Thursday, August 5, 2010

काश!टिफिन का डब्बा ही बन पाया होता.

देखा था बहुत कुछ करने का सपना,
पर समय का लगा ऐसा फेर,
बनकर रह गया विचारों का ढेर,
टिफिन का डब्बा भी नहीं बन पाया.

किस्मत तो देखिये टिफिन के डब्बे की,
रोज-रोज भरा जाता है,
अपने भाग्य पर इतराता है,
ख़ुशी-ख़ुशी होता है
कई-कई कन्धों पर सवार,
कई-कई बार,
करता है गंतव्य की सवारी,
बदल-बदलकर गाड़ियाँ
बार-बार,लगातार.

पहुँच कर अपनी ठावं
लेता है एक गहरी साँस
चहरे पर होता है संतोष का भाव.
देखकर अपनों को तृप्त
भूल जाता है अपनी सारी थकान.
कुछ सार्थक कर पाने के दर्प से
होता है उसका मुखमंडल दीप्त.

एकाकीपन का अहसास तो सताता है,
जब दुखी मन से औरों की तरह
अपनी मंजिल पर अकेला जाता है.

लौटते हुए होगी सबसे होगी मुलाकात,
खाली होंगे,पर होंगे साथ-साथ
इस उम्मीद में भूल जाता है अपना गम.
मंजिल पर ही ठहरा रहेगा
मिलने-बिछड़ने का क्रम,
कम ख़ुशी की नहीं है ये बात,
कोई तो रिश्ता है हमारा
उनके साथ औरों के साथ.

9 comments:

  1. ज़िन्दगी के फलसफे को बहुत ही नए अंदाज में आपने टिफिन के डब्बे के माध्यम से बयां किया है.. नया बिम्ब है. नया प्रयोग है... कुल मिला के ए़क अच्छी कविता है !

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  2. या तो फ़ॉंट बड़ा करें या फ़ॉंट का रंग बदल दें। हम चश्मे वालों को दिक़्कत होती है।

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  3. यह कविता तरल संवेदनाओं के कारण आत्‍मीय लगती है और पाठकों कवि की रचनात्‍मक सोच के नए आयाम परिचय कराने में सफल है।

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  4. tifin ka dabba banne ki khwaahish........jahan n pahunche ravi, wahan pahunche kavi... ye baat charitarth hoti hai

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  5. टिफिन के डिब्बे का बिम्ब और अपनो कि संतुष्टि ....बहुत सुन्दर रचना

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  6. waah....
    tiffin ka dabba...
    aapne ye socha kaise ????
    bahut hi behtareen...

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  7. राजीव जी आपने बिम्‍ब बहुत अच्‍छा लिया,पर आपका उसका निर्वाह नहीं कर पाए। यह रचना तो बन ही गई। एक बार फिर टिफिन के डिब्‍बे को केन्‍द्र में रखें और सोचें कि आप और क्‍या क्‍या कह सकते थे इसके बहाने।

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  8. rajiv ji,
    tifin ke dabbon ke dwara insaani man ki abhivyakti, achha laga padhna. in panktion mein bahut gahra sach hai...

    कम ख़ुशी की नहीं है ये बात,
    कोई तो रिश्ता है हमारा
    उनके साथ औरों के साथ

    shubhkaamnaayen.

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  9. कम ख़ुशी की नहीं है ये बात,
    कोई तो रिश्ता है हमारा
    उनके साथ औरों के साथ
    सच आज सब रिश्तों को ही तरस रहें है काश इनसे ही कुछ सीख लें प्रशंसनीय प्रस्तुति

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