Wednesday, December 15, 2021

 नम आँखों के प्रश्न !

औरत की आँखों को

कभी झील कहा ,

कभी सागर की गहराई नापी 

नील गगन की विशालता से

उनको परिभाषित किया गया,

अनुसुइया सी ममता देखी,

राधा सा  प्रेम ,

सीता सी सादगी,

दुर्गा सी दृढ़ता देखी।


झाँका नम आँखों में मैंने

वे एक माँ की आँखें थीं

बरसी थी ममता से भरी वे

अपने सब लालों पर

पर आज

वे नम थी

अपनी ममता के तिरस्कार

और बिखरे सपनों से,

उसकी ममता और त्याग

उसका फर्ज करार दिए गए थे.

बेटे के फर्ज सिर्फ अपने

लालों में सिमटे थे।

फिर भी

दिल में लिए दुआएं

बैठी थी मंदिर के द्वारे

बच्चों के हित में डूबी थी।


झाँका नम आँखों में

वे एक पत्नी की आँखें थी 

करके समर्पित जीवन अपना 

धारण कर कुछ चिह्न 

बनी थी कन्या से वो नारी 

बदले में जो कुछ पाया 

अपने घर के तानों से वो 

कभी मुक्त न हो पाई 

फिर भी 

तन मन से रही समर्पित 

नम आँखें कहती हैं 

मुझे बता दो कोई 

मेरा अपना अस्तित्व कहाँ हैं?

मैं कौन हूँ?

किसी की बेटी,

बहन किसी की ,

पत्नी हूँ मैं ,

और बहू बनी हूँ .

फिर माँ बनकर है इति ,

बस इतनी सी परिभाषा है,

इसी के साथ जाना है।


झाँका उन नाम आँखों में 

वे एक बेटी की आँखें थी।

हाय लड़की हुई !

फिर लड़की !

बड़ा भार है?

लड़की है दबा कर रखो 

सुना सभी कुछ 

सह न पाई 

उन नम आखों की पीड़ा 

किसने पढ़ी है?

किसने जानी?

पूछ रही वे नम आँखें 

आखिर ऐसा क्यों है?

अनचाहे हम क्यों हैं?

हमें हमारे ही लोग 

क्यों नहीं चाहते हैं?

जीकर भी क्या मिला हमें? 

उपेक्षा, तिरस्कार और बंदिशोंं ने

आत्मा की हत्या कर दी।

पूछ रही है वही 

वो कैसी नारी थी?

पूजा था जिसको सबने 

नमन किया था जग ने।

फिर क्यों हम 

रहे अधूरे 

मुकाम अपना खोज रहे हैं 

और मुकाम 

शायद मिल भी जाए 

शायद सब को नहीं मिलेगा .

नम आँखों के 

उठते प्रश्नों को 

उत्तर कौन है देगा?

उत्तर कौन है देगा?



QUESTIONS OF MOIST EYES

Shrestha,

It is very harsh to know

That you were treated and targeted

Like anything.

They described your eyes as deep as a lake or ocean, 

Nobody dared to fathom it out.

It was called  blue sky, 

Nobody dares to measure out 

Its upward blue.

There were many definitions 

With many shades.

Anusuiya’s  oozing affection for children,

Radha’s overbrimmimg love,

Meera’s hell bent devotion for His lord,

Saw simplicity filled Sita,

And Hardened core of Durga.

 

But today 

I looked into the moist eyes 

Of a lady,

She was a mother.

When I looked into her eyes

It was full of affection (for her children).

One day there was tears in her eyes,

Tears of separation , tears of agony

About the past 

Rudely forgotten.

Deeds were negated,

She was discredited

Of her love and care, 

Calling it her duty to the siblings

As theirs was for their children.

Seen sitting at the temple stairs

Keeping bouquet of blessings in her hand

For her thankless kids.


Next was the eyes of a young woman,

Wearing the symbols of newly wed bride.

It was the eyes of a wife,

Of a daughter of other side

Showing full devotion to the family,

But listening absurd for no reason,

The Moonless night continued.

There was no burning candle in sight.

Yet, she remained fully devoted to the cause,

Called “Family.”

Tears were always in an introductory mode,

“Will anybody show me the place of my existence?”

“Who am I ?”

The question always haunts my mind.

Now a bride, I’ll turn a mother

And be encircled 

To many more relations

Till  I lay to dust.


Now I looked into the eyes of a new born babe,

She is a nascent girl in her mother’s lap.

