तपती दोपहरी का शहर
जून का महीना है
चिलचिलाती धूप है,
हर तरफ पतझड़ है,सूखा है ,
गाड़ियों की कतार है,
धूल का गुबार है ।
मटमैली,दुर्गंधभरी नाले सी
बहती
मृतप्राय यमुना के एक तरफ शहर है,
उसकी ऊंची–ऊंची अट्टालिकाएं हैं,
खेतों में बसी घनी बस्तियां हैं,
झुग्गी-झोपड़ियों का अंबार हैं,
दूसरी तरफ पिघले कोलतार की लंबी,
जैसे-तैसे
तैयार सर्पीली सड़क है ।
सड़क किनारे बने बस-स्टैंडों के दोनों ओर
गिनी-चुनी डालियों और हजार-दो हजार हरे पत्तों वाले,
लोहे की जालियों में कैद,
बूंद-बूंद पानी को तरसते,
आसमान छूने को तैयार
सरकारी पेड़ लगे हैं।
लू के थपेड़ों से खुद को बचाने के लिए
एक कतरा छाँव
की तलाश में
उस पेड़ के नीचे आने की जद्दो-जहद मेँ
सूरज सिर पर लिए सवारियाँ
बेबसी से बस का इंतजार कर रही है।
अपने-आपको
चिलचिलाती धूप से बचाने के लिए,
मैंने तो गमले में ही गुलमोहर की पौध लगाई है,
यह जब बड़ा होगा ,थोड़ा और खड़ा होगा,
मैं इसकी छांव में बैठूँगा ।
वैसे तो मैं रोज ही बैठता हूँ
इसकी छांव में
जो मन के आंगन
में काफी बड़ा हो गया है,
लेकिन चिलचिलाती धूप
की तपिश बताती है
गुलमोहर अभी छोटा है,
उसकी छांव अभी छोटी है।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद,सर।
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