मैं
नींव की ईंट
बना,
पड़ा रहूँगा चुप-चाप
धरती के सीने में दफ़न
अनजानी सी पहचान लिए
ताकि तुम
गगनचुम्बी इमारत
बन सको,
ऊँचा ,बहुत ऊँचा
उठ सको।
लोग देखेंगे तुम्हे ,
सराहेंगे तुम्हारा कद ,
तेरा सौंदर्य !
औरों की तरह
तुम्हें भी याद नहीं आऊंगा
नींव के नीचे पड़ा मैं
क्योंकि नजर से दूर रहकर
तेरे दिल में
नहीं बस पाउँगा मैं ।
यह सच है ,
और
उतना ही शाश्वत और चिरंतन
जितना सूरज ,चाँद ,सितारे ,
धरती और आकाश।
बहुत ही शशक्त रचना... नीव की ईंट का त्याग तो सदियों से रहा है.. लेकिन आपकी रचना ने उसका स्मरण पुनः जीवंत कर दिया.. कविता पुरे लय में है... आपने ईंट को शाश्वत और चिरंतन बना दिया... कविता एक साथ कई अर्थ समेटे हुए है.. अच्छी रचना के सृजन के बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteyatharth se judi kavita hai. aapka lekhan prishkrit ho raha hai.... nikhar raha hai... badhai.......
ReplyDeletebahut sundar rachana
ReplyDeleteshekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/