पहले की तरह आज भी घायल हुई है रूह
इसबार भी लोगों का चैनों-सुकून छिना है
न हिन्दू मरा है,न मुसलमान मरा है,
हर एक धमाके में बस इन्सान मरा है.
रोया है आसमान भी औरों के साथ-साथ,
धरती का भी सीना चाक-चाक हुआ है.
चारो तरफ है दर्द का सैलाब यहाँ पर,
जेहन में बस गया है धमाकों का शहर आज.
रखती हैं हवाएं भी कदम फूंक-फूंककर,
इन हादसों का आज ये अंजाम हुआ है.
मजबूर है,कई पेट चल रहे है इसके साथ,
घर बैठ निवाला जुटा पायेगा कहाँ आज.
जाएगा कहाँ भागकर अपनी जमीन से
रफ़्तार में है जिंदगी के मौत साथ-साथ
उड़ते हैं आसमान में बस गिद्ध,चील,बाज,
डैनों में कहाँ दम कि कबूतर करें परवाज
हैवानियत की हर तरफ तस्वीर दिख रही
शांति का मसीहा नहीं दिखता है कहीं आज.
(एक बार फिर देश की आत्मा लहू-लुहान हुई है)
Dil Ka Aashiyana Where Every Relation has Its Relavance,Every Individual has his Place.Humanity Reigns Supreme.
Friday, July 22, 2011
Monday, July 18, 2011
बुढ़ापा होता है...........
बुढ़ापा होता है
पुराने साईकिल की तरह जर्जर,
इसके घिसे-पिटे टायर,
जंग लगे पाइप,
ढीले पड़े नट-वोल्ट,
लटकते पैडल
और गुमसुम पड़ी घंटी,
बहुत मेल खाते हैं
उसके आकर्षणहीन झुर्रीदार चेहरे ,
उसकी लडखडाती चाल से.
दोनों पर पड़ी होती है
समय की मार,
दोनों ही होते हैं
अपनों की उपेक्षा के शिकार,
दूसरों पर निर्भर और लाचार.
जैसे साईकिल को चाहिए
समय-समय पर रंग-रोगन,
अच्छा रख-रखाव,
बुढ़ापा भी चाहता है
अपनों का साथ,
रखना चाहता है
स्वयं को लपेटकर
यादों की रंगीन चादर में,
चाहता है
इसके साये में तय हो जाये
उसके जीवन का सफ़र
चैनो-आराम से.
बुढ़ापा होता है
सड़क के दोनों ओर खड़े
सरकारी पेड़ों सा कृशकाय,
अपने अस्तित्व की लड़ाई
स्वयं ही लड़ता हुआ.
आँधियों की कौन कहे,
तिरस्कार का एक झोंका भी
सहज ही
धराशायी कर जाता है जिसे,
जडें जो नहीं होती है
जमीन की गहराई में.
इसे तो चाहिए
थोड़ी मिटटी सहारे की,
तोडा सा स्नेह जल
सबल और सजल होने के लिए
ताकि अंतिम क्षण तक
सबको दे सके
अपनी बरगदी छाँव.
बुढ़ापा होता है
गुमनामी के गर्त में पड़े
जीर्ण-शीर्ण खँडहर सा
नितांत अकेला,उपेक्षित,
आलिशान अट्टालिकाओं के मध्य
जिसे चाहिए एक पहचान.
इसे देनी होती है
अहमियत
बतलाना होता है
सबको इसका महत्व
समझाना होता है
अपने-आप को
"खँडहर की भी होती है
एक सभ्यता".
सजाना होता है
गौरवशाली इतिहास से
इसका वर्तमान,
सुन्दर बागीचों से
इसका आस-पास.
समझ से परे है यह बात
सदियों से ईश्वर मान
जो पत्थर को भी
देते आये हैं सम्मान,
क्यों करने लगे हैं
अपने ही आनेवाले कल का
पग-पग पर अपमान.
बुढ़ापा तो होता है
ज्ञान का आसमान ओढ़े
समंदर सा विशाल
जिसकी छाती पर
सोता है समय
इतिहास बनकर,
ह्रदय में बसा होता
रिश्तों का संसार
रत्नों का ढेर बनकर.
