Thursday, June 10, 2010

महानगर का एक और चेहरा

यहाँ लोग
मरे हुए कुत्तों को
फेंक जाते हैं
खुली सड़क पर
अँधेरी रात में
दिन के उजाले में
सड़ने और दमघोंटू बदबू
फ़ैलाने के लिए .
फैंक कर
लौट जाते हैं
अपने घर
अँधेरे में
अपना मुंह छिपाए
अपनी सड़ी-गली सोच के साथ
जीने के लिए
लेकिन
करें भी
तो क्या करें.
यहाँ का तो दर्शन है,
"जो हो रहा है,होने दो,
जैसा चल रहा है,चलने दो,
कोई मरता है,मरने दो"
यहाँ की परंपरा है
"देखो,सुनो और बढ़ जाओ,
रुको मत,
बढ़ते रहो,चलते रहो ."
अंतस में
कोई हलचल नहीं,
कोई उबाल नही.
न कोई प्रतिक्रिया,
न ही कोई पछतावा.

कुत्ते की लाश
तो सड़-गल जाएगी ,
दिन,हफ्ते,महीनों में .
पर
सडती रहेगी
हमारे भीतर
एक लाश
एक पीढ़ी से
दूसरी पीढ़ी तक,
होता रहेगा
इसका अनवरत विस्तार.

1 comment:

  1. महानगर की खोखली संवेदना को बहुत ही सुन्दरता और बेबाकी से आपने प्रस्तुत किया है..

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