Wednesday, October 21, 2020

 

   मैं, तुम और समय

तुम और तुम्हारी बातें,

तुम्हारे संग बिताई गई  

हर सुबह,हर शाम,

दिसंबर-जनवरी की सर्द सुबह,

कोहरे की घनी धुंध में

एक-दूसरे के संग टहलते,

अपने कैंपस में

गुनगुनी धूप का इंतजार करते हम 

आज भी याद है मुझे,

शायद तुम्हें भी याद हो।

 

सच कहूँ तो

इन 30-35 सालों में

कुछ भी तो नहीं भुला मैं,

कुछ भी तो नहीं भूली तुम

ऐसा तुम्हारी बातों से लगा मुझे। 

 

      शुरुआत में लगा था 

अपनी-अपनी जिन्दगी में

मशगूल हो गए हम हैं, 

पर शायद ऐसा नहीं था, 

मेरे मन का एक कोना

अब भी तुम्हारा था, 

तुम्हारे लिए था

हाँ, बस वो सतही जुनून

शेष नहीं था ।

 

मेरी तरह तुमने भी

नई जिन्दगी की शुरुआत की थी, 

मैं समझता था

सामाजिक ताना-बाना,

समय की सोच और दुसवारियां 

मेरे से अधिक तुम पर हावी थी, 

मैं जानता था कितना मुश्किल था

अपने प्यार को नया मोड़ देना

अज़नबी से माहौल को अपनाना,  

उसे अपना बनाने की तैयारी करना 

और धीरे-धीरे उसमें रम जाना।

 

पिछले सभी रिश्तों से अलग

      एक नए रिश्ते की नींव बनना,

किसी की पत्नी,किसी की माँ बनना,

परिवार का दायित्व संभालना, 

अपनों के लिए समय निकालना 

बहुत मुश्किल था तुम्हारे लिए

 

जीवन की आपा-धापी में

समय कैसे बीता हमारा,

क्या बताऊँ ? 

बच्चे, स्कूल, ऑफिस और फिर घर,

सालों से यही रूटीन रहा है हमारा,

अपने घर में शायद तुम्हारा भी।

 

वर्षों बाद   

जब अपने शहर गया था 

मैं तुम्हारे घर गया था 

तुम्हारी माँ से लिया था 

तुम्हारा मोबाइल नम्बर

लगा था मानो  

कोई अनमोल तोहफा मिल गया हो।

 

आने वाले दो वर्षों तक रोज सोचता 

तुम्हें फोन करूंगा 

पर हिम्मत नहीं जुटा पाता था 

बस खुश था कि तुम्हारा नम्बर हमारे पास है, 

डरता था कहीं तुम बुरा ना मान जाओ, 

लगता था कि तुम्हारे घर वाले क्या सोचेंगे, 

यह दुविधा काफी समय तक बरकरार रही।

 

फोन करूं, ना करूं

इसी उधेड़बुन में काफी समय निकाल गया

क्योंकि मुझे अपने-आप से ज्यादा  

तुम्हारा ख्याल था 

अतीत और वर्तमान का अंतर

और भविष्य पर उसका असर  

बखूबी समझता था मैं

 

फिर भी एक दिन मैंने हिम्मत की  

और तुम्हें फोन कर ही दिया

घंटी बजी 

मन में उम्मीद जगी

घंटी कुछ देर-तक बजती रही 

फिर उधर से तुम्हारी आवाज आयी 

वर्षों हो गए थे जिसे सुने 

मन बिल्कुल शांत हो गया था,   

कोई प्रतिक्रिया नहीं 

फिर मैंने ही पूछा, “कैसी हो?

तुम्हारा उत्तर था,

“मैं ठीक हूं और तुम”

“मैं भी” बस यही संक्षिप्त उत्तर था मेरा,

 बोलने से अधिक

 तुम्हें सुनना चाहता था मैं ।

 

 मैंने आशंकित स्वर में पूछा,

 तुम्हें बुरा तो नहीं लगा मेरा फोन करना” 

 उसका उत्तर था, “अरे, नहीं ! बुरा क्यूं लगेगा भला,

 बहुत देर तक तुम और मैं 

 इधर-उधर की बातें करते रहे 

 

 फिर मैंने ही उसे बताया,

तुम्हारे खत आज भी मेरे पास हैं,

 मेरे साथ हैं,

 बड़े ही जतन से सहेजकर रखा है उसे,

 तुम्हारे विश्वास की तरह,

 कभी बिखरने नहीं दिया उसे 

 तुमसे वादा जो किया था।

  

