कल जैसा नीला नहीं है आसमान
आज अँधेरा पहले से अधिक घना है,
दीये ने रौशनी से नाता तोड़ लिया है,
आज चमकता सूरज सिर पर है,
पेड़ों ने हरियाली का दामन छोड़ दिया है,
मुंह मोड़ लिया है सावन की घटाओं ने,
पुरवैया बयार ने बहना छोड़ दिया है.
गलियों-कुचों में रहते हैं ढेरों लोग,
फिर भी यहाँ सन्नाटा पसरा हुआ है,
सुख-सुविधाओं का लगा है अम्बार,
पर,बात-बात पर होने लगी है
अपनों में तकरार,
बच्चे भी भूल रहे हैं अपना व्यवहार,
जाने-अनजाने ही हर स्तर पर
होने लगा है रिश्तों का तिरस्कार ,
जलकुम्भी के ढेर सा हो गया है जीवन,
ढेर के ढेर पर सबकी जडें अलग-अलग,
नई जडें ज़माने की चाह में
हर बरसात में होते रहे अपनी जड़ों से जुदा.
अपनों की यादों को गुम हो जाने दिया है
गुम होती तस्वीरों के साथ
बस बचाकर रखा है
तो बिना भविष्य का एक छोटा-सा अतीत,
एक छोटा-सा वर्तमान.
जीवन-वृत्त को काटकर
रेखा बनानेवाले
कभी लौट नहीं पाते
अपने स्वर्णिम अतीत की ओर,
नहीं दे पाते अपने सपनों को मनचाहा रंग
क्योंकि रेखाओं की परिधि नहीं होती.
अतीत तो आज भी बाहें फैलाये
अंक में भर लेने को आतुर है वर्तमान
पर,वर्तमान अपने चका-चौंध से इतर
कहाँ देख पाता है,कब देख पाता है ये सब ?
सुख की चाह में गले लगा लेता है
जीवन-भर के लिए अकेलेपन का रोग
अवसाद-भरा,भटकाव-भरा.
Dil Ka Aashiyana Where Every Relation has Its Relavance,Every Individual has his Place.Humanity Reigns Supreme.
Monday, July 26, 2010
"उसका" ख़त
आज भी
जब देखता हूँ
"उसका" ख़त
याद आता है
बीता हुआ कल,
वो बैचनी,
वो अपनापन.
कैसे
बैचैन कर जाता था
उसके ख़त का
इन्तजार,
बढ़ा जाता था
मेरी भीतर की
बेकरारी.
लेकिन
उमड़ आते थे
घने बादल
लग जाती थी
सावन की झड़ी,
नाच उठता था
मेरा मन-मयूर,
उसका ख़त पाकर.
सुख से भर देती थी
मेरे मन-प्राण
उनके हाथ की लिखाई
क्योंकि
उसके पीछे होता था
उसका अक्स ,
उसका समर्पण ,
उसका प्यार.
लगता है मानों
वह स्वयं खड़ी हो
ख़त के मजमून में
मेरे लिए बाहें फैलाये
आज भी.
जब देखता हूँ
"उसका" ख़त
याद आता है
बीता हुआ कल,
वो बैचनी,
वो अपनापन.
कैसे
बैचैन कर जाता था
उसके ख़त का
इन्तजार,
बढ़ा जाता था
मेरी भीतर की
बेकरारी.
लेकिन
उमड़ आते थे
घने बादल
लग जाती थी
सावन की झड़ी,
नाच उठता था
मेरा मन-मयूर,
उसका ख़त पाकर.
सुख से भर देती थी
मेरे मन-प्राण
उनके हाथ की लिखाई
क्योंकि
उसके पीछे होता था
उसका अक्स ,
उसका समर्पण ,
उसका प्यार.
लगता है मानों
वह स्वयं खड़ी हो
ख़त के मजमून में
मेरे लिए बाहें फैलाये
आज भी.
Thursday, July 22, 2010
मेरा घर
मेरा घर है
छोटा सा,
टूटा-फूटा हुआ,
छप्परदार ,
इस छप्पर में हैं
ढेर सारे छेद.
जब उतर आती है
घनी अँधेरी रात ,
टूटे छप्पर के छेद से
झांकता है
एक मोहक तारा
शायद कहता है-
"तुम्हारी हालत पर
तरस आता है".
मैं जानता हूँ
वह मेरे घर को देखता है
घर के टूटे
छप्पर को देखता है,
मेरे मन को,
मन की उड़ान को
नहीं देखता
जो जाड़े की
सिहरन भरी रात में
रजाई की ओट से
छप्पर के पार
देखता है
तारों भरा आकाश
और
सोचता है
किसने बनाया होगा
नीला आकाश,
चमकता सूरज ,
दमकता चाँद.
किसने जड़े होगे
रात की चादर में
जगमगाते सितारे,
इतने सारे!
