Thursday, April 29, 2010

ठहरा हुआ बचपन

गाँव में
आज भी निकलता है
चाँद ,
अँधेरी रात
जगमगाती है
जग-मग करते
जुगनुओं ,
झील-मिल
सितारों से ,
पूरब की ओट से
ांकता सूरज भी है
और साथ में है
ठहरा हुआ
हमारा बचपन ।

सुबह-सबेरे
दादाजी की ऊँगली पकड़
कंधे पे बस्ता ,
हाथ में चटाई लिए
स्कूल जाता
बचपन ।

मास्टर जी से
आँख बचाकर
ईमली के पेड़ से
ईमली चुराता
और फिर
मास्टर जी से
मार खाता ,
उनकी छड़ी छुपाता
बचपन ।

खेतों की मेड़ों पर
दौड़ लगाता ,
हरियाली में
घुल-मिल जाता ,
तितलियों के पीछे भागता ,
कबूतरों को दाना चुगाता,
नदी की रेत पर
घरौंदा बनाता बचपन

मेले में जाने की
जिद करता ,
गुब्बारे के लिए मचलता ,
सपनों से लबरेज
सच के काफी करीब था
बचपन ।

तालाब के किनारे
खड़े-खड़े
एक छोर से
दूसरे छोर तक
पानी पर
पत्थर के टुकड़े
तिराता बचपन।

ये बचपन ही तो था
जो किसी की गोद में ,
किसी के कंधे पर
चढ़ा होता था ,
पापा की मार से
बचने के लिए
मां के आँचल में
छुपा रहता था ।

ये बचपन ही तो है
जो आज भी मन को
गुदगुदाता है ,
अतीत में ले जाकर
यादों के पालने में
झुलाता है ।

आज हम बड़े हो गए हैं,
पर आज भी
पूरी शिद्दत से
ठहरा हुआ है बचपन
हमारी यादों में ।




2 comments:

  1. "आज हम बड़े हो गए हैं,
    पर आज भी
    पूरी शिद्दत से
    ठहरा हुआ है बचपन
    हमारी यादों में । "
    बचपन को फिर से जी लिया आपने और हमे भी बचपन की यात्रा करा दी... बहुत की सुंदर रचना.. अदभुद... काश आज के बच्चों को भी हम ऐसा बचपन दे पाते...

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  2. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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