Tuesday, June 15, 2010

टेलेफोन का खंभा

टेलेफोन का खंभा हूँ मैं
चौपाल में अकेले बैठकर
हुक्का गुडगुडाते
दादाजी की तरह
आज सड़क पर खड़ा-खड़ा
शर्म से गड़ा-गड़ा
हसरत-भरी निगाहों से
देखता हूँ उन्हें
जो कल तक
मेरी एक झलक को
तरसते थे.

अजीब से द्वंद्व में फंसा मैं
आज सोच नहीं पा रहा हूँ
अपने अतीत पर इतराऊँ
या फिर अपने वर्तमान
आंसू बहाऊँ.

याद आता है
वो दिन
जब जेठ की दोपहरी में भी
लाइनमेन सीढ़ी लगाता था
और फिर उसपर चढ़कर
नए कनेक्शन लगाता था
और नीचे होती थी
हसरत भरी निगाहों वाले
तमाशबीनों भीड़
तो कैसे मेरा
और
लाइनमेन का सर
गर्व से ऊंचा हो जाता था,

एक समय था
जब मैं
स्वयं पर बहुत इतराया करता था
लाइनमेन के अलावा
कोई और मेरे ऊपर चढ़े
यह बर्दाश्त नहीं कर पाता था.
जब लगता था
नया कनेक्शन
किसी के घर
हाथ जोड़े खड़ा होता था वह
मेरे नीचे ,
कर देते थे उसपर मेहरबानी
लाइनमेन को
उसके घर की घंटी
बजाने देते थे .

कभी हुआ करता था
हमारे सर पर
सफ़ेद ताज
चीनी मिटटी का
पर,हाय रे समय का फेर
हमें बना दिया
बिना डाली का
सूखा हुआ
ठूँठा पेड़.

2 comments:

  1. telephone ka khamba... sunder bimb hai... jiwan ke kareeb aur bahut sahaj shabd... adbhud rachna

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  2. आज पहली बार आना हुआ पर आना सफल हुआ देर से आने का दुःख भी बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति

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