यहाँ लोग
मरे हुए कुत्तों को
फेंक जाते हैं
खुली सड़क पर
अँधेरी रात में
दिन के उजाले में
सड़ने और दमघोंटू बदबू
फ़ैलाने के लिए .
फैंक कर
लौट जाते हैं
अपने घर
अँधेरे में
अपना मुंह छिपाए
अपनी सड़ी-गली सोच के साथ
जीने के लिए
लेकिन
करें भी
तो क्या करें.
यहाँ का तो दर्शन है,
"जो हो रहा है,होने दो,
जैसा चल रहा है,चलने दो,
कोई मरता है,मरने दो"
यहाँ की परंपरा है
"देखो,सुनो और बढ़ जाओ,
रुको मत,
बढ़ते रहो,चलते रहो ."
अंतस में
कोई हलचल नहीं,
कोई उबाल नही.
न कोई प्रतिक्रिया,
न ही कोई पछतावा.
कुत्ते की लाश
तो सड़-गल जाएगी ,
दिन,हफ्ते,महीनों में .
पर
सडती रहेगी
हमारे भीतर
एक लाश
एक पीढ़ी से
दूसरी पीढ़ी तक,
होता रहेगा
इसका अनवरत विस्तार.
महानगर की खोखली संवेदना को बहुत ही सुन्दरता और बेबाकी से आपने प्रस्तुत किया है..
ReplyDelete