Many members of the family had a wry smile 

On their faces. 

There was murmur in the air,

The murmur of displeasure and despair,

”A baby girl is born again .”

“Keep her under strict vigil.”

Hearing such silent roars

Against her existence was unbearable

Such words were very piercing.

Nobody could see the moist pain in her eyes,

Agony of her mind against the apathy being faced.

She didn’t know why she was so unwanted.

Life was full cold taste,

Teasing scorns and blind restrictions. 

It ruined the emotional infrastructure

And killed my soul.


Now worshipped, now abhorred.

Where is the fullness of a women?

The search is still on.

Someone will save the Sun,

Someone go Moonless.


Who’ll come to answer,

Who’ll solve the puzzle of moist eyes.


Tuesday, December 14, 2021

 ॥छेदी राम॥

हम दोनों तीस साल पहले मिले थे

छेदी राम की इस छोटी सी दुकान पर

इंडिया एक्सचेंज के पास वाली गली में

मुझे नहीं पता था कलकत्ते की बारिश में 

दिल्ली के बने जूतों के सोल

किसी नाव की तरह बह जाते हैं

मुझे आश्चर्य था 

बालूजा का नया जूता पहली ही बारिश में

जनता के विश्वास की तरह बिखर गया

उन दिनों लोगों के पास 

दर्ज़न भर जूते भी नहीं हुआ करते थे

मेरे पास तो दूसरा भी नहीं था

कराहते जूते लिए

प्रवीर ने मुझे छेदी से मिलवाया 

और हम दोस्त बन गए

तब मैं और छेदी दोनों ही जवान थे

मैंने बताया, भाई बिल्कुल नया जूता है 

पता नहीं क्यों सोल निकल रहा है 

और पानी अंदर घुस रहा है;

छेदी ने जूते का मुआयना किया और बताया

बाबू, यह जूता बंगाल के हिसाब से नहीं बना है

मुझे अचम्भा हुआ 

जूतों में भी प्रांतीयता सर्वोपरी है!

छेदी ने कहा 

यहाँ चमड़े के सोल के ऊपर 

रबड़ का सोल भी ज़रूरी है

क्या आप नहीं जानते 

ज्योति बाबू की इंदिरा जी से अच्छी दोस्ती है 

इसी दोस्ती के चलते उन्होंने बंगाल में 

कांगेस को सोल विहीन कर दिया है

अब काँग्रेस के जूते में भी हुगली बहती है बाबू साहेब!

मैं इस गूढ़ दर्शन को समझ नहीं पाया

छेदी ने समझाया ------ 

तो आपके इस दिल्ली वाले जूते पर 

हम कलकत्ता का रबड़ सोल जड़ देते हैं

यहाँ के मशहूर चीनी जूता कारीगर 

इसे ही लगाते हैं

कामरेड इसी को पहन कर दिन भर

दफ्तरों के बाहर 

लाल सलाम, लाल सलाम कर कदमताल करते हैं

मैं छेदी की कलाकारी पर मुग्ध हो गया

हर नए जूते का यज्ञोपवीत संस्कार 

छेदी राम ही करवाते

कुछ ऐसे इंतज़ाम करते 

जो जूता बनाने वाली कम्पनियाँ 

जान-बूझ कर नहीं करती थीं

वह एड़ियों पर 

हवाई जहाज़ के टायर का रबड़ चिपका देता 

तो मुझे वैसा ही लगता जैसे लाखोटिया जी ने 

कोई टैक्स चोरी का नुस्खा बता दिया हो

जूता ठीक हो गया

यहाँ तक कि दौड़ने लगा

जिस दिन इंदिरा जी की हत्या हुई

आगजनी, लूट-पाट 

और बम-बाज़ी से आतंकित शहर में

जूता, डलहौज़ी से 

साल्टलेक, करुणामयी तक पैदल ही दौड़ा 

उस दिन मुझे समझ आया

जूता पहनने के लिए पाँव ही नहीं 

अक्ल भी ज़रूरी है।

----------- राजेश्वर वशिष्ठ



Chedi Ram (17/02/2021)

Almost 30 years ago

We met with Chedi Ram

At his small shoe repair shop,

May rightly be called shoe clinic/hospital

Near the lane behind India Exchange

And became good friends.


It was not known to me earlier

That sole of Delhi made shoes

Were humbly poor to face

The torrential rain of Calcutta

Where soles were swept away in no time.


