Thursday, May 6, 2010

दिल्ली

आते-जाते
रोज
मैं देखा करता था
एक नन्ही सी बच्ची को
अपने झोपड़े के आगे
खेलते हुए
गली के बच्चों के साथ.
प्लाट में बहते
नालों की तरह
बहती रहती थी
उसकी नाक,
सर के बाल
थे बेहद उलझे-उलझे से ,
उनींदी आखों में
भरी होती थी कीच
और
मेमने की तरह
लगा रही होती थी
वह दौड़
आस-पास के खेतों में,
खलिहानों में,
कच्ची-पक्की,
धूलभरी सडकों पर
बिना किसी चिंता,
बिना किसी भय.

बहुत दिनों बाद
आज जब मैं
एकबार फिर
गुजरा उधर से
तो
झोपड़े की जगह
एक भव्य मकान
खड़ा पाया.
हर तरफ
पक्की सड़कें,
पक्की नालियाँ,
बिजली के खम्भे
और
घर के बाहर
एक बेहद खूबसूरत
युवती को खड़ा पाया .
उसे देखकर
मैं सोच में पड़ गया ......
वह बच्ची कहाँ है?
कहाँ है वह झोपड़ा ?
तभी एक सुरीली आवाज से
मेरी तन्द्रा टूटी:
"मुझे पहचाना नहीं,अंकल,
मैं वही झोपड़ेवाली दिल्ली"

4 comments:

  1. dilli ke parivartan aur issi bahane urbanisation or development ko bahut sahajta se vyakt kiya hai aapne... kaash ye baat pure desh ke saath ho paati aur har jhopda vhavya makan me tabdeel ho jaata aur har naak bahane wali ladki sunder yuvati me badal jaati... lekin aisa ho nahi paaya hai...

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  2. parivartan to sansaar ka saswat satya hai......haan hamari dilli, dil walo ki dilli bhi parivartit ho gayee hai.......jhopri se building ka aakaar le chuke hain.........lekin kahin wo dil ka khona khali ho rha hai..........!!!

    bahut khubsurat rachna........prashanshniya!!

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  3. kabhi hamare blog pe dastak dena.......plz
    www.jindagikeerahen.blogspoat.com

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  4. is kavita par arun g ki tippani bahut sahi hai.

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