अब तो
रह गया है
मेरी यादों में बसकर
मिटटी की दीवारों वाला
मेरा खपरैल घर
जिसके आँगन में सुबह-सबेरे
धूप उतर आती थी,
आहिस्ता-आहिस्ता,
घर के कोने-कोने में
पालतू बिल्ली की तरह
दादी मां के पीछे-पीछे
घूम आती थी,
और
शाम होते ही
दुबक जाती थी
घर के पिछवाड़े
चुपके से.
झांकने लगते थे
आसमान से
जुगनुओं की तरह
टिमटिमाते तारे,
करते थे आँख-मिचौली
जलती लालटेनों से.
आँगन में पड़ी
ढीली सी खाट पर
सोया करता था मैं
दादी के साथ.
पर,आज
वहां खड़ा है
एक आलीशान मकान,
बच्चों की मर्जी का
बनकर निशान.
उसके भीतर है
बाईक,कार,
सुख-सुविधा का अम्बार है.
नहीं है तो बस
उस मिटटी की महक
जिससे बनी थी दीवारें,
जिसमें रचा-बसा था
कई-कई हाथों का स्पर्श,
अपनों का प्यार,
नहीं है वो खाट
जिसपर
चैन से सोया करता था
मेरा बचपन.
एकबार फिर
जी लेने दो मुझे
उन यादों के साये में,
समझ लेने दो
अपनेपन का सार.
अपनेपन का सार.... ye yaaden
ReplyDeleteएकबार फिर
ReplyDeleteजी लेने दो मुझे
उन यादों के साये में,
समझ लेने दो
अपनेपन का सार.
-ओह!! सीधे दिल से दिल तक!!!
बहुत गहरे भाव.
ReplyDeleteक्या बात है.
एक बार फिर जी लेने दो ....बहुत अच्छे
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ReplyDeleteक्या बात है राजीव जी .कितनी सरलता से सब कुछ कह दिया .बधाई .
ReplyDeleteउन स्मृतियों में उतरना सुहाता है।
ReplyDeleteदिल में यादो का मेला है
ReplyDeleteआँखों में है नमी
ओर क्या कहें आपसे
ये ही है जिन्दगी .........आभार
bahut sundar prastuti , badhai
ReplyDeleteधूप उतर आती थी,
ReplyDeleteआहिस्ता-आहिस्ता,
घर के कोने-कोने में
पालतू बिल्ली की तरह
दादी मां के पीछे-पीछे
घूम आती थी,...
bahut sundar ye pamktiyan...Apne pan ki yaaden hamesha hi dil men basi hoti han ...bahut achi prastuti..badhai!
ऐसी सुंदर स्मृतियाँ कभी दी से दूर नहीं होतीं..... बहुत सुंदर .
ReplyDelete*दिल से
ReplyDeleteखुबसूरत रचना....
ReplyDelete"स्मृतियों के बादल बनके
विगत, ह्रदय में रिमझिम बरसे
उन्हें देखता चलचित्र सा,
भीग न पाऊँ, ये मन तरसे"
सादर....
... सरलता से सब कुछ कह दिया राजीव जी
ReplyDeleteअब तो जीना कहाँ है भाई....समय काटना है ! बहुत संवेदनशील कविता !
ReplyDeleteखूबसूरत और संवेदनशील अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
एकबार फिर
ReplyDeleteजी लेने दो मुझे
उन यादों के साये में,
समझ लेने दो
अपनेपन का सार.
सुंदर भावो से सजी भावपूर्ण रचना , बधाई स्वीकार करिएँ
गया वक्त कब लौट्कर आया है राजीव जी बस उसकी यादें ही हमे उम्रभर भरमाती रहती हैं।
ReplyDeleteबहुत गहरे भाव.
ReplyDeleteखूबसूरत
बढ़िया कविता.. आधुनिक जीवन के द्वन्द से उपजी...
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है , कृपया पधारें
ReplyDeleteचर्चा मंच
sushma verma to me
ReplyDelete"very nice...."
पुराने दिन याद करा दिए आपने तो...
ReplyDeleteभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति
ये बातें तो बस अब एक सपना भर ही रह गयीं हैं. कोमल अहसास
ReplyDeleteसुन्दर,भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर संवेदनशील भाव समेटे हैं!!
ReplyDelete!!यहाँ पर भी आयें!!
