Saturday, September 25, 2010

ये क्या किया

ये तुमने क्या किया ?
ईश्वर को अपनी मर्जी का
गुलाम बना दिया,
जहाँ से चाहा उठा दिया,
जहाँ चाहा बिठा दिया
कभी मंदिर तो कभी मस्जिद में डाला
कभी ईसा तो कभी गुरु नानक में ढाला।

तुमने ही पाला, तुमने ही पोसा
तुमने ही तोडा,तुमने ही जोड़ा
पर,नहीं मिटा पाए मन से हमारे
राम-रहीम,कृष्ण-करीम,
ना ही उनके आदर्श,
न ही तोड़ पाए
उनके बनाये रास्ते

तोड़ पाए तो बस
कोई मंदिर,कोई मस्जिद
किसी का बुत,किसी का घर,
कोई कसर नहीं छोड़ी
तोड़ने में आस्था की कमर,
अपना अलग आदर्श बनाकर ।

तुम जानते हो
आज जो अयोध्या में बैठा है
वो राम नहीं है,.
जो वृन्दावन में बैठा है
वो घनश्याम नहीं है.
ये तो कब के समां गए हैं
हमारे मन में
घर कर गए हैं
जन-जन में।

तुम जानते थे
ये जो मंदिरों और मस्जिदों में बैठे हैं
कभी कुछ कहते नहीं हैं
बस सुनते हैं जो हम सुनाते हैं
इसी का फायदा तुमने उठाया,
ला खड़ा किया
भाई को भाई के सामने,
दोस्त को दुश्मन बना
चलाते रहे अपनी दुकान।

अपनी हरकतों से बाज नहीं आये
अपनी पहचान बनाने,
बचाने के चक्कर में ,
तोड़ते गए,टूटते गए,
आपस में बंटते रहे,
बांटते रहे अपना ईष्ट,
कभी सोचा नहीं
आखिर क्या होगा इसका हश्र ?

गर औरों को मिला पाते
तो इन्सां हो जाते.
घृणा को घर करने दिया
तुमने अपने मन में,
प्यार की फसल नहीं उगा पाए,
सहिष्णुता,एकता,
भाई-चारा और समभाव का पाठ
नहीं पढ़ा पाए खुद को ।

स्वार्थवश
तुम्ही ने किया
खेत से खुदा तक का बंटवारा,
बढाई दूरियां अपनों के बीच
अपना-अपना देवता, बनाकर।

काश !
धर्म को अपनी जागीर न बनाते ,
भेद-भाव की दीवार न उठाते
तो आज हम
राम-रहीम को साथ-साथ पाते।

9 comments:

  1. सही कहा मगर ये इंसान कब सोचता है सब स्वार्थपरता की भेंट चढ जाता है।

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  2. इंसान ने ही तो दीवारें खड़ी की हुई हैं ...

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  3. bikul satya kathan, lekin ab insaan aisa kahan soch paata hai....
    मेरे ब्लॉग पर इस बार धर्मवीर भारती की एक रचना...
    जरूर आएँ.....

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  4. काश !
    धर्म को अपनी जागीर न बनाते ,
    भेद-भाव की दीवार न उठाते
    तो आज हम
    राम-रहीम को साथ-साथ पाते।
    बेहतरीन अभिव्यक्ति बहुत गहरी बातें

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  5. काश !
    धर्म को अपनी जागीर न बनाते ,
    भेद-भाव की दीवार न उठाते
    तो आज हम
    राम-रहीम को साथ-साथ पाते।
    kaash

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  6. राजीव भाई, मुझे लगता है यह आरोप-प्रत्यारोप का समय नहीं है। आत्मावलोकन का समय है। इसलिए आपकी कविता को मैंने इस तरह पढ़ा। संक्षिप्त- में कहूं तो ‘तुमने’ की जगह ‘हमने’ रखकर पढ़ा। एक दो छोट मोटे परिवर्तन और भी किए हैं। शुभकामनाएं।

    ये हमने क्या किया ?
    ईश्वर को
    गुलाम बना दिया,
    जहाँ से चाहा उठा दिया,
    जहाँ चाहा बिठा दिया
    कभी मंदिर में ,
    कभी मस्जिद में
    कभी ईसा,
    तो कभी गुरु नानक में ढाला।

    हमने पाला, हमने पोसा
    हमने तोडा,हमने जोड़ा
    पर, नहीं मिटा पाए मन से
    राम-रहीम,कृष्ण-करीम,
    ना ही उनके आदर्श,
    न ही तोड़ पाए
    उनके बनाये रास्ते ।

    तोड़ पाए तो बस
    कोई मंदिर, कोई मस्जिद
    किसी का बुत, किसी का घर,
    कोई कसर नहीं छोड़ी
    तोड़ने में आस्था की कमर,
    अपना अलग आदर्श बनाकर ।

    हम जानते हैं
    आज जो अयोध्या में बैठा है
    वो राम नहीं है,.
    जो वृन्दावन में बैठा है
    वो घनश्याम नहीं है.
    वो तो कब के समां गए हैं
    हमारे मन में
    घर कर गए हैं
    जन-जन में।

    हम जानते थे
    ये जो मंदिरों में बैठे हैं और मस्जिदों में हैं
    कभी कुछ कहते नहीं हैं
    बस सुनते हैं जो हम सुनाते हैं
    इसी का फायदा हमने उठाया,
    ला खड़ा किया
    इंसान को इंसान के सामने,
    दोस्त को दुश्मन बना
    चलाते रहे अपनी दुकान।

    अपनी हरकतों से बाज नहीं आये
    अपनी पहचान बनाने,
    बचाने के चक्कर में ,
    तोड़ते गए,टूटते गए,
    आपस में बंटते रहे,
    बांटते रहे अपना ईष्ट,

    कभी सोचा नहीं
    गर औरों को मिला पाते
    तो स्वयं ही खुदा हो जाते.
    घृणा को घर करने दिया
    हमने अपने मन में,
    प्यार नहीं उगा पाए,
    सहिष्णुता,एकता,
    भाई-चारा और समभाव का पाठ
    नहीं पढ़ा पाए खुद को ।

    स्वार्थवश
    हमने ने ही किया
    खेत से खुदा तक का बंटवारा,
    बढाई दूरियां अपनों के बीच
    अपना-अपना देवता, बनाकर।

    काश !
    धर्म को अपनी जागीर न बनाएं ,
    भेद-भाव की दीवार न उठाएं
    काश!
    हम आज भी चेत जाएं।

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  7. हम तो इस बात कि गुहार लगा रहे हैं लेकिन कुछ सिरफिरे इसे मुद्दा बनाये बैठे हैं.

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  8. ishwar ko manne vale to use apne hriday mandir/masjid/gurudware/church me pooj lete hai.unke liye ye sab bekar ki bate hai,dikhawe valo ke liye pahle se moujood hazaron lakhon poojasthal bhi kam hai.bahut sunder abhivyakti....badhai..

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  9. kaya kroge bolo tau masjid-o-shivala leker
    naa todo apne desh ko dhram ka hwala deker
    agar khush hi karna hai us perwerdigar ko
    tau karo kisi greeb ke muh me niwala deker
    paucho aansu kisi kaa dard baant ker dekho
    roshan kro kisi ka ghar pyar ka ujaala deker

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