Thursday, April 15, 2010

महानगर

यहाँ की सडकें चौड़ी-चौड़ी,
अट्टालिकाएं ऊँची-ऊँची,
यहाँ पर नाले नदियों जैसे,
नदियाँ सूखी- सूखी।
लोग चलते हैं यहाँ
मगर रवानी नहीं होती,
लोग पलते हैं
मगर बचपन नहीं होता,
लोग बढ़ते हैं
मगर जवानी नहीं होती ।
लोग सोते हैं यहाँ
मगर आँखों में नींद नहीं होती ।
यहाँ बस भूख होती है ,भूख ,
प्यास से गला सूखता है ,
क्योंकि यह महानगर है,
जहाँ सन्नाटा पसरा है भीड़ में
और
एक अजनबीपन छाया है
लोगों के बीच में ।

4 comments:

  1. आपकी कविता टी एस ईलीयोत कि कविता सी लागती है... क्या बात कही है आपने... "लोग पलते हैं
    मगर बचपन नहीं होता" या फिर "लोग सोते हैं यहाँ
    मगर आँखों में नींद नहीं होती ।" महानगर के जीवन के यथार्थ से परिचय करवा दिया आपने... सुंदर प्रस्तुती...

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  2. सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  3. Mahanagar ki rukhi aur bhavshunya jiwan sheili ka bahut sunder chitran.... badhai......

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