Monday, July 26, 2010

"उसका" ख़त

आज भी
जब देखता हूँ
"उसका" ख़त
याद आता है
बीता हुआ कल,
वो बैचनी,
वो अपनापन.

कैसे
बैचैन कर जाता था
उसके ख़त का
इन्तजार,
बढ़ा जाता था
मेरी भीतर की
बेकरारी.

लेकिन
उमड़ आते थे
घने बादल
लग जाती थी
सावन की झड़ी,
नाच उठता था
मेरा मन-मयूर,
उसका ख़त पाकर.

सुख से भर देती थी
मेरे मन-प्राण
उनके हाथ की लिखाई
क्योंकि
उसके पीछे होता था
उसका अक्स ,
उसका समर्पण ,
उसका प्यार.

लगता है मानों
वह स्वयं खड़ी हो
ख़त के मजमून में
मेरे लिए बाहें फैलाये
आज भी.

3 comments:

  1. लगता है मानों
    वह स्वयं खड़ी हो
    ख़त के मजमून में
    मेरे लिए बाहें फैलाये
    आज भी.
    अच्छा है कभी इंतजार के भ्रम में भी रहना. वरन आज कल तो कोई किसी का इंतजार नहीं करता

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  2. "लगता है मानों
    वह स्वयं खड़ी हो
    ख़त के मजमून में
    मेरे लिए बाहें फैलाये
    आज भी. "
    khat ke bahane aapne apni yaaden taji kar lee... antim panktiyo me pyar nayee unchai par pahunch gaya hai...
    "सुख से भर देती थी
    मेरे मन-प्राण
    उनके हाथ की लिखाई
    क्योंकि
    उसके पीछे होता था
    उसका अक्स ,
    उसका समर्पण ,
    उसका प्यार."...
    .. is anuchhed me prem me samarpan ka bhav adbhud roop se sampreshit kiya gaya hai.. khat ko eak naya aayaam diya hai aapne !
    "लेकिन
    उमड़ आते थे
    घने बादल
    लग जाती थी
    सावन की झड़ी,
    नाच उठता था
    मेरा मन-मयूर,
    उसका ख़त पाकर."...
    kaht ke liye itni shiddat se intjaar bas aap hi kar sakte hain... bahut badhiya.. anupam !

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  3. कैसे
    बैचैन कर जाता था
    उसके ख़त का
    इन्तजार,
    बढ़ा जाता था
    मेरी भीतर की
    बेकरारी.

    bahut umda rachna hai...

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