"घृणा पाप से करो पापी से नहीं"
मिटटी के घर और उसकी महक से साक्षात्कार कराती, मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयादों का बहुत ख़ूबसूरत पुलिंदा
ReplyDeleteबहुत संदर रचना
आपका मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है
http://wordsbymeforme.blogspot.com/
एकबार फिर
ReplyDeleteजी लेने दो मुझे
उन यादों के साये में,
समझ लेने दो
अपनेपन का सार.
भावपूर्ण रचना !
आदरणीय राजीव सर
ReplyDeleteआपकी इस कविता को मैंने कई बार पढ़ा है. हर बार मुझे अलग कोण और दृष्टिकोण मिले हैं आपकी कविता में. एक द्वन्द मिला है तो एक आशा मिली है. एक निराशा मिली है तो एक विश्वास भी मिला है. इस कविता को पढ़ते हुए मुझे एक आधुनिक अमेरिकन कवि और उपन्यासकार ए. केनिथ. बोर्तोन की एक कविता 'आई अंडरस्टैंड " की याद आ गई.. आप भी पढ़िए... बार बार कहता हूँ कि आपकी कविताओं में पश्चिम की संवेदनशीलता है.. यह आपको काफी आगे ले जाएगी सर... पढ़िए केनिथ. बोर्तोन की कविता...
I Understand
To be free of relationships
that manipulate people
To be anxious about the future
and one's self-importance
To trust openly
without pencil and pen
I understand
what it means to be a friend
To grow and mature
under loving care and tutelage
To share the same dreams
for family and kin
I understand
what it means to be a friend
To harbor fears about aging
and finality
To see the younger generation
as wanting to strive, not compete
To share of one's talents
and gifts out of love, not conceit
To be totally at peace
in spite of our sin
I understand
what it means to be a friend
ओह....
ReplyDeleteये टीस....
कुँवर जी,
bhawpooran abhivyakti....
ReplyDeletewaah... aise bhaawon ko kaise shabdon mei samet lete hain aap...
ReplyDeleteबेहतरीन और अनुपम अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteभाव और शब्दों का सुन्दर तालमेल.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर दर्शन दीजियेगा.
apnatv se bahri rachna...
ReplyDeleteकहाँ से जियेंगे वो अहसास , सब कुछ पीछे छूट गया है , प्यार आज भी है और रिश्ते भी लेकिन क्या वो बात है? पिता इस चिंता में लगा रहता कि कैसे इनको सारी सुविधाएँ दूं चाहे सर पर हाथ फिरने का समय न मिले. माँ भी मशीन की तरह से सुबह से शाम तक व्यस्त बस उसके पास समय नहीं है और बच्चे भी तो अब किताबों के बोझ तले दबे जी रहे हैं कब उन्हें दादी या माँ के साथ खेलने या दुलराने का समय बचा है. हम स्वर्ग सा जीवन जी चुके हैं और अब वो दुबारा नहीं मिलने वाला बस इसी तरह लिखा करेंगे और बच्चे कहेंगे -' क्या आप टूटी खाट में वह भी दादी के साथ सोते थे.' आपका अलग बेडरूम नहीं था. सच है न.....
ReplyDeleteएकबार फिर
ReplyDeleteजी लेने दो मुझे
उन यादों के साये में,
समझ लेने दो
अपनेपन का सार...
अपना आँगन ... बीता बचपन ... वो घर ... वो पेड़ ... सब कुछ ही याद आता है हमेशा ...
नहीं है तो बस
ReplyDeleteउस मिटटी की महक
जिससे बनी थी दीवारें,
जिसमें रचा-बसा था
कई-कई हाथों का स्पर्श,
अपनों का प्यार,
नहीं है वो खाट
जिसपर
चैन से सोया करता था
मेरा बचपन....
एक था बचपन..
एक था बचपन...
जिसकी यादों में है सुकून
आज भी, अभी भी...
उस मिटटी की महक
और प्यार भरे स्पर्श को
महसूस करना भर है..
बस आँख मूँद कर..
थोड़ी देर शांत बैठ जाएँ...!!
यही बचा है हमारे पास..
इससे ज्यादा कुछ नहीं !!
कृष्ण जन्माष्टमी के पावन पर्व पर आपको हार्दिक शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपके आने के लिए आभारी हूँ.
एक बार फिर से आईये.
भक्ति व शिवलिंग पर अपने सुविचार प्रकट कर अनुग्रहित कीजियेगा मुझे.