Wednesday, May 26, 2010

न जाने क्यूं ......

पत्थर हूँ मैं
रास्ते का
पास से गुजरते है
कई लोग
कोई एक ठोकर लगा जाता है,
कोई श्रद्धा से उठा
माथे से लगाता है
शिवाले का शिवलिंग
बना जाता है ,
न जाने क्यूं .......

पेड़ हूँ मैं
हरा-भरा
जिसपर
कुछ तो जल चढाते हैं,
शीश नवाते हैं,
कुछ राह चलते
डालियों को तोड़ जाते हैं,
पत्तियां नोच जाते हैं
न जाने क्यों ........

फूल हूँ मैं
बगिया का
बागबां पालता है
जिसे
जतन से,
स्नेह-भरे हाथों से
डाली से अलग कर
गुलदस्ते में सजाता है,
किसी के घर की
शोभा बना देता है.
पर, कुछ लोग
बड़ी बेरहमी से
तोड़ लेते हैं ,
पंखुड़ियों को मसलकर
फेंक देते हैं ,
न जाने क्यों ........

तितली हूँ मैं
अपने रंग-बिरंगे
पंखों पर इठलाती,इतराती
फूलों पर मंडराती हूँ मैं,
कोई तो
स्नेह-भरे हाथों से
सहला जाता है ,
कोई
मेरे पैरों में सूतली बांध
मेरी उडान रोक जाता है ,
न जाने क्यों ........

पंछी हूँ मैं
उन्मुक्त उडान भरता हूँ
खुले आकाश में,
कभी-कभी थककर
नीचे गिर जाता हूँ ,
तब
कुछ तो पानी पिलाते हैं
कुछ यूं ही तड़पता
छोड़ जाते हैं
न जाने क्यों ........

3 comments:

  1. कुछ तो पानी पिला जाते हैं
    कुछ यूं ही तड़पता छोड़ जाते हैं
    न जाने क्यों .......

    पत्थर की व्यथा ,,सुन्दर शब्दों में कही है आपने ...एक अच्छी कविता

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  2. कुछ तो पानी पिला जाते हैं
    कुछ यूं ही तड़पता छोड़ जाते हैं
    न जाने क्यों .......पत्थर की व्यथा ,,सुन्दर शब्दों में कही है आपने ...एक अच्छी कविता

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  3. virodhabhaason se bhari iss duniya me shayad aapke kyo ka uttar naa mile lekin prashn uthana aapka smeecheen aur saarthak hai... behad samvedansheel rachna ... badahi

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