यह शहर
कोलकाता है
जहाँ
चीथड़ों में लिपटा
ढांचे सा खड़ा
एक मरियल आदमी
रोटी के लिए
तांगे की तरह
रिक्शा चलाता है
घोड़ा बनकर .
अपना खून जलाता है,
पसीना बहता है,
उसकी नज़रों के
सामने होता है
उसका गंतव्य,
नज़रों के पीछे होता है
मिलनेवाला "भाड़ा"
जिसके लिए
वह दौड़ता जाता है,
हाँफता जाता है ,
हाँफता जाता है ,
दौड़ता जाता है
लेकिन रुकता नहीं
बस दौड़ता जाता है:
एक मील,दो मील ,दस मील......
मीलों का सफ़र
रोज तय कर जाता है
दो जून के निवाले के लिए.
कमाकर कर
जब घर आता है
वह बिलकुल बेदम
नजर आता है,
आते ही
जमीन पर लेट जाता है
एक लोटा पानी की आस लिए
फर्श पर ही सो जाता है,
बगल में लुढ़की होती है
दारू की बोतल-दोनों बिलकुल खाली
बहुत सुंदर रचना... आज यह अधिक प्रासंगिक भी है क्योंकि लाल गढ़ को धक्का लगा है... पहली बार... क्या नया परिवर्तन कोल्कता का यह चरित्र बदल पायेगा... देखना होगा... मर्म से भरी कविता... अंतिम पंक्तियाँ... नया बिम्ब गढ़ रही है... दोनों खाली... इक सुंदर और सार्थक रचना के लिए कोई भी बधाई कम है...
ReplyDeleteकोलकाता हो या कोई भी शहर....एक गरीब की स्थिति इतनी सी ही होती है....पेट के लिए चलता हुआ , थकान से बेबस शराब को हमसफ़र बना लेता है और ज़िन्दगी शुरू सी लगती ख़त्म होती है
ReplyDeleteअनुभवों की जो चाभी इस उम्र में आपके पास है, वो आपकी रचनाओं के मध्य से गुजरती है , और बहुत कुछ सोचने पर बाध्य करती है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना,,परन्तु जीवन का उद्देश्य है ..कमाना और शांति से जीना ,,,वो दिन में कमाता है ..रात को किसी भी प्रकार शांति से सो जाता है ,,चाहे वो शांति काल्पनिक और कृत्रिम हो ............वास्तविक शांति बहुत ही कम देखेने को मिलती है ....अच्छा और सार्थक लेखन
ReplyDeletehaaan!! Rashmi di ne sahi kaha......garibo ko duhna aur fir sarab ke rash me apne ko sarabor kar dena..........yahin to unki jindagi hai...:(
ReplyDeleteek prasangik aur dil ko chhune wali rachna!!
kya kabhi hamare blog pe aayenge!!