दादी बड़े जतन से
बनाया करती थी बोरसी,
कुम्हार के घर से मंगवाती थी
काली दोमट मिटटी,
पानी मिला-मिलाकर
गूंधती थी उसे ,
मिलाती थी उसमें
पुआल बड़े-बड़े टुकड़े
जो उसकी उम्र बढ़ाते थे.
फिर पूरी तन्मयता से देती थी
उसे मनचाहा आकार
जैसे हो कोई शिल्पकार।
सुघड़ता और चिकनाई का
रखती थी पूरा-पूरा ध्यान
क्योंकि उसे नहीं था पसंद
रुखड़ापन,
न बोरसी में
और न ही व्यवहार में.
सुखाती थी उसे कई-कई दिन
सूरज की आंच में धीरे-धीरे
क्योंकि उसे
सहेजकर रखनी होती थी आग
अपने लिए, औरों के लिए।
पूस की रात हो
या लगी हो सावन की झड़ी ,
दादी की बोरसी में होती थी आग
कभी लपटों के साथ जलती हुई ,
कभी नवजात शिशु की भांति
गर्म राख की चादर ओढ़े
पड़ी होती थी
ग़ुम-सुम,चुप-चाप ।
शायद ही कभी
बुझती थी ये आग,
दादी जलाये रखती थी,
जगाये रखती थी इसे
हर-पल, हर-क्षण .
जब सोने जाती,
बड़े जतन से रख लेती थी
खाट के नीचे इसे,
गर्म रखती थी
अपना जर्जर होता शरीर,
बनाये रखती थी
रिश्तों में गर्माहट
इसे बाँट-बांटकर ।
जब लगती थी सावन कि झड़ी
चाह कर भी
नहीं निकल पाता था सूरज
बादलों को भेदकर
कई-कई दिन।
और ग्लूकोज के टिनही डब्बे में
सहेज कर रखी
माचिस कि तीलियाँ भी
सिल जाती थी,
कर देती थी जलने से इन्कार
तब कम आती थी
दादी मां की बोरसी में आँखें मूंदें
अलसाई पड़ी आग।
नहीं बुझने देती थी दादी मां
किसी के घर का चूल्हा .
जब भी कोई मांगनें आता
राख को हौले-हौले कुरेद कर
जतन से बाहर निकालती थी
एक छोटा टुकड़ा आग का ,
सूखे उपले पर रखकर दे देती थी
जरूरतमंद को।
कड़कड़ाती ठंढ में
सुसुम दूध में मिलाकर जोरन
इसी बोरसी की गुनगुनी आंच में
दही जमाती थी दादी मां,
दूसरों को जोरन देने में भी
कभी पीछे नहीं रहती थीं,
शायद जानती थी
इससे भी जमता है
आपसी रिश्ता
बिलकुल दही की तरह ।
दादाजी को भी दिया करती थी
जिससे जलता था अलाव,
जलता था उनका हुक्का,
जिसे बड़े चाव से पीते थे
दादाजी और उनके ढेरों दोस्त,
जिसके धुंए में होती थी
तम्बाकू की गंध
और रिश्तों की महक
साथ-साथ.
उनकी बोरसी की आग से ही
जलाई जाती थी
हमारी लालटेन कई बार
उसके चारो ओर बैठे होते थे हम
पतंगों की तरह.
दादी की आग
सिर्फ औरों का चूल्हा ही नहीं जलाती थी,
सूरज की सहचरी बन
उसके आने तक
उजाला फैलाती थी.
जीवन के हर तम को
दूर भगाने का
रास्ता दिखाती थी.
(बोरसी=अंगीठी;जोरन=जामन;सुसुम=गुनगुना )
हमेशा की तरह ये पोस्ट भी बेह्तरीन है
ReplyDeleteकुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....
बहुत अच्छी यादों को करीने सी सजाती पोस्ट. बहुत कुछ खोया पाया याद दिला गयी
ReplyDeleteसही कहा कि जीवन का हर तम दूर भगाने का आशीष होता था। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteआभार, आंच पर विशेष प्रस्तुति, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पधारिए!
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
koi lauta de wo apne apne se khwaab, ho jaye phir se pyaar ki borsi garm
ReplyDeleteशायद ही कभी
बुझती थी ये आग,
दादी जलाये रखती थी,
जगाये रखती थी इसे
हर-पल, हर-क्षण .
जब सोने जाती,
बड़े जतन से रख लेती थी
खाट के नीचे इसे,
गर्म रखती थी
अपना जर्जर होता शरीर,
बनाये रखती थी
रिश्तों में गर्माहट
इसे बाँट-बांटकर ।
खूबसूरत यादों को खूबसूरती से सहेजा है ...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता... यादो के पालने मे झुला रही है कविता.. फ़िल्मो सा विस्तार...
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