इतने मोहक!
इतने प्यारे!
छोटा सा,
टूटा-फूटा हुआ,
छप्परदार ,
इस छप्पर में हैं
ढेर सारे छेद.
जब उतर आती है
घनी अँधेरी रात ,
टूटे छप्पर के छेद से
झांकता है
एक मोहक तारा
शायद कहता है-
"तुम्हारी हालत पर
तरस आता है".
मैं जानता हूँ
वह मेरे घर को देखता है
घर के टूटे
छप्पर को देखता है,
मेरे मन को,
मन की उड़ान को
नहीं देखता
जो जाड़े की
सिहरन भरी रात में
रजाई की ओट से
छप्पर के पार
देखता है
तारों भरा आकाश
और
सोचता है
किसने बनाया होगा
नीला आकाश,
चमकता सूरज ,
दमकता चाँद.
किसने जड़े होगे
रात की चादर में
जगमगाते सितारे,
इतने सारे!
इतने मोहक!
इतने प्यारे!
Monday, July 19, 2010
कौन देखता है?
अनदिखे भावों के टूटन
कौन देखता है?
कौन देखता है
उनसे उभरता दर्द
कब देखता है?
सितार के तार का टूटना
और
उस टूटन में
उसके स्वर का
गुम हो जाना
तो सब देखते हैं.
कौन देखता है
एक अनगूंजा स्वर
देर तक ठहरा हुआ?
टूटते तो घरोंदें भी हैं,
हिरोशिमा भी,
उनका टूटना,
टूटकर बिखरना
तो सब देखते हैं,
पर अस्तित्व का
बिखरना
कौन देखता है,
कब देखता है?
आग और धुंए का
उठता गुबार
सब देखतें हैं
पर उसके साए में
पलते-बढ़ते
दूसरे गुबार को
कौन देखता है?
कौन भूलता है
उस घुटन का दर्द,
टूटन का दर्द?
कौन देखता है?
कौन देखता है
उनसे उभरता दर्द
कब देखता है?
सितार के तार का टूटना
और
उस टूटन में
उसके स्वर का
गुम हो जाना
तो सब देखते हैं.
कौन देखता है
एक अनगूंजा स्वर
देर तक ठहरा हुआ?
टूटते तो घरोंदें भी हैं,
हिरोशिमा भी,
उनका टूटना,
टूटकर बिखरना
तो सब देखते हैं,
पर अस्तित्व का
बिखरना
कौन देखता है,
कब देखता है?
आग और धुंए का
उठता गुबार
सब देखतें हैं
पर उसके साए में
पलते-बढ़ते
दूसरे गुबार को
कौन देखता है?
कौन भूलता है
उस घुटन का दर्द,
टूटन का दर्द?
Friday, July 16, 2010
पागल नहीं हूँ मैं
लोग
मुझे पागल
समझते हैं
क्योंकि
मैं
तन नहीं ढकता
अपने मन का,
नहीं ढो पता हूँ
संस्कारों की लाश,
सर्द रिश्तों का
बासीपन
अपनेपन की गर्माहट
नहीं देता,
नहीं देता
वो अनदिखी डोर
जो बांधे रखती है
हम दोनों को
साथ-साथ.
मेरी आदिम भावना
तपिश ढूंढ़ती है,
तपिश ,
रगों में
ढूंढ़ती है
खून का उबाल ,
ढूंढ़ती है
भावों में तड़प
तुम्हारे लिए
एक अनबुझी प्यास लिए
एक अनजानी चाह लिए .
मुझे पागल
समझते हैं
क्योंकि
मैं
तन नहीं ढकता
अपने मन का,
नहीं ढो पता हूँ
संस्कारों की लाश,
सर्द रिश्तों का
बासीपन
अपनेपन की गर्माहट
नहीं देता,
नहीं देता
वो अनदिखी डोर
जो बांधे रखती है
हम दोनों को
साथ-साथ.
मेरी आदिम भावना
तपिश ढूंढ़ती है,
तपिश ,
रगों में
ढूंढ़ती है
खून का उबाल ,
ढूंढ़ती है
भावों में तड़प
तुम्हारे लिए
एक अनबुझी प्यास लिए
एक अनजानी चाह लिए .
Thursday, July 15, 2010
दिल्ली
मेरी दिल्ली
अपनी सारी
विविधताओं,
अपनी सारी
विषमताओं
अपनी बदमिजाजी ,
अपनी सारी
बदगुमानी ,
अपनी झोपड़पट्टीयों,
अट्टालिकाओं के साथ
दिल्ली
कब मेरे दिल में
समां गई
पता ही नहीं चला.
इसके बहते नाले,
इसकी सूखी नदियाँ,
इसके भीड़-भरे चौराहे,
हर जगह धक्का-मुक्की
कब मन को भा गए,
पता ही नहीं चला.