(आज बड़े-बुजुर्गों की समाज में जो हालत वही इस रचना का प्रेरणा स्रोत है.)
पुराने साईकिल की तरह जर्जर,
इसके घिसे-पिटे टायर,
जंग लगे पाइप,
ढीले पड़े नट-वोल्ट,
लटकते पैडल
और गुमसुम पड़ी घंटी,
बहुत मेल खाते हैं
उसके आकर्षणहीन झुर्रीदार चेहरे ,
उसकी लडखडाती चाल से.
दोनों पर पड़ी होती है
समय की मार,
दोनों ही होते हैं
अपनों की उपेक्षा के शिकार,
दूसरों पर निर्भर और लाचार.
जैसे साईकिल को चाहिए
समय-समय पर रंग-रोगन,
अच्छा रख-रखाव,
बुढ़ापा भी चाहता है
अपनों का साथ,
रखना चाहता है
स्वयं को लपेटकर
यादों की रंगीन चादर में,
चाहता है
इसके साये में तय हो जाये
उसके जीवन का सफ़र
चैनो-आराम से.
बुढ़ापा होता है
सड़क के दोनों ओर खड़े
सरकारी पेड़ों सा कृशकाय,
अपने अस्तित्व की लड़ाई
स्वयं ही लड़ता हुआ.
आँधियों की कौन कहे,
तिरस्कार का एक झोंका भी
सहज ही
धराशायी कर जाता है जिसे,
जडें जो नहीं होती है
जमीन की गहराई में.
इसे तो चाहिए
थोड़ी मिटटी सहारे की,
तोडा सा स्नेह जल
सबल और सजल होने के लिए
ताकि अंतिम क्षण तक
सबको दे सके
अपनी बरगदी छाँव.
बुढ़ापा होता है
गुमनामी के गर्त में पड़े
जीर्ण-शीर्ण खँडहर सा
नितांत अकेला,उपेक्षित,
आलिशान अट्टालिकाओं के मध्य
जिसे चाहिए एक पहचान.
इसे देनी होती है
अहमियत
बतलाना होता है
सबको इसका महत्व
समझाना होता है
अपने-आप को
"खँडहर की भी होती है
एक सभ्यता".
सजाना होता है
गौरवशाली इतिहास से
इसका वर्तमान,
सुन्दर बागीचों से
इसका आस-पास.
समझ से परे है यह बात
सदियों से ईश्वर मान
जो पत्थर को भी
देते आये हैं सम्मान,
क्यों करने लगे हैं
अपने ही आनेवाले कल का
पग-पग पर अपमान.
बुढ़ापा तो होता है
ज्ञान का आसमान ओढ़े
समंदर सा विशाल
जिसकी छाती पर
सोता है समय
इतिहास बनकर,
ह्रदय में बसा होता
रिश्तों का संसार
रत्नों का ढेर बनकर.
(आज बड़े-बुजुर्गों की समाज में जो हालत वही इस रचना का प्रेरणा स्रोत है.)
Friday, July 15, 2011
उसके शाम की कहाँ होती है भोर.......
जब कभी देखता हूँ
अपने चारो ओर,
हर तरफ दिखाई देता है
जवानी का जलवा,
हर तरफ सुनाई देता है
जवानी का शोर.
समय के शिखर पर खड़ा
बुढ़ापा देखता रहता है चुप-चाप
जीवन में आता बदलाव,
स्वयं को पाता है
लेटा हुआ
शर-शैय्या पर
भीष्म सा.
चारो ओर होती
सिर्फ कौरवों-पांडवों की भीड़,
उसके शाम की
कहाँ होती है भोर......
अपने चारो ओर,
हर तरफ दिखाई देता है
जवानी का जलवा,
हर तरफ सुनाई देता है
जवानी का शोर.
समय के शिखर पर खड़ा
बुढ़ापा देखता रहता है चुप-चाप
जीवन में आता बदलाव,
स्वयं को पाता है
लेटा हुआ
शर-शैय्या पर
भीष्म सा.
चारो ओर होती
सिर्फ कौरवों-पांडवों की भीड़,
उसके शाम की
कहाँ होती है भोर......
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