Sunday, September 19, 2010

काश ! कुछ किया होता

हर बरसात में
टूटी सड़क,
रास्ते हो गए
उबड़-खाबड़
उनमें गड्ढे उभर आये,
चलना लगने लगा दूभर,
पर ठीक करने कि नहीं सोच पाए
रास्ता बदल लिया
क्योंकि बेहद परेशान थे.

टपकती रही टूटी छत,
कोशिश नहीं की
दरार भर जाये,
कोसते रहे बरसात को
होते रहे परेशान .

लेकिन बरसात का क्या ?
बरसता ही रहा
कभी बे-मौसम,
कभी सावन की घटा बनकर.

टूटी सड़क बना पाते
तो शायद चल पाते ,
छत की दरारों को भर पाते
तो शायद
भीगनें से बच जाते .

पर,हमतो
रास्ते बदलते रहे,
घर बदलते रहे,
रोक नहीं पाए बरसात,
न ही सड़क का टूटना
न ही छत टपकना.

ना ही सड़क ठीक कर पाए,
ना ही अपना घर
बस भींगते रहे,
भागते रहे
अपने-आप से.

11 comments:

  1. भावों को शब्दों में तराश कर रख देने में आप माहिर हैं ही...
    क्या कहूँ.

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  2. मार्मिक मन को छूने वाली प्रस्तुति......

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  3. bahut hi umdaah prastuti.....
    dil ko chhoone waali rachna...
    ----------------------------------
    मेरे ब्लॉग पर इस मौसम में भी पतझड़ ..
    जरूर आएँ..

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  4. टपकती रही टूटी छत,
    कोशिश नहीं की
    दरार भर जाये,
    कोसते रहे बरसात को
    होते रहे परेशान .... aur apne dayitwon kee itishree samajh li ... bahut badhiyaa

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  5. actually hamne pareshaniyon ko dur karne ke badle us se palla jharna jayda uchit samjha.....:)
    yahin to ham bhartiyon ki pahchan hai..:)

    badhiya!!

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  6. राजीव जी सुन्दअर कविता.. अकर्म्यता स्वयम की और सरकार की.. सही रेखन्कित किया है..

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  7. वाह क्या अभिव्यक्ति है। हम सारी ज़िन्दगी समस्याओं को देख रास्ते ही तो बदलते रहते हैं। और समस्याएं हमारा पीछा छोड़ती ही नहीं... इस भगम भाग में जो गड्ढा है और बड़ा होता जाता है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

    और समय ठहर गया!, ज्ञान चंद्र ‘मर्मज्ञ’, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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  8. बस भींगते रहे,
    भागते रहे
    अपने-आप से.

    hmm...Happens !..This is life .
    ..

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  9. Prasoon Dixit to me
    पर,हमतो
    रास्ते बदलते रहे,
    घर बदलते रहे,
    रोक नहीं पाए बरसात,
    न ही सड़क का टूटना
    न ही छत टपकना.

    ना ही सड़क ठीक कर पाए,
    ना ही अपना घर
    बस भींगते रहे,
    भागते रहे
    अपने-आप से.
    अत्यंत सुन्दर रचना ! आभार !

    प्रसून दीक्षित 'अंकुर'
    मो. नं. +919839232311






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  10. राजीव भाई पहले भी मैं कह चुका हूं कि आप विचार को एक तारताम्‍यता में प्रस्‍तुत करने का कौशल प्राप्‍त कर चुके हैं। बस आपको थोड़े धैर्य की जरूरत और है। जैसे घूमते चाक पर मिट्टी का घडा बनाते समय कलाकार का हाथ जरा सा बहक जाए तो टेड़ापन आ जाता है।
    आप की इस कविता में भी वही 'ऐब'(अन्‍यथा न लें उपमा है) रह जाता है। तो अपनी कलम को बहकने से रोकिए। कविता की मिट्टी में आने वाले कंकर निकाल फेंकिए। और आप जानते हैं मेरी आपसे इससे बेहतर की अपेक्षाएं हैंहैं इसलिए इस लहजे में बात करता हूं। अन्‍यथा टेड़े मटके भी बिक ही जाते हैं।
    यह कविता भी बहुत अच्‍छी है,पर शिल्‍प के स्‍तर पर उतनी नहीं जितनी मैं चाहता हूं। शुभकामनाएं।

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  11. palayanvadi mansikta par bahut karara prahar....bahut badiya rachna...

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