I was shocked to see

Even Baluja’s new shoes gave way

Like people’s faith on voted one.

Those days it was very difficult to have

More than a single pair of shoes.


Surprised by such sudden but humiliating loss,

I went to shoe-master Chedi Ram with my friend

Carefully carrying the split shoes and its soles.


Both of us were younger lot then

And turned bosom friends by and by.

I told Chedi,” Listen my friend !

This is a brand new pair of shoes,

But failed to face the City rain

And the sole allowed water to seep in.

He very minutely examined my shoes

And humorously said,

’’Sir, this is not made for this place.’’

Again calmly said

’’Do you know one thing , sir,

Here leather soles need rubber soles either”


I was surprised to find the fact

That even shoes bore regional superiority.

His humour grew sarcastic,

“Indira was the best friend of Jyoti Babu,

But Congress lost its soul to him

And their soles float on the surface of Hoogali.”

Chedi grew philosophical,

’’ I’m pasting my rubber sole on leather one.

Chines shoe makers use this.


Comrades use it in their day long activities,

Taking marches to different offices.

I was mesmerised by his artistry.

He made me believe

That every sole needed a soul.

He was master of baptising soles

And we used to get it done by him.

He meticulously did something strange

That no shoe company ever preferred

–Pasting a piece of tyre of airplane

On the leather sole of company made shoes.

It appeared to me 

As if someone has taught me 

The trick of tax evasion.


I got the sole of my shoes properly repaired.

Now it was ready to bear my weight comfortably.

    The day when Mrs. Gandhi was assassinated

And Metro went on unbearable rampage,

My shoes made a rough race against time

Throughout the day

From Dalhausie to Saltlake to Karunamoyee.

That day my mind agreed to it

That wearing shoes needs thinking legs. 


 मैं भारतीय नारी हूँ 

मैं भारतीय नारी हूँ 

साड़ी मेरी,

मेरे अस्तित्व की पहचान है।

मैं अपनी बाँह पर इसका पल्लू रखती हूँ,

सतर्क लापरवाही से 

इसके सहारे 

बस कंधे के ऊपरी हिस्से की ढँकती हूँ,

मैं बुआ हूँ।

 

ढेर सारे अलपीनों के साथ

जिस तरह मैं साड़ी पहनती हूँ

और इसे टखनों से नीचे रखती हूँ

मैं घर की दादी हूँ।


जिस सावधानी से मैं 

अपनी साड़ी में चुन्नट लगती हूँ

और ध्यान रखती हूँ

“”मेरी साड़ी जमीन छूती रहे”,

मैं घर की नानी हूँ।


जिस तरह बड़ों के सामने नजरे झुकाए रहती हूँ

सलीके से मैं साड़ी पहनती हूँ

और बाद में ध्यानपूर्वक तह करके रखती हूँ।

मैं घर की माँ हूँ। 


जिस बेतरतीब तरीके से मैं 

अपने शरीर से साड़ी बांधती हूँ,

पहनकर बार-बार लड़खड़ाती हूँ

चाहे ऊंचाई कुछ भी रखूँ।

आईने में स्वयं को निहारती 

मैं इस घर की बेटी हूँ।

         

 राजीव कुमार

(05/02/2021)

 



 मैं घास हूँ

मैं घास हूँ

मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा

बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर

बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर

सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर

मेरा क्‍या करोगे

मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा

बंगे को ढेर कर दो

संगरूर मिटा डालो

धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला

मेरी हरियाली अपना काम करेगी...

दो साल... दस साल बाद

सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी

यह कौन-सी जगह है

मुझे बरनाला उतार देना

जहाँ हरे घास का जंगल है

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा

मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा ।

--पाश

I AM GRASS

See! I’m grass.

I’ll undo your seasoned efforts.

I’ll grow in every nook and corner.

Whether you bomb the university,

Turn the hostel into debris

Or dislol ate our huts,.

But what will you do to me ?

You know I’m grass

I’ll grow on every possible surface.

Destroy Banga or Sangroor,

Put Ludhiana District to dust,

But my greenery will  work

Be it after two years……ten years  or more

Passengers’ll again ask the conductor,

Which place is this,bro?

Please drop me at Barnala

Where there is jungle of grass.

Listen,I’m grass.

I’ll overshadow your efforts.

I’ll grow everywhere

Be it space of yours or others.

