Wednesday, June 9, 2010

रिक्शावाला-एडिटेड

यह शहर
कोलकाता है
जहाँ
चीथड़ों में लिपटा
ढांचे सा खड़ा
एक मरियल आदमी
रोटी के लिए
तांगे की तरह
रिक्शा चलाता है
घोड़ा बनकर .

अपना खून जलाता है,
पसीना बहता है,
उसकी नज़रों के
सामने होता है
उसका गंतव्य,
नज़रों के पीछे होता है
मिलनेवाला "भाड़ा"
जिसके लिए
वह दौड़ता जाता है,
हाँफता जाता है ,
हाँफता जाता है ,
दौड़ता जाता है
लेकिन रुकता नहीं
बस दौड़ता जाता है:
एक मील,दो मील ,दस मील......
मीलों का सफ़र
रोज तय कर जाता है
दो जून के निवाले के लिए.

कमाकर कर
जब घर आता है
वह बिलकुल बेदम
नजर आता है,
आते ही
जमीन पर
लेट जाता है
लोटे में पानी लिए
उसकी पत्नी ,
बेबस सी देखती है
कभी पति का खोखला बदन,
कभी उसकी खाली जेब
कभी चूल्हे को
जिसमें नहीं है आग ,
पेट की आग बुझेगी कैसे?
कातर नज़रों से
बच्चे भी तकते है
फर्श पर पड़े बाप को
जो उनकी नज़रों के सामने
लुढ़का पड़ा है
बगल में लुढ़की पड़ी है
दारू की बोतल-दोनों बिलकुल खाली.




(नयी पंक्तियाँ नए रूप में.)
कमाकर कर
जब घर आता है
वह बिलकुल बेदम
नजर आता है,
आते ही
जमीं पर लोट जाता है.
पत्नी हाथ में पानी लिए
जेब में घुसी
दारू की बोतल देख
धम्म से बैठ जाती है
अपना सिर पकड़ कर .
जेब में टटोलती है पैसे
और फिर
खाली जेब देख
बच्चों के साथ
कभी खाली चूल्हे को देखती है
और कभी खाली बोतल को.

2 comments:

  1. har mehnatkash ki yahi kahani hai sir!! waise mujhe lag raha hai, maine ye kavita aapki kahin padhi hai.....:)

    ek marmik chitran!!

    hamare blog pe bhi aayen

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  2. pahli rachna mein thoda sanshodhan kiya hai,pariwarik parivesh ka samavesh kiya hai,aap sahi hain,Mukesh Jee.

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