Ramnihore:The Ricksaw Puller
Meeting with
Ramnihore,
A rickshaw puller in
Kolkata
Was like a journey
to the world
Where gravity sucks
the seed of energy,
The calves turns
rock-hard
And both the hands
bend like a bow,
The man running on
the road
Gasps like a summer
a dog
And fails to utter
a word.
He pulls from
museum to Free School Street
Know not why now
called Mirja Galib Street.
Everyone in the
area knows him
Be it an agent of a
hotel or of a brothel ,
Generations were
pulling the rickshaw here.
Look intently!
Everywhere you will
find
The footprints of
their cracked ankles,
As if circumambulation
of a civilization is lying underneath.
His memory fails to
remember
The names of his
forefathers,
But he says, “His
Rickshaw is hundred years old,
And the hand - bell
is eighty years old
Which is used to
call the people around,
And not the clean
the road.
There was a bronze
plate affixed
Just below the
small row of a hanging bells
And on that plate
was written:Calcutta - 19121”.
His ears had it
that
His forefathers
were from Buxar
Who had pulled the
rickshaw for Britishers,
And those who couldn’t
pull the wheels on road
Turned coolies at
Hawrah Junction,
Or went to Jute
mills as labourers.
He had heard stories
of people turning Girmitias
Or preferring to be
a peon in the office.
Even today
Ramnihore likes foreigners
To the core of his
heart,
Who pay him
generously
And give him costly
items,
Or even their
cigarettes as gift.
At times they even
loved to drive his rickshaw
But not for free.
Locals don’t pay fare
without altercations
Even when there is
west high water on roads all arounds
During rainy days
And they fail to
reach their homes.
Kolkata is the last
mile destination for Ramnihore,
Going to Patna or
Delhi
Is beyond his
active horizon.
He knows that govt.
is unwilling to allow rickshaw on road,
But is rest assured
that all is safe
Under the umbrella
of police and mafia
And progression
towards 21st century is culminating.
He never went to
school
He learnt
everything
In the free school
street, hotels & Dhabas.
But today his
children are students
Of Kalighat Govt.
school
His wife sells
toys, sandle-wood and flowers.
By 8 o’clock in the
evening
He returns home
everyday
Where rests his
small world.
During off season when
tourists are in numbers
He silently scolds
those
Who hypocritically
skip hand-rickshaw
Saying that it is
highly inhuman
To force a man to
carry another man.
He grows
interrogative,
“Would it be better to become a
beggar
Keeping his self-respect aside,
Or start stealing or die hungry?”
Far and wide it’s clear
That such people will have
to face the music
Here and here only
To meet Ramnihore makes me ardently feel
As if I’m meeting a man
Who like a big sea-turtle
Bears the burden of this Earth
And the civilization
Without being God.
Rajiv(05/04/2022)
(Translation of a poem of Shri Rajeshwar Vashisth)
।। राम निहोर का कोलकाता ।।
राम निहोर से मिलना किसी ऐसी दुनिया की यात्रा है
जहाँ धरती का गुरुत्व निचौड़ लेता है शरीर का दम,
पत्थर-सी गोल हो जाती हैं पैरों की पिंडलियाँ
और कमानियों से खिंच जाते हैं दोनों बाजू;
इंसान हाँफता है कुत्ते की तरह
पर भौंक नहीं सकता।
राम निहोर चलता है म्युज़ियम से फ्री स्कूल स्ट्रीट
जिसे अब न जाने क्या सोच कर
नाम दे दिया गया है मिर्ज़ा ग़ालिब स्ट्रीट।
इस इलाके में उसे पहचानते हैं सभी तरह के लोग
होटलों से लेकर चकला-घरों तक के दलाल।
यहीं खींचते थे रिक्शा उसकी पिछली पीढ़ियों के लोग,
गौर से देखिए, हर चप्पे-चप्पे पर मिल जाएंगे
उनकी फटी एड़ियों के निशान;
एक पूरी सभ्यता की परिक्रमा छिपी है इस रास्ते में।
राम निहोर को याद नहीं अपने पुरखों के नाम,
पर उसका कहना है सौ साल पुराना है उसका रिक्शा।
अस्सी साल पुरानी है हाथ-घंटी
जिसे रास्ता साफ करने के लिए नहीं
ग्राहक को बुलाने के लिए बजाया जाता है।
पीछे लटकते घुँघरुओं के नीचे लगी है
पीतल की पट्टी
जिस पर लिखा है कैल्कटा – 1912.
राम निहोर ने सुना था
बक्सर के नज़दीक से आए थे पुरखे,
जिन्होंने पहली बार खींचा था
गोरे साहब के लिए रिक्शा।
बाद की संतानों में जो नहीं खींच सकते थे रिक्शा
बन गए हावड़ा स्टेशन पर कुली
या जूट मिलों के मज़दूर।
उसने सुनी थी कहाँनियाँ
गिरमिटिया बनने से लेकर
अंग्रेज़ों के अर्दली बनने तक की।
आज भी राम निहोर को बहुत भाते हैं फिरंगी
जिनसे माँगना नहीं पड़ता किराया,
दे जाते हैं कितने ही कीमती सामान और सिगरटें।
कभी कभी खींचते हैं उसका रिक्शा पैसा देकर।
देश के लोग तब देते हैं मोल-जोख कर रिक्शा-किराया,
जब बरसात के दिनों में भरा होता है कमर तक पानी
और वे पहुँच नहीं पाते अपने घरों तक।
राम निहोर के लिए
धरती का आखिरी छोर है कोलकाता।
उसने कभी नहीं सोचा
दिल्ली या पटना जाने के बारे में।
वह जानता है सरकार नहीं चाहती चलें ये हाथ रिक्शा।
पर आश्वस्त है राम निहोर –
पुलिस और माफिया की छाया में
देश और सरकार दौड़ रहे हैं इक्कीसवीं सदी की ओर।
राम निहोर कभी नहीं गया स्कूल
उसकी सारी शिक्षा हुई
फ्री स्कूल स्ट्रीट के गलियारों, होटलों और ढाबों में।
पर अब कालीघाट के सरकारी स्कूल में
पढ़ते हैं उसके बच्चे,
बीवी बेचती है खिलौने, चंदन और पुष्प।
रात आठ बजे तक वह लौट जाता है घर
जहाँ बसी है एक छोटी-सी दुनिया।
जिन दिनों नहीं होते टूरिस्ट
वह कोसता है सवारियों को
जो यह सोच कर नहीं बैठते हाथ- रिक्शा में
कि अच्छा नहीं लगता
इंसान ढ़ोए इंसान का बोझ।
वह पूछता है
क्या यह अच्छा लगेगा
कि एक इंसान माँगने लगे भीख
कुचल कर अपनी आत्मा,
या मर जाए भूख से, करने लगे चोरी
जाहिर है स्वर्ग में नहीं जाएंगे
ऐसा सोचने वाले लोग।
राम निहोर से मिलना
मिलना है एक ऐसे इंसान से
जो ईश्वर की तरह
उठाता है सभ्यता का बोझ
बिना ईश्वर बने।
------- राजेश्वर वशिष्ठ