अनुवाद :रा जीव 

 कोरोना 

श्रेष्ठा,

सुनो मेरी बात।

आज  कितने विवश हैं हम,

कितनी विवश हो तुम,

कितना विवश है समय,


सूरज स्याह पड़ गया है 

विवशता अंतहीन क्षितिज बन गई है। 

हर तरफ हजारों मकान हैं,

मगर इंसान नजर नहीं आता॰

गली के आवारा कुत्ते भी 

सहमें,सहमें से हैं।


कौन लाया है रौशनी में अँधेरा,

कौन लायेगा अंधेरे में रौशनी, 

हमें बताना तुम। 

फर्श से छत तक 

घर की दीवारों मैं दहशत है,


घर के दरवाजों को,

खिडिकियों को छूने में डर लगता है,

कपड़ा पहनने,

कपड़ा बदलने में डर लगता है।

 

कोई किसी को देखना नहीं चाहता,

कोई किसी को छूना नहीं चाहता,

रिश्तों की मखमली चादर

तार-तार हो चली है।

 

अपनों को ढूँढने के लिए 

एक रौशन दीये की तलाश है 

इस स्याह अंधेरे में। 


 वृक्षारोपण

चुन्नु आओ,मुन्नु आओ,

मम्मी-पापा तुम भी आओ,

चलो नार्सरी पौधे लाओ। 


आज लगाओ,कल लगाओ,

दिन,महीने,साल लगाओ   

हर-दिन एक-एक पेड़ लगाओ,

सुबह-सबेरे उठकर आओ,

इनको पानी देकर जाओ।


चुन्नु आम तुम्हारा होगा,

मुन्नू ईमली तेरी होगी,

पापा,आम रसीला होगा,

मम्मी,ईमली खट्टी होगी।    


पत्ती-पत्ती,डाली-डाली 

हरियाली का जाल बिछाओ,

सारे,आओ,सारे आओ,

 सारे मिलकर खुशी मनाओ। 

 काश! तुम  आ जाते 

कई बार देखा है,

लोग झिड़क देते हैं उन्हें,

बच्चे, जवान, प्रौढ़-

हर उम्र का व्यक्ति -

बस झिड़कता है उन्हें। 

कभी किसी के आगे

हाथ नहीं फैलाते 

लेकिन मैंने देखा है,

प्लेटफॉर्म पर,

इसके पास, 

उसके पास जाकर

ध्यान से चेहरों को 

अपनी नज़रों से टटोलते हुए,

जैसे कुछ खोज रहे हों।

फिर चुप-चाप  में खड़े हो जाते  हैं,

'आगे बढ़ो बाबा, आगे बढ़ो '

आसपास से आवाज़ें पहले आने लगती हैं, 

लेकिन उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता

इन आवाज़ों से । 

वे भीख कहाँ मांगते हैं

किसी से

वे तो खोज रहे हैं

उस बेटे को,

जो साल भर पहले

उन्हें इसी प्लेटफॉर्म पर छोड़कर

 ग़ायब हो गया था,

पानी लाने के बहाने।

वे अब तक प्यासे हैं,

स्नेह के...........

लगाव के..........

इज़्ज़त के, 

और........

पानी की उस बोतल के

जो बेटा अपने साथ ले गया।

(सच्ची घटना पर आधारित)

(01/10/2020)

(वंदना अवस्थी दुबे (दीदी)की हिन्दी कविता

का अँग्रेजीअनुवाद 

Old Man On The Platform

Many a times

I have seen him

On the platform

Walking end to end,

His eyes searching for

Something,or someone 

Among men of every age:

Growing, grown ups 

And men of age,  

 And of experience. 


Insensitive lots at platform

Taking him to be a beggar,

And treating him the same way,

Disliked him absurdly 

And shied away

Having disdainful look at him

All for no reason.


The old man was not begging,

He was a distraught Columbus

Searching the shore

In the sea of human crowd

His interrogative look

Was searching for something

On every face,

In everyone’s eyes.


When felt tired,

He leaned against a cart

Full of boxes 

For some rest.

Passengers disliked his presence

Looking at his dishevelled attire,

Uncombed grey hair. 

Reason found no space.


Now some people started shouting,

“Move away from here, go away”.

But such sounds made no sense

As he was not begging,

He was searching for his son

Who has left him here a year ago

On the pretext to bring water for him.


He still has the thirst 

But of affection and respect, 

Not of bottled water.

Rajiv/7/12/21