सूखी रेत की तरह
मैंने जिंदगी को
मुट्ठी से
फिसलते देखा है,
काफी करीब से
अपने वर्तमान को
अतीत में
बदलते देखा है
देखा है अपने सपनों को
सजते-संवरते,भरते उड़ान
बार-बार .
अपनी सोच की श्रंखला को
कई बार टूटते-बिखरते देखा है.
लोग आईने के पीछे
ढूंढते हैं खुद को
मैंने आईने में
खुद को बदलते देखा .
nice poem......
ReplyDeleteमैंने भी देखा है
ReplyDeleteज़िन्दगी को रेत की तरह फिसलते
और आस-पास कोई नहीं
सबकुछ बदलते
पर नहीं बदला मन
ज़िन्दगी को पकड़ने की कोशिश में लगा है
सुन्दर रचना!
ReplyDeletebahut umada rachna ! naya bimb rach rahe hai aap.... blank verse me aapka music lajwab hai...
ReplyDeleteबहुत अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवाह वाह सुभान अल्लाह ! क्या खूब देखा और दिखाया आपने
ReplyDeleteएक उम्दा रचना.
ReplyDeleteलोग आईने के पीछे
ReplyDeleteढूंढते हैं खुद को
मैंने आईने में
खुद को बदलते देखा .
वाह ……………क्या बात कह दी …………काश सब ऐसा देख पाते।
ये बदलाव सभी देखते है लेकिन उसके इस भाव से देख कर शब्दों में पिरो देना आपकी भावाभिव्यक्ति को नए आयाम देती हैं
ReplyDelete…काश सब ऐसा देख पाते।
ReplyDeleteलोग आईने के पीछे
ReplyDeleteढूंढते हैं खुद को
मैंने आईने में
खुद को बदलते देखा .
its a brilliant creation, great deep thoughts with great sense of introspection...