Tuesday, December 14, 2021

 कोरोना 

श्रेष्ठा,

सुनो मेरी बात।

आज  कितने विवश हैं हम,

कितनी विवश हो तुम,

कितना विवश है समय,


सूरज स्याह पड़ गया है 

विवशता अंतहीन क्षितिज बन गई है। 

हर तरफ हजारों मकान हैं,

मगर इंसान नजर नहीं आता॰

गली के आवारा कुत्ते भी 

सहमें,सहमें से हैं।


कौन लाया है रौशनी में अँधेरा,

कौन लायेगा अंधेरे में रौशनी, 

हमें बताना तुम। 

फर्श से छत तक 

घर की दीवारों मैं दहशत है,


घर के दरवाजों को,

खिडिकियों को छूने में डर लगता है,

कपड़ा पहनने,

कपड़ा बदलने में डर लगता है।

 

कोई किसी को देखना नहीं चाहता,

कोई किसी को छूना नहीं चाहता,

रिश्तों की मखमली चादर

तार-तार हो चली है।

 

अपनों को ढूँढने के लिए 

एक रौशन दीये की तलाश है 

इस स्याह अंधेरे में। 


No comments:

Post a Comment