तुम्हारे उन खतों में आज भी 

सबकुछ वैसे का वैसा है,

मेरे लिए तुम आज भी

वही स्कूल जाती लड़की हो

जो मेरी उन यादों का हिस्सा है।   

यादें जो भित्ति-चित्र सी बन गयी हैं

अजंता-एलोरा की गुफाओं की 

जिन्हें आँखें अंधेरे में भी देख सकती हैं।

 

जानती हो     

अब ये विचलित नहीं करती,

बस गुदगुदाती है,

मखमली अहसास कराती हैं।

 

फिर मैंने हँसकर पूछा था,

 याद है तुम्हें

खाना बनाते समय

मेरे ख़यालों में खो जाना,  

दाल और सब्जियाँ जला लेना,

      मांगने पर

      गणित की जगह

      अँग्रेजी की किताबें ले आना''

      'तुम  ही बताया करती थी।

 

सच कहूँ तो बहुत अच्छा लगा,

इतने वर्षों तुम्हारा बाद फोन करना, 

घर में सब ठीक है,

हाँ, मुझे शुगर की शिकायत हो गई है,

पर,सारे परहेज करती हूँ,

अपनी सेहत का खूब ख्याल रखती हूँ,

चिंता की कोई बात नहीं है, 

अब पहले से ठीक हूँ

   

जब भी समय मिले 

बीच-बीच में फोन कर लिया करो

तुमसे बातें करना अच्छा लगता है 

बस अपना ख्याल रखना और क्या कहूँ ।

 

याद है तुम्हें “तुमने कहा था

तुम्हें मेरे पीजी के दोस्तों से मिलना है” 

मैंने हामी भरी थी।

      मगर यूनीवर्सिटी जाते समय 

हम दोनों रिक्शे पर साथ-साथ नहीं बैठे थे, 

तुम रिक्शे पर और मैं साईकिल पर

तुम्हारे पीछे-पीछे। 

शहर की नज़र से वाकिफ था मैं

दोस्तों ने पूछा भी था, 

“साथ क्यूं नहीं आए”।

मैं मौन रहा 

कारण तुम जानती थी। 

 

      आज जब तुम्हारी गृहस्थी शबाब पर है 

मेरे बच्चों की तरह

तुम्हारे बच्चे भी अपने पैरों पर खड़े हैं

सुख के सारे साधन तुम्हारे कदमों में हैं 

अपना एक प्यारा सा घर संसार है 

ऐसे में अपने अतीत को भी समय देना,  

उस पर समय का साया न पड़ने देना 

एक सुखद अनुभव है।

 

      वर्ष 1995 में पहली बार

जब सदर थाने के पास मिली थी तुम

तुमने चाटवाले की दुकान पर चलने की जिद की थी  

मटर छोले की चाट तुम्हें बहुत पसंद थी। 

 

      तुमने पैदल ही घर चलने की जिद की  

जो वहाँ से लगभग एक किलोमीटर दूर था 

मैं समझ गया

तुम मेरे साथ कुछ और समय बिताना चाहती थी।

 

बातों में समय कब निकल गया 

पता ही नहीं चला,

तुम्हारे हाथों की बनी चाय-पीकर

मैं अपने घर के लिए निकला    

तो तुम्हारी नम आंखों की मायूसी

मेरे दिल को खल गयी।

 

लेकिन हम-दोनों जानते थे

हमारे रास्ते जुदा थे 

और हमें चलना था

अपने-अपने रास्तों पर,   

एक-दूसरे का सम्मान करना था।

 

अब  कभी मिले तो बातें होंगी  

नहीं मिले तो भी

मुझे पूरा भरोसा है

तुम हमेशा झांकती मिलोगी

यादों के झरोखे से।

      

        

       THE MOMENTS

        Even today

I can still smell out

The flavour of past

And I do believe

You too might be having

In your mind

The way we used to meet

At study every day.

 

I still remember

Both you and I

Used to walk together

Keeping hand in hand

In the cold January morning

Under the dense fog

On the silent road

And kept waiting

For the silky warmth of the sun

To come out.

 

Almost 35 years have gone by

Since we met but once,

Yet I didn’t forget anything,

You didn’t forget anything.

Evidence was there

In our telephonic discourse.

 

In the beginning

It seemed as if we were all busy

Without caring anything 

            In our small family frame,

But it wasn’t true and it couldn't be.