यह भी पता नहीं चला
कब वह मुझमें
और मैं
उसमें.
अपनी सारी
विविधताओं,
अपनी सारी
विषमताओं
अपनी बदमिजाजी ,
अपनी सारी
बदगुमानी ,
अपनी झोपड़पट्टीयों,
अट्टालिकाओं के साथ
दिल्ली
कब मेरे दिल में
समां गई
पता ही नहीं चला.
इसके बहते नाले,
इसकी सूखी नदियाँ,
इसके भीड़-भरे चौराहे,
हर जगह धक्का-मुक्की
कब मन को भा गए,
पता ही नहीं चला.
यह भी पता नहीं चला
कब वह मुझमें
और मैं
उसमें.
Wednesday, July 14, 2010
चिट्ठी
बड़े जतन से
सहेजकर रखा है
तुम्हें आजतक ,
क्योंकि
तुझमें समाएं हैं
मेरे दादाजी , दादी मां,
और समाया है
मेरे लिए उनका प्यार .
तुझमें सिमटे पड़े है
उनके बोल,
बोल की मिठास,
उनका स्नेह,
उनका आशीष.
दादा-दादी तो नहीं हैं
आज हमारे बीच
पर,तुमने
संजो रखी है
उनकी यादें
अपने सीने में
मेरे लिए .
जब कभी भी
देखता हूँ तुम्हें
चल-चित्र की भांति
सामने आ खड़े होते हैं
वे दोनों .
आज भी
उन खतों में
घूमती है दादी,
उनकी बातें बुलाती हैं,
जब भी छूता हूँ तुम्हें
बन जाती हो
दादी मां की गोद,
दादाजी का कन्धा बन
सामने आ जाती हो .
आज भी
तुममें है
मेरा बचपन ,
मां का दुलार,
पिताजी की बातें,
उनकी नसीहतें
"दूर जा रहे हो,
नई जगह है,
ध्यान से रहना,
दूसरों से सदा
अच्छा व्यवहार करना "
पढ़ता हूँ तुम्हें
बार-बार,कई-कई बार,
पर,
उनमें लिखी बातों को
दूरभाष पर हुई बातों की तरह
बिसरा नहीं पाता हूँ
क्योंकि
वे ठहरी हुई हैं
तुम्हारे पन्नों में
सदा के लिए
यादें बनकर.
सहेजकर रखा है
तुम्हें आजतक ,
क्योंकि
तुझमें समाएं हैं
मेरे दादाजी , दादी मां,
और समाया है
मेरे लिए उनका प्यार .
तुझमें सिमटे पड़े है
उनके बोल,
बोल की मिठास,
उनका स्नेह,
उनका आशीष.
दादा-दादी तो नहीं हैं
आज हमारे बीच
पर,तुमने
संजो रखी है
उनकी यादें
अपने सीने में
मेरे लिए .
जब कभी भी
देखता हूँ तुम्हें
चल-चित्र की भांति
सामने आ खड़े होते हैं
वे दोनों .
आज भी
उन खतों में
घूमती है दादी,
उनकी बातें बुलाती हैं,
जब भी छूता हूँ तुम्हें
बन जाती हो
दादी मां की गोद,
दादाजी का कन्धा बन
सामने आ जाती हो .
आज भी
तुममें है
मेरा बचपन ,
मां का दुलार,
पिताजी की बातें,
उनकी नसीहतें
"दूर जा रहे हो,
नई जगह है,
ध्यान से रहना,
दूसरों से सदा
अच्छा व्यवहार करना "
पढ़ता हूँ तुम्हें
बार-बार,कई-कई बार,
पर,
उनमें लिखी बातों को
दूरभाष पर हुई बातों की तरह
बिसरा नहीं पाता हूँ
क्योंकि
वे ठहरी हुई हैं
तुम्हारे पन्नों में
सदा के लिए
यादें बनकर.
Wednesday, July 7, 2010
बिटिया
बिटिया,
तू तो
कविता है मेरी.
नाजों पली
तितलियों के पीछे
दौड़ती-भागती
फूलों से लदी
मखमली
परिधान में सजी
नन्ही गुड़िया है मेरी.
निःशंक सोयी रहती है
मेरी गोद में
सपनों का संसार लिए
और
मैं
अपने चारो ओर
बुनती रहती हूँ
कल्पनाओं के अद्भुत
जाल.
ओढ़ लेती हूँ
सितारों से जगमगाती
अँधेरी रात,
और
हो जाती हूँ
अनंत .
तुझमें पाती हूँ
जीवन के सारे रस
सारे रंग
सुख-दुःख के
दो किनारों के बीच से
बहता हुआ.
