्यकर्ता बन गई थी।

वह ज्योति बाबू की प्रबल समर्थक थी

और सर्वहारा के अधिकारों से जुड़े संघर्ष में सक्रिय थी।

मैं क्या था? एक सफेद कॉलर नौकरी से बंधा बैंक अधिकारी,

एक सुरक्षित प्रेम में जी रहा साधारण पुरुष।

क्या मुझे उससे प्रेम करने का कोई नैतिक अधिकार था?

वह एक अच्छी दोस्त थी,

जिसकी हर अदा चमत्कृत करती थी।

मैं पियाली घोष को कालांतर में उसी तरह भूल गया

जैसे कोई शिशु भूल जाता है माँ के दूध का स्वाद।

पर कभी नहीं भूलता माँ का साहचर्य,

वह दृष्टि जिसने उसे संबंधों को समझना सिखाया था।

पियाली घोष में मैंने एक सम्पूर्ण स्त्री को देखा था।

मैं सुनता आया था पृथ्वी गोल है और समय कभी नहीं लौटता।

पर उस दिन मेरे समक्ष किसी बलिष्ठ ग्रह की महा-दशा की तरह

29 वर्षों के बाद समय लौट आया था;

पियाली घोष, स्वर्ग की अप्सरा-सी मेरे सामने खड़ी थी

नेशनल लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर।

उसमें आयु से जुड़ी परिपक्वता के अतिरिक्त

कोई बदलाव नहीं आया था।

वह पहले से कहीं अधिक सुंदर हो गई थी,

उसके अनुभवों और जीवन-दृष्टि ने

उसके चेहरे को तेज युक्त कर दिया था।

वह महाभारत के युद्ध के बाद द्रौपदी-सी

चैतन्य स्त्री हो गई थी;

जिसने संघर्ष, खून और हत्याओं को

बिना पराजय स्वीकार किए शालीनता से सह लिया था।

पियाली घोष के अद्भुत कायांतरण के समक्ष

मेरे जीवन में भौतिक सुखों की मद्धिम सी रोशनी थी,

जिसे मैंने हर पल हार-हार कर संजोया था।

उसकी जीवट और संघर्ष का प्रकाश सूर्य जैसा था

जिसमें मेरी आँखें चौंधिया गई थीं।

मैं उसके किसी आमंत्रण को कैसे स्वीकार करता?

सुनेत्रा,

तुम इस थके-हारे पराजित पुरुष के

कठोर अहम्‌ को भली-भाँति पहचानती हो;

बताओ मैं पियाली घोष का पता

अपनी किस जेब में संभाल कर रखता?

--- राजेश्वर वशिष्ठ

09-04-2021

Where are you, Ms. Piyali ? 

Whenever any close friend of mine visits Calcutta

He is very keen to know about you,

About your whereabouts

By one way or the other.

I do tell them

"Last time I met her in 2013

On the stairs of the National Library."

My friends went to the Library several times

Just to search you out-

A doe-eyed girl with silvery hair,

But Piyali Ghosh was nowhere .

My friends visited even the office of CPI(M)

At Alimuddin street,

Here also,the air was silent on you.

One of my friends who is in Kolkata these days

Made me a call in the morning

And asked, “Why don’t you give the address of your friend?”

Reading your poem

I went through the entire list

Of CPM’s electoral candidates of Bengal.

Had she been an active member of the party

I might have seen her in some election rallies.

I said, ‘She might have gone to Cuba, North Korea,

Vietnam, Laos or China

Or in some Naxal dominated area

To finish the unfinished work of her late husband.

Next possibility was that

Like her husband

She might have been killed in one of the encounters.

“What kind of lover you are!” my friend yelled at me.

 In my memory a“Black & White” film is being screened.

I grow interrogative to myself,

“Did I ever love Piyali ?”

When I first met her in 1984

She was a pretty lass

Who became an important member of CPI(M)

While studying political science and music in the Presidency College.

She was a blind follower of Jyoti Babu,

And was actively fighting for the rights of proletariats.

I was nothing but a man of job.

Living within a framed love zone.

Did I have any moral right to love her?

She was a very good friend of mine.

Her each act mesmerised me .

With the passage of time

Piyali’s physical presence had lost its sheen

The way a child forgets the taste of mother’s milk

With the passage of time

But never forgets her touch and teachings

That makes him feel the pulse of relationship.

I have always seen her as a complete woman.

People say that the Earth is round

And time never takes a U-turn.

But impact of a strong planet is such

That past was before me

And after a long period of 29 years.

I was facing the ravishing Piyali, my Venus

On the same stairs of National library once again.

Time had matured her

And she was looking more gorgeous now.

As her experience and vision towards life

Enlightened her face.

She looked awakened

Like Draupadi after Mahabharta war

Who decently born the fierce fight,

Bloodshed and killings without accepting defeat.

There was a scant material exuberance

Stored by me with great efforts 

If compared to Piyali’s grand metamorphosis.

The sparkle of her hardcore struggle matched the Sunrays

The brightness whereof forced me to turn my face,

I was in no position to accept her invite.

Sunetra,

You very well know the unbeatable ego of  a fatigued and failed man

So tell me where and why should I have kept her address?

(Translation by:RAJIV KUMAR)

2 comments:

  1. मार्मिक रचना

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  2. बहुत अच्छी और मार्मिक रचना

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