लोग कहते है
बूढ़े बरगद वाले गाँव के लोग
बड़े अच्छे है, मन के सच्चे है
वहीँ से आया हूँ मैं।
चाहे कुछ भी हो जाये
अपने इस अतीत से जुडा रहूँगा मैं
क्योंकि मेरे वर्तमान, मेरे भविष्य के तार,
जुड़े हैं उनसे।
तुम छोड़ सको तो छोड़ जाना अपना अतीत,
अपना गाँव, अपने लोग,
जो आज भी हर होली, दिवाली,
तुम्हारे आने कि बाट जोहते हैं ,
आने पर ख़ुशी मनाते हैं।
तुम जी लेना अपना वर्तमान- जड़हीन,कटा-कटा,
टुकड़ों में बँटा-बँटा।
विवशता कहें या सुविधापरस्ती या कहें चाहत ,
क्या शहर ,क्या देहात ,
आज तो हर जगह लोग जी रहे हैं ,
टुकड़ा-टुकड़ा धरती ,टुकड़ा-टुकड़ा आसमान।
रिश्तों के नाम पर-पति-पत्नी और एक या दो वर्तमानी बच्चे,
जिनका सिर्फ वर्तमान है,अंतहीन वर्तमान,
अतीत है भी तो कितना सतही।
माँ-पिताजी - बस ,
आगे भी माँ-पिताजी- बस ,
आदि भी यही अंत भी यही।
नहीं जी पाउँगा ऐसा वर्तमान ।
मुझे तो अतीत से निकला वर्तमान दो ,
उसमें में मैं पीढ़ियों से जुडा हूँ - पीढियां
जो अतीत को वर्तमान से और वर्तमान को भविष्य से जोडती हैं आज भी।
Dil Ka Aashiyana Where Every Relation has Its Relavance,Every Individual has his Place.Humanity Reigns Supreme.
Thursday, December 17, 2009
Wednesday, December 16, 2009
हमारी दुनियां-कालिदास की दुनियां
सुना था,
कालिदास जिस डाल पर बैठे थे
उसी को काट रहे थे,
आज भी कालिदास अपनी जड़ों को काट रहे हैं।
लेकिन तब में और अब में एक फर्क है :
तब कालिदास मुर्ख थे ,समझे गए थे।
कुछ लोग कहतें हैं कि वे बेहद ज्ञानी थे, समझदार थे ,
दुनियां को जगाना चाहते थे।
लेकिन आज के कालिदासों का क्या करें
जो पेड़ों से गिरकर भी संभलने को तैयार नहीं हैं ।
उतर आयें हैं अपना अस्तित्व मिटाने पर।
सोच है दूसरे -मिटें तो मिट जायें ,पर वो बन जायें।
शेर ,चीते ,भालू तो सिमट रहे हैं तस्वीरों में,
कहीं अपनी भी तस्वीर न लटक जाये।
लेकिन किसे फिक्र है ,क्योंकर फिक्र है इसकी,
धरती गर्म होती है ,होने दो ,
आंच में कोई जलता है ,जलने दो।
पर उन्हें क्या मालूम
जिस दिन यह आग उनके घर तक जाएगी
उनका आशियाना भी उसी तरह जलाएगी।
अच्छा हो ,आज बादलों की बात हो ,
सबके घर-आँगन बरसात हो ,
चारो ओर पेड़ों की छाँव, नदियों की धार हो।
हरियाली से ही निकलेगा रास्ता ,
आगे बढें ,शुरुआत हो।
कालिदास जिस डाल पर बैठे थे
उसी को काट रहे थे,
आज भी कालिदास अपनी जड़ों को काट रहे हैं।
लेकिन तब में और अब में एक फर्क है :
तब कालिदास मुर्ख थे ,समझे गए थे।
कुछ लोग कहतें हैं कि वे बेहद ज्ञानी थे, समझदार थे ,
दुनियां को जगाना चाहते थे।
लेकिन आज के कालिदासों का क्या करें
जो पेड़ों से गिरकर भी संभलने को तैयार नहीं हैं ।
उतर आयें हैं अपना अस्तित्व मिटाने पर।
सोच है दूसरे -मिटें तो मिट जायें ,पर वो बन जायें।
शेर ,चीते ,भालू तो सिमट रहे हैं तस्वीरों में,
कहीं अपनी भी तस्वीर न लटक जाये।
लेकिन किसे फिक्र है ,क्योंकर फिक्र है इसकी,
धरती गर्म होती है ,होने दो ,
आंच में कोई जलता है ,जलने दो।
पर उन्हें क्या मालूम
जिस दिन यह आग उनके घर तक जाएगी
उनका आशियाना भी उसी तरह जलाएगी।
अच्छा हो ,आज बादलों की बात हो ,
सबके घर-आँगन बरसात हो ,
चारो ओर पेड़ों की छाँव, नदियों की धार हो।
हरियाली से ही निकलेगा रास्ता ,
आगे बढें ,शुरुआत हो।
क्योंकि पगडण्डी घर तक जाती है
पगडण्डी मन को भाती है ,
क्योंकि यह घर तक जाती है।
नागिन सी बल खाती ,इठलाती पगडण्डी ,
टेढ़ी-मेढ़ी ,आड़ी-तिरछी रेखाएं बनाती,
चलती जाती है,चलती जाती है ।
जीवन के अंतहीन प्रवाह की तरह ,
नदियों से समंदर तक ,
समतली मैदानों से उबड़ -खाबड़ पहाड़ों तक ,
मखमली घासों से कटीले झाड़ों तक ।
फिर भी हर-पल ,हर-क्षण मन को हर्षाती है ,
क्योंकि यह घर तक जाती है।
चकाचौंध से परे, वीरानो में पड़े - पड़े ,
अपना अतीत समेटे , अपना इतिहास बचाती है ,
जीवन को न रुकने का मूक सन्देश सुनाती ,
पथिक के अथक प्रयासों की गवाह बनती ,
राह दिखाती ,
आज भी घरों तक जाती है ।
क्योंकि यह घर तक जाती है।
नागिन सी बल खाती ,इठलाती पगडण्डी ,
टेढ़ी-मेढ़ी ,आड़ी-तिरछी रेखाएं बनाती,
चलती जाती है,चलती जाती है ।
जीवन के अंतहीन प्रवाह की तरह ,
नदियों से समंदर तक ,
समतली मैदानों से उबड़ -खाबड़ पहाड़ों तक ,
मखमली घासों से कटीले झाड़ों तक ।
फिर भी हर-पल ,हर-क्षण मन को हर्षाती है ,
क्योंकि यह घर तक जाती है।
चकाचौंध से परे, वीरानो में पड़े - पड़े ,
अपना अतीत समेटे , अपना इतिहास बचाती है ,
जीवन को न रुकने का मूक सन्देश सुनाती ,
पथिक के अथक प्रयासों की गवाह बनती ,
राह दिखाती ,
आज भी घरों तक जाती है ।
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