आज
मैं भी
रखना चाहता हूँ व्रत
तुम्हारे लिए ,
तुम्हारी लम्बी आयु के लिए,
रहना चाहता हूँ
निर्जलाहार
पूरे एक दिन
ताकि, महसूस कर सकूं
तुम्हारी श्रद्धा, चिंता ,
मेरे लिए
तुम्हारा समर्पण,
तुम्हारा प्यार,
देख सकूँ
तुम्हारा कामना से दीप्त चेहरा ,
जिसमें कांति है ,
पानी की चमक है
और है
मेरे लिए तुम्हारा प्यार ,
प्यास का जरा भी
अहसास नहीं है।
हर वर्ष रखती हो तुम
व्रत मेरे लिए
रहती हो दिन-रात
बिना जल का पान किये,
रचाती हो मेहंदी अपने हाथों में,
पैरों में लगाती हो महावर,
करती हो सोलह श्रृंगार
पूरी आस्था के साथ
लगाती हो माथे पर बिंदी,
मांग में सिन्दूर
जिसमें होती है
विश्वास की लाली,
जिसमें होता है
एक असीमित विस्तार
प्रकृति तरह।
बिटिया ने कई बार पूछा है -
एक सवाल ,
"मां ही क्यों रखती है हर व्रत
हर बार सबके लिए ,
आप क्यों नहीं रखते
मां के लिए कोई व्रत कभी",
मैं रहा निरुत्तर .........
हाँ,ये सच है कि मैं
कभी नहीं बाँध पाया स्वयं को
पूजा-पाठ ,व्रत-उपवास के बंधनमें
तुम्हारी तरह ,
पर, पल-पल बंधा रहा हूँ मैं
तुमसे ,
तुम सबसे,
निष्ठा रही है मेरी
आपसी संबंधों में,रिश्तों में.
तुमने समय के साथ चलकर भी
बांधे रखा स्वयं को परम्पराओं से ,
पर,परम्पराओं से अलग
मैं बंधा रहा
तुमसे,तुम्हारे सरोकारों से।
मैंने तो बस इतना जाना है
जब भी तुम परेशान हुई,
परेशान हुआ मैं.
तुम्हारी मुस्कान से
खिल उठता है
हम सबका मन ।
कहते हैं
ये रीति-रिवाज,व्रत-उपवास
रिश्तों की नींव मजबूत बनाते हैं
संबंधों का वटवृक्ष उगाते हैं
हर वर्ष आकर
हमें कुछ याद दिलाते हैं.
पर ,
तुम तो जीवन साथी हो मेरी,
बराबरी का है साथ।
तुम चाहो तो मिलकर ले आयेंगे
परम्पराओं में बदलाव ,
बदल देंगे
कुछ पुराने प्रतिमान,
नया गढ़ लेंगे ।
तुम सिन्दूर,बिंदी और कंगन को
बंधन नहीं ,
बना लेना श्रृंगार
मैं तेरे साथ मिलकर
बसा लूँगा एक संसार.
जहाँ प्यार और विश्वास ही होगा
जीवन का आधार।
sayad main bhi aisa hi kuchh chahta hoon, pas mere pass sabd aur soch nahi the....:)
ReplyDeletebahut khub likha aapne TEEJ ke awsar pe..:)
बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति………………चाहत का एक रंग ऐसा भी होता है।
ReplyDeleteकहते हैं
ReplyDeleteये रीति-रिवाज,व्रत-उपवास
रिश्तों की नींव मजबूत बनाते हैं
संबंधों का वटवृक्ष उगाते हैं
हर वर्ष आकर
हमें कुछ याद दिलाते हैं.
पर ,
तुम तो जीवन साथी हो मेरी,
बराबरी का है साथ.
तुम चाहो तो मिलकर ले आयेंगे
परम्पराओं में बदलाव ,
बदल देंगे कुछ पुराने प्रतिमान,
कुछ नया गढ़ लेंगे .
तुम सिन्दूर,बिंदी और कंगन को
बना लेना श्रृंगार
मैं तेरे साथ मिलकर
बसा लूँगा एक संसार.
जहाँ प्यार और विश्वास ही होगा
जीवन का आधार.
....... इससे बेहतर और कोई साथ नहीं, आस्था नहीं - मेरी निगाह में प्यार ही पूजा है, जीवन मंत्र है, शांति है , हौसला है - सत्य है !
आपकी इस कविता के भाव बहुत अच्छे हैं।बधाई और शुभकामनाएं। पर लगता है आपने पांच कविताएं एक साथ एक ही कविता में डाल दी हैं। इसी कविता को अगर एक क्रम में ही पांच स्वतंत्र कविताओं में रखते तो वे ज्यादा प्रभावशाली होतीं।
ReplyDeleteइस कविता में भी आप पहले तेरे या तेरी से संबोधित करते हैं फिर तुम या तुम्हारी पर पहुंच जाते हैं। बेहतर यही है कि शुरू से ही तुम या तुम्हारी संबोधन होना चाहिए।(राजीव भाई ने मेल से जो कविता भेजी थी,उसमें आरंभ में तेरे,तेरी ही था। मेल से दिए गए मेरे सुझाव पर उन्होंने इसे ठीक कर लिया है। आभार।)
आखिर में आकर आप पहले प्रतिमानों को बदलने की बात करते हैं फिर सिन्दूर,बिन्दी और कंगन को ही श्रृंगार बना लेने के लिए कहते हैं, यहां कुछ अर्थ बना नहीं।
कविता कसावट भी मांगती है।
September 13, 2010 12:08 AM
आज
ReplyDeleteमैं भी
रखना चाहता हूँ व्रत
तुम्हारे लिए ,
तुम्हारी लम्बी आयु के लिए,
रहना चाहता हूँ
निर्जलाहार
पूरे एक दिन
ताकि, महसूस कर सकूं
तुम्हारी श्रद्धा, चिंता ,
मेरे लिए
तुम्हारा समर्पण,
तुम्हारा प्यार,
देख सकूँ
तुम्हारा कामना से दीप्त चेहरा ,
जिसमें कांति है ,
पानी की चमक है
और है
मेरे लिए तुम्हारा प्यार ,
प्यास का जरा भी
अहसास नहीं है।
awesome lines... well executed...
koi itna kah bas de to dil khush ho jaye...
hey prabhu!!! vintee hai aapse har ladkee aisa hi var paaye...
