Thursday, August 11, 2011

बहन हो तुम.

बहन हो तुम. .
हर भाई का अरमान हो तुम
राखी के धागे में लिपटी
एक मनभावन पहचान हो तुम,
मां के जैसा है मान तेरा
घर-घर पाती सम्मान हो तुम.

स्वार्थ भरी इस दुनिया में
एक सुखद अहसास हो तुम.
घायल हाथों की पट्टी हो,
आहत मन का बाम हो तुम.
स्नेह का जलता दीपक हो,
ममता का बिम्ब महान हो तुम.
संचारी है रूप तुम्हारा,
सर्वोत्तम जीवन आयाम हो तुम.

तुमसे सूरज-चाँद हमारे,
झीलमिल,झिलमिल करते तारे,
हरा-भरा जीवन है तुमसे,
सच्चे सुख का संसार हो तुम.
इतना सुन्दर,इतना कोमल
है तेरे धागों का बंधन
मृग बन ढूंढ़ रहे जो खुशबू,
उसका भी स्रोत साकार हो तुम.

जब-जब माथे तिलक लगाती
राखी बांध जब तुम मुस्काती,
खुशियों की एक धार निकलती,
लगता सृष्टि साकार हो तुम.

ख़त में सिमटी तेरी बातें,
भींगे सावन की सौगातें
धागों में बंध बढ़ता जीवन
फूलों भरी बहार हो तुम

धरती हो तुम,आसमान हो तुम,
चमत्कारी वरदान हो तुम
रिश्तों का केंद्र हो,
बहन हो तुम.

Wednesday, August 3, 2011

समझ लेने दो

अब तो
रह गया है
मेरी यादों में बसकर
मिटटी की दीवारों वाला
मेरा खपरैल घर
जिसके आँगन में सुबह-सबेरे
धूप उतर आती थी,
आहिस्ता-आहिस्ता,
घर के कोने-कोने में
पालतू बिल्ली की तरह
दादी मां के पीछे-पीछे
घूम आती थी,
और
शाम होते ही
दुबक जाती थी
घर के पिछवाड़े
चुपके से.

झांकने लगते थे
आसमान से
जुगनुओं की तरह
टिमटिमाते तारे,
करते थे आँख-मिचौली
जलती लालटेनों से.

आँगन में पड़ी
ढीली सी खाट पर
सोया करता था मैं
दादी के साथ.

पर,आज
वहां खड़ा है
एक आलीशान मकान,
बच्चों की मर्जी का
बनकर निशान.
उसके भीतर है
बाईक,कार,
सुख-सुविधा का अम्बार है.

नहीं है तो बस
उस मिटटी की महक
जिससे बनी थी दीवारें,
जिसमें रचा-बसा था
कई-कई हाथों का स्पर्श,
अपनों का प्यार,
नहीं है वो खाट
जिसपर
चैन से सोया करता था
मेरा बचपन.

एकबार फिर
जी लेने दो मुझे
उन यादों के साये में,
समझ लेने दो
अपनेपन का सार.