पापा को खत
आपका व्यक्तित्व
मुझ पर हमेशा हावि रहा,
जिस तरह
आपने मार्क्स के बारे में विस्तार से बताया,
जिस तरह
आपने मेरे अनगिनत सपनों को पहचान दी,
जिस तरह
आपने समय चक्र को साधा
और इतिहास
के उतार-चढ़ाव से रूबरू करवाया,
जिस तरह
आपने नित्से को नाजीवाद से जोड़ा,
जिस तरह
सापेक्षवाद को अपने आसान बनाया,
और फ्रायड
पर चढ़े मुल्लमें को हटाया,
जिस तरह
गैरीबाल्डी और ग्यूवेरा की बाते करते हुए ,
आपके चेहरे
की चमक बढ़ जाती थी
उससे मैं
अभिभूत था।
गांधी का महात्मा होना भी
आपसे ही जाना, पापा
आपने ही मेरे सपनों को पंख दिए
हौसला दिया
असीम आकाश
में उड़ने का,
मैं धीरे-धीरे
बड़ा हो रहा था
फिर
भी
मैं हमेशा आपसे,
आपकी
चुप्पी से थोड़ा भयाक्रांत रहा
जो घर के
कोने-कोने में घर किए बैठी थी।
आपके दिए
असंभव से लक्ष्य को पाने में
असफल मैं
आपके
अभिभावकीय कोप
आपके कड़े
तेवर से परेशान
कई बार
सामान्य
शिष्टाचार की सीमाएं
लांघता
रहा।
मेरे प्रति बढ़ती आपकी निराशा,
आपकी आंखों
की उदासी को झेलना
जब असह्य
हो जाता,
मेरा मन
पलभर को
विद्रोही हो जाता था।
आपकी
पुरानी-जर्जर कार देखकर
मुझे आप पर
बहुत गुस्सा आता था
पर आपकी
विवशता भी मैं समझने लगा था।
जब मैं 10वीं में था
तब घर में
ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. आया
बदलाव की
बयार लिए
आपके
अनियंत्रित गुस्से से
मुझे चिढ़
थी।
याद है
आपको
जब आपने
मुझे थप्पड़ मारा
और मैंने
आपका हाथ पकड लिया था
आप गुस्से में चुपचाप बाहर चले गए थे।
मेरे जीवन
में वो पल भी आए
जब मुझे
आपकी बेरहम इमानदारी
आपके विवेक
पर गुस्सा आता था
जीवन और
शब्दों के प्रति
आपके उदार
विचारों के सामने
मैं हमेशा
बौना नजर आया
आपमें सभी
नैसर्गिक गुण थे,
अथाह मगर
शांत सागर प्यार सा भी था
आपका
जानबुझकर शतरंज में हार जाना
वड्सवर्थ
के बारे में मुझे विस्तार से बताना
आपकी हंसी, आपका वाक् चातुर्य
मेरे अनगढ़ लेखन पर
आपका गर्व से भर जाना
मेरे बालों
में उंगलियां फिराना
तेज बारिश
और हवाओं में
मुझे
खींचकर घर से बाहर ले जाना
सर्द रातों
में मेरे साथ बैठकर
देर तक
बातें करना
आपके
सानिध्य की गर्माहट से भर देता था।
बेख्याली
में गुनगुनाती मां
और आपका
मोहित होकर उसको एकटक निहारना,
उनकी आंखों
पर छाई लटों को उँगलियों से झटककर हटाना
समय से परे
था, पापा।
मैं आपके
उस विश्वास पर फिदा था
जिसमें मेरे सपनों को
आसमान मिलने का भरोसा था,
काश! मैं समझ पाता कि जल्द ही यह सब
बिखर जाने वाला है
ट्रेन
धीरे-धीरे आगे बढ़ रही ही थी
और आप भीड़
का हिस्सा बनकर
भीड़ में
ही खो गए
खोते चले
गए।
पता होता
तो मैंने
उन पलों को कैद कर लिया होता, पापा।
दो दिन बाद
ही मुझे
आपका
समाचार मिला मिला
सामने जो
पाया था वो आप नहीं थे
शून्य को
निहारता निस्तेज शरीर मात्र था।
आपका अंतिम
संस्कार कर
मैं लौट
आया अपनी दुनिया में
इन पन्द्रह
वर्षों में शायद ही कभी मैं रोयाI
आपकी
अलमारियां साफ करते समय
एक दिन
कविताओं से भरी आपकी डायरी मिली
समय के
प्रभाव से जर्द होते,
बिखरते,
एक-एक पन्ने
पर
आपकी मुस्कुराहट
आपकी उदासी
की छाया
स्याही के
उतरते रंगों में
आज भी
पैबस्त हैं, पापा।
यह
वसीयतनामा था
आपके जीवन
और जीने के
सलीके का.
इन पन्द्रह
सालों में
मैंने कुछ
भी नहीं लिखा
कुछ भी तो
नहीं।
अपने आपको
संभालने में,
अपने दरम्यानेपन
से उबरने में
मुझे इतने
साल लग गए।
Rajiv:10/08/2020
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद,शास्त्री जी।आपका आभार,सर।
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