तुम लगा देती हो
मेरे मन-आँगन में
खुशियों की झड़ी
उमड़ आती है
सावन की घटा,
खुल जाते है
सारे सृजन-द्वार
जब तुम छलकाती
अपनी निर्मल,
निश्चल मुस्कान
कर जाता है
व्योम को पार
हमारा आनंद,
हमारा प्यार.
तू तो
कविता है मेरी.
नाजों पली
तितलियों के पीछे
दौड़ती-भागती
फूलों से लदी
मखमली
परिधान में सजी
नन्ही गुड़िया है मेरी.
निःशंक सोयी रहती है
मेरी गोद में
सपनों का संसार लिए
और
मैं
अपने चारो ओर
बुनती रहती हूँ
कल्पनाओं के अद्भुत
जाल.
ओढ़ लेती हूँ
सितारों से जगमगाती
अँधेरी रात,
और
हो जाती हूँ
अनंत .
तुझमें पाती हूँ
जीवन के सारे रस
सारे रंग
सुख-दुःख के
दो किनारों के बीच से
बहता हुआ.
तुम लगा देती हो
मेरे मन-आँगन में
खुशियों की झड़ी
उमड़ आती है
सावन की घटा,
खुल जाते है
सारे सृजन-द्वार
जब तुम छलकाती
अपनी निर्मल,
निश्चल मुस्कान
कर जाता है
व्योम को पार
हमारा आनंद,
हमारा प्यार.
Monday, July 5, 2010
तेरा स्पर्श
तेरा स्पर्श
मुझे
दूसरी दुनियां में
ले जाता है-
अन्तेर्मन की दुनियां में
जहाँ हिलोरें मारती उमंगें है
ठाठें मारता समंदर है
खुशियों का
नीचे
ऊपर है आसमान
नीली छतरी सा
पसरा हुआ
दूर सागर में
समाता सा.
लौकिक होते हुए भी
कितना अलौकिक है
तेरा स्पर्श
मेरे भावों को
ताजगी देता हुआ
और
देता हुआ
ढेरों अनसुलझे,
अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर
दुनियावी होकर
जिसका हल
नहीं ढूंढ़ पाता मैं.
तेरा स्पर्श
मुझे
मेरे होने का
अहसास कराता है
जीवन में
तुम्हारे होने का
महत्व बतलाता है
और
दिखलाता है
वह अदृश्य बंधन
जो
हमदोनों के साथ-साथ
सारे जग को
अपने बाहुपाश में
बाँध जाता है.
तेरा स्पर्श
उठा लेता है
गोद में
मेरा बचपन
संबंधों के
अद्भुत संसार की
सैर कराता है
भेद-भाव से बचाता है.
तेरा स्पर्श
मुझे पूर्णता की ओर
ले जाता है
अपनेपन का पाठ
पढाता है,
जीने की राह
दिखलाता है
एक अच्छा
आस्थावान इंसान
बनाता है.
तेरा स्पर्श
मुझे
वहां ले जाता है
जहाँ सारा द्वंद्व
निर्द्वंद्व हो जाता है,
साकार हो जाता है
निराकार ,
सीमाएं हो जाती हैं
आभाषी
और
सबकुछ
हो जाता है
एकाकार.
मुझे
दूसरी दुनियां में
ले जाता है-
अन्तेर्मन की दुनियां में
जहाँ हिलोरें मारती उमंगें है
ठाठें मारता समंदर है
खुशियों का
नीचे
ऊपर है आसमान
नीली छतरी सा
पसरा हुआ
दूर सागर में
समाता सा.
लौकिक होते हुए भी
कितना अलौकिक है
तेरा स्पर्श
मेरे भावों को
ताजगी देता हुआ
और
देता हुआ
ढेरों अनसुलझे,
अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर
दुनियावी होकर
जिसका हल
नहीं ढूंढ़ पाता मैं.
तेरा स्पर्श
मुझे
मेरे होने का
अहसास कराता है
जीवन में
तुम्हारे होने का
महत्व बतलाता है
और
दिखलाता है
वह अदृश्य बंधन
जो
हमदोनों के साथ-साथ
सारे जग को
अपने बाहुपाश में
बाँध जाता है.
तेरा स्पर्श
उठा लेता है
गोद में
मेरा बचपन
संबंधों के
अद्भुत संसार की
सैर कराता है
भेद-भाव से बचाता है.
तेरा स्पर्श
मुझे पूर्णता की ओर
ले जाता है
अपनेपन का पाठ
पढाता है,
जीने की राह
दिखलाता है
एक अच्छा
आस्थावान इंसान
बनाता है.
तेरा स्पर्श
मुझे
वहां ले जाता है
जहाँ सारा द्वंद्व
निर्द्वंद्व हो जाता है,
साकार हो जाता है
निराकार ,
सीमाएं हो जाती हैं
आभाषी
और
सबकुछ
हो जाता है
एकाकार.
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