राजीव जी ,
ReplyDeleteआपकी यह कविता मन के भावों को छूती है ...स्वयं को सशक्त शब्दों में अभिव्यक्त किया है ..
... behatreen rachanaa, badhaai !!!
ReplyDeleteआपने ए़क जादू कर दिया है शब्दों का.. जितनी भी तारीफ़ की जाय काम है....आधुनिकता के साथ परंपरा को निभाना.. उसे नया आयाम देना .. यह भाव कविता में स्पस्ट हो रही है.. जैसे मन के भाव बहते हैं.. कविता अपने लय और प्रवाह में हैं.. बधाई..
ReplyDeleteबिटिया ने कई बार पूछा है -
ReplyDeleteएक सवाल ,
"मां ही क्यों रखती है हर व्रत
हर बार सबके लिए ,
आप क्यों नहीं रखते
मां के लिए कोई व्रत कभी",
मैं रहा निरुत्तर .........aaj bhi samaj ke paas is prashna ka koi uttar nahi hai.. eak achhi kavita ke liye aapko badhai.. unko bhi jinke liye kavita likhi hai aapne...
मैं तेरे साथ मिलकर
ReplyDeleteबसा लूँगा एक संसार.
जहाँ प्यार और विश्वास ही होगा
जीवन का आधार।
राजीव जी, पारस्परिक प्रेम हमारे सभी उल्लासों की शिरोमणि है। और विश्वास एक बड़ी प्राणदा वस्तु है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
शैशव, “मनोज” पर, आचार्य परशुराम राय की कविता पढिए!
मन को छूती हुई रचना ...बहुत भावपूर्ण.
ReplyDeleteबिटिया ने कई बार पूछा है -
ReplyDeleteएक सवाल ,
"मां ही क्यों रखती है हर व्रत
हर बार सबके लिए ,
आप क्यों नहीं रखते
मां के लिए कोई व्रत कभी",
सच ये सवाल लगभग हर घर में पूंछ ही लिया जाता है. बहुत खूबसूरती से मन के भाव निकल कर आए हैं
"तुम सिन्दूर,बिंदी और कंगन को
ReplyDeleteबंधन नहीं ,
बना लेना श्रृंगार"
एक बात स्पष्ट कर दूं कि अन्तिम पैरा में जो सिन्दूर,बिंदी और कंगन को श्रृंगार बना लेने कि बात कही गई है उसका आशय यह है कि इसे परंपरागत बंधन के रूप में स्वीकार न करते हुए भी सौन्दर्य prasadhan ke roop mein धारण किया जा सकता है. yahan "बंधन नहीं" utsahi jee ke sujhaw ke bad maine dala hai.
rajiv ji,
ReplyDeletekal aapne kavita likhi, parso haritaalika teej thaa jo patiyon ke liye hota hai, patni karti hai. nihsandeh beti ke mann me ye sawal aana jayaz hai ki maa ke liye koi vrat kyon nahin? jabki kahte ki pyar barabar aur adhikar barabar. aapki kavita padhkar wo vrat aur us din ka shringaar aur fir rishton mein pyaar aur tyohaar ka auchitya sab saamne aa gaya. sundar bhaav, shubhkaamnaayen.
कभी किसी के लिए बरत रखने पर होने वाले अहसास का बहुत भाव पूर्ण वर्णन किया है |बधाई
ReplyDeleteआशा
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteमैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
बेहद भावपूर्ण!!
ReplyDeleteहिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!
बहुत ही भावपूर्ण और संवेदन भरा चित्रण किया है आपने
ReplyDeleteपुरुष की भावनात्मक सोच का ........
काश की हर पुरुष इतना ही संवेदनशील हो जाये अपनी जीवन संगिनी के लिए
apni yah rachna yaa phir koi aur vatvriksh ke liye parichay aur tasweer ke saath mail karen -
ReplyDeleterasprabha@gmail.com
हाँ,ये सच है कि मैं
ReplyDeleteकभी नहीं बाँध पाया स्वयं को
पूजा-पाठ ,व्रत-उपवास के बंधनमें
तुम्हारी तरह ,
पर, पल-पल बंधा रहा हूँ मैं
तुमसे ,
तुम सबसे,
निष्ठा रही है मेरी
आपसी संबंधों में,रिश्तों में.
kya khub likhte hai aap
agr sab aap jaisa sochne lage tho kabhi kisi rishte mei khtass aaye hi nahi
bahut khub
waah rajiv ji bahut khub likha aapne...kabhi u hi karke dekhiyega...such kahu to jo anutha anubhab milega wo hamesha yaad dilaega ki ...aapko unki kitni fikar hai....bahut sundar
ReplyDeletewah rajeev ji
ReplyDeletekash duniya ke saare mard aise hi sochne lage to kitna acha ho :)
bahut pyari rachna