दूसरी सड़क के लोग हो
तुम लोग,
दूसरा आसमान है तुम्हारा,
गाढ़ा सिन्दूरी लाल,
दूसरी हवा है
दहशत भरी,
एकदम सर्द
तीखी-सी।
सूरज स्याह है ,
ए.के . 47 की तड- तड़ाहट के बाद
चूड़ियों के टूटने की आवाजके बीच से
उभरती है सिसकियाँ,
साथ ही उभरता है
मासूम आँखों में सिमटा
एक उलझन-भरा सवाल
" पापा बोलते क्यों नहीं,
क्या हो गया उनको ?"
कोई जवाब नहीं।
उसके ग़मगीन चेहरे पर
अभी भी ठहरे हुए हैं
कई उनुत्तरित सवाल,
ख़ामोशी में तैरते हुए ।
नेता,पुलिस,पडोसी,
सांत्वना के दौर,
लोगों का आना-जाना,
सर झुकाना और चले जाना।
लेकिन तुम्हे क्या?
तुम तो जेठ के सूरज हो
हवाओं को झुलसाते हुए,
शाम का क़त्ल कर
उसे खून से नहलाते हुए,
छोड़ जाते हो
अंतहीन रातें
रोने के लिए।
नेता,पुलिस,पडोसी,
ReplyDeleteसांत्वना के दौर,
लोगों का आना-जाना,
सर झुकाना और चले जाना।
लेकिन तुम्हे क्या?
तुम तो जेठ के सूरज हो
हवाओं को झुलसाते हुए,
शाम का क़त्ल कर
उसे खून से नहलाते हुए,
छोड़ जाते हो
अंतहीन रातें
रोने के लिए। "....
ये कविता अच्छी बनी है.. अंतिम अनुच्छेद बढ़िया बना है... सीधी भाषा में प्रहार है दहशत फ़ैलाने वालों पर..
लेकिन तुम्हे क्या?
ReplyDeleteतुम तो
जेठ के सूरज हो
हवाओं को झुलसाते हुए,
शाम का क़त्ल कर
उसे खून से नहलाते हुए,
छोड़ जाते हो
अंतहीन रातें
रोने के लिए.......shabdvihin waqt aur main
उसके ग़मगीन चेहरे पर
ReplyDeleteअभी भी ठहरे हुए हैं
कई उनुत्तरित सवाल,
ख़ामोशी में तैरते हुए ....aatankvaad ke parinam kitne bhayavah hain. phir bhi yah badta hi jaata hai.. na jaane kab thamega....
लेकिन तुम्हे क्या?
ReplyDeleteतुम तो
जेठ के सूरज हो
हवाओं को झुलसाते हुए,
शाम का क़त्ल कर
उसे खून से नहलाते हुए,
छोड़ जाते हो
अंतहीन रातें
रोने के लिए
-ओह! अद्भुत!
लेकिन तुम्हे क्या?
ReplyDeleteतुम तो
जेठ के सूरज हो
हवाओं को झुलसाते हुए,
शाम का क़त्ल कर
उसे खून से नहलाते हुए,
छोड़ जाते हो
अंतहीन रातें
रोने के लिए
उफ्फ़ .......!!!!! क्या कहूँ अब मन और ऑंखें दोनों भर आयीं
समसामयिक विषय पर खूबसूरत प्रस्तुति.
ReplyDeleteसूरज स्याह है ,
ReplyDeleteए.के . 47 की तड- तड़ाहट के बाद
चूड़ियों के टूटने की आवाजके बीच से
उभरती है सिसकियाँ,
साथ ही उभरता है
मासूम आँखों में सिमटा
एक उलझन-भरा सवाल
" पापा बोलते क्यों नहीं,
क्या हो गया उनको ?"
सच में कोई दूसरी ही हवा रही होगी इनकी .....!!
तुम तो जेठ के सूरज हो
ReplyDeleteहवाओं को झुलसाते हुए,
शाम का क़त्ल कर
उसे खून से नहलाते हुए,
छोड़ जाते हो
अंतहीन रातें
रोने के लिए।
बहुत मार्मिक....
दूसरी सड़क के लोग हो
ReplyDeleteतुम लोग,
दूसरा आसमान है तुम्हारा,
गाढ़ा सिन्दूरी लाल,
दूसरी हवा है
दहशत भरी,
एकदम सर्द
तीखी-सी।..........................इन दूसरी सड़क के लोगो का शिकार हम भी है
आपकी रचना ने सब कुछ आँखों के सामने ला दिया भाई जी ............ऐसे ही लिखते रहे..कभी तो सवेरा होगा