One corner of my heart was yours,

Where you still occupied a place.

But very very honestly I do agree now

That  the tender ‘boil’ was gone.

 

Like me,

You too started life afresh

On a new threshold of society.

I was aware of the social fabric then

And limitation encircling your freedom.

 

I knew how difficult it was

To make a shift in life,

To make a shift of love,

To adopt a fairly new environment,

Preparing to adopt them,

Absorb them

And become the part of them

One day.

 

It was absolutely unique

Laying a foundation stone,

Becoming someone’s wife,

Some one’s mom,

And accepting many more relations,

Being the lead of a family by chance.

 

Bearing the entire responsibility

Was not at all an easy task,

It was not easy either for you

To spare time for someone

You otherwise loved once.

 

In the race of life

I was unable to fathom out

The pace of time.

 

Children grew faster,

Toddlers turned adolescents

And became college goers and jobseekers

In no time,

Now well settled in their family frame.

I do believe

The same progression is there.

 

After parting with you,

Here I pendulously moved

           From home to office

And office to home till date.

This has become a routine of mine,

Probably yours there too

Though limited to household chores only.

 

After a gap of several years

When I visited my home-town

In the year 2007,

I did go to your house,

Met the members of the family

And got your mobile number

From your mom.

I felt very special that day

Having your number in my pocket.

 

By and by two years went by.

Every day I intended to make call,

But daren’t do that

’cause I was afraid of its being taken otherwise

By you or members of your family.

This kept me in doldrums for long,

I felt somewhat hazed

As I greatly cared for you.

I was happy to have you number

As if you were near me.

 

However,one day I dared

And dialled your number.

The bell rang

And kept ringing for some time,

Then came your voice,

I fell dumb stuck.

My heart skipped many breath.

As I was hearing you

After a gap of 22 years.

I eagerly asked you,”How are you?”

You replied,”I’m fine and You?”

“Me too” was my clipped reply,

I was more interested in hearing her.

 

In a very caring voice I asked her,

“ Did my call offend you”.

“No,not at all.”,You said.

You and I kept talking for long,

No topic was left unturned.

 

Do you know,

“Your letters are in safe hands.

It was like protecting your faith in me”.

“Yes,I know and will remain so”,she said.

 

Everything looks unchanged in those letters.

There you are still a portrait of a school going girl,

Pasted on the wall

That my eyes can see

Even in a blinded state.

They don’t disturb me now.

They make me happy

With their velvety feel smoothly preserved.

 

I reminded her of a funny incident.

One day while cooking

You got caught into two minds

And the pulses turned coal.

Similarly one Sunday

Half of the milk boiled over.

In a moment of trance,

When asked to bring the book of maths,

You carelessly brought that of English.

 

           Do you remember?

Once you told me,”I want to see your P.G. friends,

Living in  PG Girls’ hostel.”

I nodded in affirmation then.

The very next day at 10 in the morning

We left for the university campus,

You on a rickshaw and I on my bicycle

Just following you

As I was aware of the mind-set of the city then.

Friends made quarries but I didn’t say a word.

The reason you knew very well.

 

In the year 1995

When we met at Thana chowk

After a long gap of 10 years,

You insisted to go to Chaatwala’s shop

Lying opposite the Sadar Thana.

I knew that you were fond of spicy chaat.

 

Later you asked me to leave you home

That I readily agreed

As I also wanted to spend some more time with you.

Though it was more than a kilo meter away

But distance and time barely mattered

When we were on the road together.

 

Reaching home you prepared hot coffee

For you and for me

In the cold wintry night,

Sitting together we sipped and talked.

At 10 p.m. I left for my home

And you waved your hand and bade me good bye

With a deeply moist eyes

Which saddened core of my heart.

 

Your presence on FB was a treat.

After years I could see you,

You could see me

Present with family chain.

Your coming on WhatsApp

Is a glimmering surprise.

It helps us feel the words

And see the shimmering emotions there in.

 

But both of us knew it very well

That we were travelling

On two separate boats

           In different directions

           And we were to respect each-other

           Under the bigger circle of society.

 

           You told me with a mysterious smile,

“Your calling me 

After such a long gap was quite refreshing 

And heartening. 

Everything is fine in the family. 

I had some diabetic impact earlier, 

But now fine with my health and thanks. 

Do call me 

Whenever have time, 

Wherever have space for me .

Take care”.


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